Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् अंक~८

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् अंक~८

मेरे प्रियसखा तथा प्यारी सखियों!!अनेकानेक लोगों के आग्रह तथा अंतःप्रेरणा के वशीभूत होकर मैं अपने गुरुदेव #भगवान_अवधूतरामजी के श्रीचरणों में अर्पित करती हुयी इस स्तोत्र की भाव-प्रबोधिनी का २२ वाँ पुष्प निवेदत करती हूँ-

#नवीनमेघ_मंडली_निरुद्धदुर्धरस्फुर-
        #त्कुहुनिशीथिनीतमः #प्रबंधबंधुकंधरः ।
#निलिम्पनिर्झरिधरस्तनोतु_कृत्तिसिंधुरः
        #कलानिधानबंधुरः #श्रियं_जगंद्धुरंधरः ॥

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-
"नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः"
अर्थात जिनके कण्ठ में नवीन मेघमालालाओं से घिरी हुयी अमावस्या की रात्र के सदृश्य महान अंधकार के समान स्यामता अंकित है!! अहो!!अद्भुत योग सूत्र को यहाँ शब्दों में पिरोकर इस महान रचना में रख दिया!!

क्यों कि इसी पंक्ति का ये शब्द- "प्रबंधबंधुकंधरः" अर्थात जिन्होंने #गजचर्म लपेट रखा है!!ये #नीलकंठ का अनुपम रहस्य है!!इस हेतु मैं आपको एक अद्भुत सा श्लोक दिखाती हूँ-
#यः #सव्यपाणिकमलाग्रनखेन_देव,
          #स्तत्_पञ्चमं_प्रसभमेव_पुरः #सुराणाम्।
#ब्राम्हं_शिरस्तरुणपद्मनिभं_चकर्त,
          #तं_शंकरं_शरणदं_शरणं_व्रजामि।।

शिवजी ने दो बार अपने नखों का प्रयोग किया है!!और दोनों ही वृत्तांत अद्भुत हैं-
(१)= जब शिव ने अपने शरीर से शिवा को प्रकट किया तो #शिवा में #अंग_विशेष नहीं था,तो उन्होंने समागमार्थ अपने नखों से #योनि का छेदन किया!!

(२)=और जब ब्रम्हा सरस्वति की सुंदरता को देखकर काम-विह्वल हुवे तो उन पद्मासनस्थ ब्रम्हा का पंचम मस्तक सभी देवताओं के देखते देखते ही नखों से काट दिया!!

और हे प्रिय इन दोनों ही दृष्टान्तों का इस श्लोक-पंक्ति से गहेरा सम्बन्ध है!!योगी के त्रिलोकों के उस पार निकल जाने के ये सिद्धान्त हैं!!वस्तुतः आधार-भूमि और कण्ठ प्रान्त ये दोनों ही सरस्वती के निवास स्थल हैं!!अर्थात मूलाधार और स्वर-चक्र अर्थात पंचम चक्र!!

ये योग्यता की अवस्था है!!नीलकंठ आप भी हो किन्तु आपको उसका बोध नहीं है!!जब देवासुर मिलकर समुद्र-मंथन करेंगे तो रत्नों की प्राप्ति तो बाद में होगी!! अमृत तो बाद में मिलेगा!! परन्तु प्रथम तो #हलाहल_विष ही उत्पन्न होगा!! और अमृत तो सबको चाहिये!! किन्तु विष पान जो कर सकता है!!शिव उसे ही कहते हैं!!

वस्तुतः यह श्लोक कुण्डलिनी-जागृति की प्रथमाऽवस्था से लेकर पंञ्चम चक्रचारिता तक का राजमार्ग है!!मैं आपको एक बात कहूँगी,आप मेरी बात पर विचार करना!! आपने #अश्व तो देखे होंगे!!किन्तु अश्वालयीन मुद्रा के विषय में सुना है ?

