दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~५,६ अंक~६
#नमस्ते_रुद्ररूपिण्यै_नमस्ते_मधुमर्दिनि।
#नमः #कैटभहारिण्यै_नमस्ते_महिषार्दिनि॥
#नमस्ते_शुम्भहन्त्र्यै_च_निशुम्भासुरघातिनि।।
हे प्रिय!!अब पुनः ऋषि कहते हैं कि-"नमस्ते रुद्ररूपिण्यै" हे रूद्र स्वरूपिणि माँ!! आप स्मरण रखें कि शु•यजु•रू•सं• में कहते हैं कि-
#नमस्ते_रूद्र_मन्यव_उषा_पुषवे_ते_नमः।।
सृष्टि जब प्रकट होती है!!जैसे ही उषाकाल होता है!!वैसे ही पूषा अर्थात पोषण की तथा उसके रूद्र अर्थात संहारकी,अंतकी ,रात्रिकी, महाप्रलयकी तैयारी भी शुरू हो जाती है!!
हे प्रिय!!शिव मन्त्रकी विवेचना में प्रथम ही कहते हैं कि- मैं आपके रूद्र स्वरूप का स्वागत करता हूँ!! नमन करता हूँ-आपकी संहारिणी शक्ति का!! और प्रथम ही ऐसा होता क्यूँ है!!सृष्ट्योदय होते ही सबसे पहले "मधुकेटभ" आजाते हैं!! #विष्णोकर्णमलोद्भूताः #राक्षसः #मधुकैटभम।।
आप ध्यान दें!!मैं कुञ्जिका का अर्थातन्तरण नहीं करना चाहती!!और न ही मूल स्तोत्रकी भावनासे हटना ही चाहती हूँ!!ऋषिकी प्रतिज्ञा है कि पाठ मात्र से सिद्धि होती है!! तो हे प्रिय!! जरा आप सोचो तो जब आप उत्पन्न हुवे!!जब आपने पहली बार अपने मुख से किसी शब्द का तोतली भाषा में उच्चारण किया था,तो वह शब्द था #माँ!!
विश्व साहित्यके शब्दकोशों में इस"माँ"शब्दसे मधुर दूसरा कोई शब्द आप ढूँढ डालो!!आपको मिलेगा ही नहीं!! यह सीधे ह्रिदयसे भी नीचे,आपकी नाभीसे उच्चारित होता है!! और दूसरा सबसे अप्रिय शब्द है "कैटभ"कटु-वाणी!!और यह सीधे आपके क्रोधसे प्रकट #ऐएएएए जो आपका संहार कर देता है!!
मैं आपसे नहीं कहती!!सप्तशती कहती है कि यदि आप अपना कल्याण चाहते हो!! तो इस "मधुरता और कटुता"से दूर हो जाओ!! उदासीन हो जाओ!!
मंत्र पाठकी बेला में आपकी वाणी न मधुर हो और न ही कटु हो!!यथार्थ वाणी हो!! हे प्रिय!! ऋषि कहते हैं कि- "नमस्ते महिषार्दिनि" ये महिषासुर कोई भैंसा नहीं है!!ब्यर्थ में उस बिचारे निरपराध जीवकी देवीपूजाके नामपर हत्या मतकरो!! ये महिषासुर आपके भीतर बैठा #पशुभाव है!!
जैसे कि-गाय,भैंस चारा पहले खा लेती हैं!!और बाद में बैठकर बड़े ही आरामसे जुगाली करती हैं!! वैसे ही लोगबाग इन स्तोत्रोंको याद करलेते हैं और फिर किसी टेपरिकार्ड की तरह पढने लगते हैं!! इससे क्या होगा ?
पाठ में कहते हैं कि - "महिषार्दिनि" महिषका आपकी पशुताका आपको अर्दन करना होगा!!दमन करना होगा!!किंतु ध्यान दें!!आप जिसका दमन करते हैं!!वह दमित हुयी भावना उचित और अनुकूल अवसर मिलते ही और भी प्रचण्डता से प्रस्फुटित होती है!!अतः ऋषि "अर्दन"शब्दका प्रयोग करते हैं!!
हे प्रिय!!स्मरण रखें कि बावन अक्षरों का प्रारम्भ ही #अ से होता है!! आपको अपने भीतर पशुता के भावोंको पाठ कालमें आने ही नहीं देना है!!और यह पशुभाव है क्या ?
भय,आहार,निद्रा और मैथुनादि भाव ही तो पशुता है!! यदि आप सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र का पाठ कर रहे हैं!!और साथ ही इन्ही विषयादि भोग सामग्रियोंके लिये कर रहे हैं!!कामनाओंकी पूर्ति हेतु कर रहे हैं!!लालचके वशीभूत होकर कर रहे हैं!! तो कदापि न करें!! क्योंकि पाठ होगा ही नहीं!! बस खाली कैसेट बजती रहेगी!!
आप इस पशुताको पचालो,यह निश्चय करलो कि मुझे कुछ भी भीख नहीं मांगनी है!!मात्र साक्षी भावसे ,निर्लिप्त और आत्मविभोर होकर "पाठ"करना है!! और पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-
"नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै, च निशुम्भासुरघातिनि" हे प्रिय!! ये शुम्भ-निशुम्भ कौन हैं ?
हैं तो ये दोनों ही असुरोंके सम्राट ही!!जो देवीको ही अपनी भार्या बनाने का स्वप्न संजोते हैं!! पाठका फल मुझे शुभ ही मिले!!अशुभ फल न मिले!! ऐसी भावना ही पाठके लिये सबसे घातक है!!तभी तो मेरे प्रियतमजी कहते हैं कि-
#सुखे_दुखे_समे_कृत्वा_लाभाऽलाभौ_जयाजयौ।
#ततो_युद्धाय_युज्यस्व_नैवं_पापम्_मर्हषि।।
हे प्रिय!!ये तो शाश्वत स्वीकार्य सत्य है कि जो आप जैसे श्रेष्ठ-जन होते हैं!!वे "शुभ-अशुभ" विधिके विधानों को सहजतासे स्वीकार कर लेते हैं!! सांसारिक सुख-दुख,मान-अपमान,जय-पराजय, लाभ-हानि को साधना से कभी भी सम्बद्ध करने का प्रयास नहीं करते!!ऋषि यही कहना चाहते हैं कि आप इसका पाठ यदि करें-तो अपने मनमें बैठी "शुम्भहन्त्र्यै, च निशुम्भासुरघातिनि" शुभ-अशुभ फलोंकी प्राप्तिका भय अथवा लालचसे दूर होकर!!उनका अपनी प्रज्ञा से हनन कर के बैठें!! तभी यह मंत्रपाठ सिद्ध होगा!!
और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!
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