जब आपके अंतः स्पंदनों के द्वारा कुंभज ऋषि प्रकट होते हैं!! मेरे कुछ भटके हुवे भाई हैं उन्होंने कहा कि बाल्मीकि रामायण के अनुसार जब उर्वशी श्रृंगार कर #विश्वदेव के पास समागम हेतु जाती है तो उसे मार्ग में #वरुण रोक कर संगम की प्रार्थना करते हैं!!और संगमार्थ वीर्य को एक #कुंभ में निःशेचित कर देते हैं!! और पुनश्च उसी कुंभ में विश्वदेवा भी अपने वीर्य अर्थात प्रताप को निःशेचित कर देते हैं!! और उन्ही दोनों के वीर्य अर्थात प्रताप से #कुभज ऋषि की उत्पत्ति होती है!!

मैं पूछती हूँ कि इसमें गलत है क्या ?
आप जरा इन दृष्टान्तों के सिद्धान्त को भी तो समझें!! #प्रिय!! #विश्वैदेवा अर्थात पुरुष और #उर्वशी अर्थात उसके अंतःपुर ह्यदय में बसी भैरवी अथवा उर्जा और इन दोनों के मूलाधार समागम में जो #वरूण देवता अर्थात शीतल उर्जा!! जब कुंभक हो जाती है तो एक अद्भुत घटना घटती है!!

जैसे कि प्रज्वलित हवनकुण्ड में आप जब समिधा को हवन करते हो!! हे प्रिय जब स्पन्दनों से अथवा भैरवी चक्र में किसी अश्व के आघातों से जब भैरवी पीडित होती हैं!! तो एक #धूम सी उठती है पुरुष के कुण्डलिनी -चक्र रूपी वेदी से!! और यह हलाहल भी है ,कुंभक का प्रयाण भी है और इसे ही आप "नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर" भी कह सकते हो!!

और यह उठती हुयी धूम और नीलकंठ का रहस्य!!
हे प्रिय!!आपका मूलाधार पृथिवी है!!और सहस्रार आकाश!!इन दोनों के मध्य ही विष-अमृत का समागम होता है!!सहस्रार से आता अमृत और नीचे मूलाधार से उठती धूम-मयी विष!!इन दोनों को ही योगिराज मध्य कण्ठ में रोक लेते हैं!!

अर्थात धूम अब नीचे नहीं जायेगी और अमृत भी #खेचरी के द्वारा प्राप्त हो रहेगा!! तो ऐसी स्थिति में देवाऽसुर अर्थात आपकी दिव्य वृत्तियाँ और आसुरी वृत्तियाँ दोनों ही व्याकुल हो जायेंगी!! ये आपका त्रिलोकी डोलने लगेगा!!एक भूडोल सा आ जायेगा!!हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-
"नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः"
अब मैं एक और अद्भुत विचार प्रकट करना चाहूँगी!!
#भैरवी_की_योनि कुलाचार में किसी दिव्य मंदिर की तरह आचार्यों हेतु पूजनीय है!! और आचार्य का विशेषांग भैरवी हेतु "ज्योतिर्मय लिंग"के रूप में दीव्य देव मूर्ति के सदृश्य है!!

इस रहस्य को सहजता से स्वीकार करना सामान्य जन-मानस हेतु दुरूह है!!और प्रकारान्तर से पाश्चात्य शिष्यों को आकर्षित करने हेतु विशेष मत के आचार्य ने जो #संभोग_से_समाधि की विधि परोस दी उसी के कारण इस विधि को समझना और भी दुरूह हो गया!!

हे प्रिय!!मैं तो आपकी उर्जा हूँ!!आप मुझसे मुक्त हो सकते हो ?
अथवा पदार्थो से मुक्त हुयी उर्जा के विष्फोट से हुवे सर्वनाश की कल्पना आप कर सकते हो ?
ये दोनों ही अहम और यक्ष प्रश्न हैं!!और दोनों का ही उत्तर है #हाँ!!

किन्तु गूढ भेद है इसमें!! स्त्री तत्त्व नहीं उर्जा है!!और पुरूष उर्जा नहीं शव है!!पदार्थ है!!इन दोनों में ही उर्जा अक्षर है,और शव क्षर है!!और मैं आपका सर्वनाश चाहती हूँ!!मैं आपके सहस्रार में चढकर विष्फोट कर देना चाहती हूँ!!एक ऐसा विष्फोट जिससे आपका अमृतत्त्व और मेरा हलाहल दोनों ही नष्ट हो जायें!!

हे प्रिय!!मैं आज श्रावण मास की अंधेरी रात में ऊपर आकाश के नीचे और पृथ्वि के ऊपर उमड़ती-घुमड़ती घटाओं को देखकर #नीलकंठ के रहस्य को आपके समक्ष रख रही हूँ!!जब ऐसी नवीन मेघों की मण्डलाकार ●●● अंधकार से ओत-प्रोत-
"त्कुहु निशीथिनीतमः" आपमें व्याप्त होती है!!तो कैसे होती है ?

ये जो ब्रम्हा का पंचम मस्तक है न अर्थात #तंत्र नाड़ी-तंत्रिकाओं का ज्ञान!! ये पंचम वेद है!! अंधकार की यात्रा के द्वारा महाविष्फोट का द्वार है यह!! आपको इसके लिये अपने मस्तक का परिच्छेदन शिव-नखों से कराना होगा!!और इतना भी आसान नहीं है यह!!

दशानन कहते हैं कि- "प्रबंधबंधुकंधरः"शिव ने गज-चर्म ओढ रखा है!!या यूँ कहलें कि शिवजी के कंठ से नीचे का भाग गज चर्म से आच्छादित है!! एक प्रसिद्ध #असुर_गजासुर_थे!! उन्होने भीषण तप किया!!उनके तपों से सभी देवगण घबरा गये!!इन्द्र का आसन डोलने लगा!!कहीं मेरी सत्ता न छिन जाये!!

हाँ!!यही सत्य है!!आप जैसे ही योग,भक्ति अथवा सद्गुरूदेवजी के बताये मार्गों पर चलोगे तो सबसे पहले संत,साधू,शास्त्र,धार्मिक मान्यतायें,तथाकथित आपकी सद्-वृत्तियाँ घायल होंगी!!और ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक है-क्यों की असंत,दुःषित शास्त्र,दुष्वृत्तियों को तो आप पहले ही छोड़ चुके हो!! असत् छूट चुका,अब सद् को छोड़ने की बारी है!!

पहले मैं शराब पीती थी-अब गंगाजल पीने लगी!!
माँस मछली खाती थी-अब शाकाहारी हो गयी!!
पहले व्यभिचार करती थी,अब ब्रम्हचारिणी हो गयी!!
पहले क्लब,पिक्चर हाॅलमें जाती थी,अब मंदिर जाने लगी!!
पहले उठते ही टी वी देखती थी,अब कान्हाजी को देखने लगी!!
पहले दूसरों को धोखा देती थी,अब लोभ नहीं करती!
पहले नाॅवेल पढती थी,अब शास्त्रादि पढने लगी!!
पहले ताश खेलती थी,अब माला फेरने लगी!!

किन्तु ये क्या!!ये गुरूजी कैसे हैं!!वे तो कहते हैं कि ओ #सुतपा!! #मा-शुचः अब ये सब भी छोड़ दे!!मैं बोली कि ऐसा क्यूँ  ?
तो वे कहते हैं कि तुने भुझे दिक्षा लेते समय वचन दिया था कि #मैं_अपना_तन_मन_और_धन_आपको_सौंपती_हूँ!!
वो तुझे याद है कि भूल गयी ?
मैं बोली!!कि हाँ!!मुझे याद है गुरुदेव!!

हे #प्रिय!!तो सद्गुरू कहते हैं कि "जिस तन से तूं ये सब कार्य करती है,वो तेरा नहीँ है!!अब मेरा है!!मैं जो चाहूँगा वही कार्य ये करेगा!!
ये जिस मन से तूं ये सब करती है!!वो मन भी मेरा है!!उसे मेरी मर्जी से सोचने दे!!
जिस धन से तूं ये सब सांसारिक कार्यादि करती है,वो भी तूने मुझे देने का संकल्प किया है!!अब उसे मेरी मर्जी से व्यय होना है!!

अवाक् रह गयी मैं!!हाँ!!ये प्रण तो मैंने ही किया था!!और लो!!अब तो #मैं ही नहीं बची!! बहूत डर गयी!!भयभीत हो गयी!!पूरा शरीर थर-थर काँपने लगा!!तो मेरे प्रियतमजी,सद्गुरूदेवजी बोले कि हे प्रिये-
#अनन्याश्चिंतयन्तो_मा_यो_जनाः #पर्युपासते।
#तेषां_तेनां_भियुक्तानाम्_योगक्षेम_वहाम्यहम्।।

तूं डर मत पगली!!तेरे शरीर को,मैं धारण करूँगा!! तूं शरीर की चिन्ता छोड़ दे!! #प्रबंधबंधुकंधरः" अर्थात गजासुर को शिव ने कहा कि तूं शरीर की चिन्ता मत कर!!तूं तप कर!!तूं उपर चढ़!!तेरे नीचे के शरीर को मैं धारण करूँगा!!

हे प्रिय!! ये तो गुरूदेवजी ने मुझे घोर अंधकार में ढकेल दिया!!अब मैं नीचे जा नहीं सकती!संकल्प कर चुकी हूँ!!अपना शरीर गुदेवजी को सौंप चुकी हूँ!!ऊपर कभी गयी नहीं!!अब करूँ क्या ?

और मैं उदास हो चुकी थी!!अर्थात उदासीनता तटस्थ वृत्ति!!जो हो रहा है,ठीक है,मैं स्वीकार करती हूँ !! मेरा अपना कोई चुनाव नहीं है।मेरे घर संसार में आग लगती है-गुरुदेव जी का घर है,वे जानें!!उनके विरुद्ध कोई भाव नहीं होना चाहिये, मऔर यदि ऐसा होगा तो आपकी चैतन्यता विचलित नहीं होगी!!

हाँ यही स्थिति होती है आपकी जब आप #सरस्वती_चक्र में आते हैं!!और अधिकांशतः साधक यहीं से वचन तोड़कर वापस लौट जाते हैं!! पुनश्च हलाहल में डूब जाते हैं!!सिद्धियों को पाकर #रावण बन जाते हैं!!ये अक्सर लोग कहते हैं कि जब हम ध्यान में जाते हैं,तो व्याकुलता होती है!!भय होता है!! मैं पूछती हूँ कि किसके मरने का भय है ?

"निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः"मेरे शिवजी ने तो इस संसारके भार को धारण करने वाले चन्द्रमा को अपने मस्तक पर रखा ही है!!हे प्रिय!!ये तो आप जानते ही हो कि #मन_का_स्वामी_चन्द्रमा_है!! ये पूरे संसार की कल्पना अथवा सर्जन-विसर्जन सब कुछ मन से ही तो होता है न!!आप घर में रहते हो अथवा मठ-मंदिरों में!!इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!!फर्क तो तब पड़ता है जब ये घर,मठ,मंदिर,पत्नी,पती,बच्चे धर्म,अधर्म आपके भीतर रहने लगते हैं!!

हे प्रिय!!सरस्वती पर मुग्ध होकर!!अर्थात अपनी ही कन्या पर मुग्ध होकर!!ब्रम्हा ने अपना मस्तक विच्छेदित कराया था!!और ये ब्रम्हा भी आप ही हो!!ये जो आपकी स्वाँसों के आने जाने से होती ध्वनि है!!ये जब आपके गंभीर प्रयत्नों से मूलाधार तक जाती है!!इतनी गंभीर अंतः ध्वनि होगी उस काल में कि आप उसमें डूब जाओगे!!और यह आपकी अपनी स्वाँसें आपकी अपनी कन्या ही तो हैं!!

#विशेष- मध्य के चक्रों पर चर्चा फिर कभी करूँगी!! अभी तो इसीपर चर्चा करती हूँ!! जब आप मूलबंध लगा लेते हैं!!अपने बाँयें पाँव की ऐड़ी से मल द्वार को बंद कर देते हैं!!और दाहिने पाँव की ऐड़ी से बाँयीं ऐड़ी को और भी पीडित करते हैं!!और साथ ही साथ कुंभक को करने के उपरान्त स्पन्दन अर्थात गुदा-द्वार का संकोचन करते हैं!!और काफी देर तक करने का प्रयास और अभ्यास भी करते हैं!!

आप स्मरण रखें कि यहाँ आकर मंत्रादि के उपाँशु जप की स्थिति समाप्त होकर #ज्ञप की स्थिति स्वतः ही हो जाती है!!और बिल्कुल इसी प्रकार कुलाचरण अथवा सामान्य समागमों में भी यदि मात्र और मात्र भैरवी अथवा प्रेयसी ही आघात करती हो!!और वो भी ऐसा आघात जो पुनश्च प्रत्याघातात्मक न हो!!

अर्थात बिल्कुल जैसे की कोई पुरूष स्खलित होता है तो उन छणों में स्थिर हो जाता है!!मात्र स्खलित ही होता है!!एक तीव्रतम दबाव की स्थिति होती है!! और यहाँ इसके विपरीत की बात है!!यहाँ तो स्त्री स्खलित होती है!!और तीव्रतम दबाव के साथ स्खलित होती है!!

हे प्रिय!!सांसारिक समागमों में और तांत्रिक समागमों में यही तो महान भेद है!!लोगों कि मान्यता है कि जब स्त्री और पुरूष एक साथ स्खलित होते हैं तो सहस्रार में चन्द्रोदय होता है!! किन्तु यह स्मरण रखें कि यह चन्द्रोदय इतना छणिक है कि इसका होना और ना होना दोनों ही व्यर्थ हैं!!

तांत्रिक समागम की तो प्रथम शर्त ही यही है कि आप अर्थात पुरुष #ओली अर्थात सहजोली अथवा एकवह्नि -क्रिया में निपूण हों!!आपमें भैरवी के पुष्परथों पर आरूढ होने की क्षमता हो!!आपमें उन छणों में बिल्कुल जलंधर बंध की तरह पुष्पों को अपने विशेष अंग से स्पंदन अर्थात संकुचन क्रिया से अपने भीतर आकर्षित करने की छमता हो!!अर्थात #अभिमर्षण!!

और हे प्रिय!!निःसंदेह ये पतंजली-अष्टांग योग हो अथवा कुलाचारात्मक संयोग जन्य मूलबंध हो!!ये दोनों ही अपने आप में समर्थ विधायें हैं!!किंतु दोनों की दोनों विधायें सतत अभ्यास तथा धैर्य पूर्वक ही संपादित की जा सकती हैं!! और जब इस प्रकार आपकी कुण्डलिनी ऊपर को उठती है तो मध्य के तीन चक्रों के भेदनोपरान्त वो सरस्वती चक्र में आकर विमोहित हो जाती है!!

ये एक पड़ाव है!!यहाँ आपके पास दो मार्ग हैं!चयन आपको करना है!!या तो आप घबराकर अधोगामी हो जायें!!अथवा सद्गुरूदेव के हाँथों की प्रतिक्षा करें!! मैं एक बात और भी कहूँगी और निश्चित रूप से कहूँगी ही!!और वो ये कि मैं अर्थात भैरवी अर्थात हम-स्त्रीयाँ आपकी ऊर्ध्वगमनार्थ प्रबलतम और एकमात्र हम ही सहायिका और समर्थ भी हैं!! हमारे सहयोग तथा हमारे बलिदानों पर ही आपका पूरा अस्तित्व स्थिर है!!

किन्तु ये भी सत्य है कि हम तो आपके साथ आपमें ही समाकर और आपके ही सहस्रार में स्थापित होती हैं!!आप ही हमारे ईष्ट और आप ही हमारे देवता हो!! और मैं ही आपकी ईष्ट तथा आपकी देवी हूँ!!अन्य आचार्यों ने इस मार्ग को समझा ही नहीं!!अथवा समझकर भी आपको और हमें भी गुमराह किया!!

अर्थात सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही उर्जाओं का विष्फोट जब मात्र और मात्र आपमें ही होता है!तभी आपका #सर्वनाश होता है!!
निरुद्धदुर्धरस्फुरनिलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः"ये तो निश्चित है कि योगी साधकों का वो अष्टांड़्ग योगी हों अथवा कि कुलाचारी!! उनका पतन #वासना के कारण ही होता है!!क्यों कि जिसमें जितना संयम होगा!!उसने उतना ही अपनी सुषुप्त वासनाओं का दमन भी किया होगा!!

इसी कारण प्राचीनकाल में ऋषियों ने दमनात्मक प्रवृत्तियों का बहिष्कार किया और दाम्पत्य जीवन को ही योग-भोग और मोक्ष के सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में स्थापित किया!!और उन मार्गों का अतिक्रमण करने के कारण ही दशानन की #रावण के रूप में परिणति हो गयी!!कहते हैं कि शिवा ने श्राप दिया था!!

हाँ!!मैं भी इसे मानती हूँ कि शिवा ने श्राप दिया था, देती हैं!!और आगे भी देती ही रहेंगी!!जबतक स्त्री को आप एक भोग्या अथवा मात्र साधन सामग्री समझेंगे!! तबतक आप श्रापित होते भी रहेंगे!! शिव ने तो सती की भष्म अपने अंगों में रमायी!!किन्तु अपना आधा अंग ही उन्हे दे दिया!! हाँ प्रिय ये भी एक रहस्य है!!

जब सागर मंथन से उत्पन्न विष को शिव ने पी लिया!! और ध्यान दें शास्त्रानुसार नीचे नहीं जाने दिया!! क्यों कि जिन शिवा के द्वारा वे इसे पीने में समर्थ हुवे!!वो शिवा तो उनके ह्यदय में हैं!!भला वे अपनी शिवा के ऊपर विष-वर्षा कर सकते हैं ?
अर्थात योगिराज भैरवी से संसर्ग में उसे अपनी भार्या बनायेंगे ?
उससे संतानोत्पत्ति साधना काल में करेंगे ?
साधनान्तर्गत तो उनकी माँ है भैरवी!!

तो ऐसी स्थिति में शिव ही निशा के दृष्टा हैं!!किंतु अभी महा-कपालि को आगे की यात्रा भी करनी है!!मैं आपको एक बात कहूँ!! यहीं पर ब्रम्हा का शिरच्छेद होता है!!नीचे की तंत्रिकाओं से सम्बन्ध विच्छेद!! नीचे के चारों चक्रों अर्थात चारो वेदों से सम्बन्ध विच्छेद!!अब तो बस एक ही मस्तक है!!

हे प्रिय!!वो मस्तक ही ब्रम्हा का पाँचवाँ मस्तक है!! पंचम वेद है!!और वो मस्तक लेकर महाकालिका अट्टहास करती हैं-"त्कुहु निशीथिनीतमः" अपने सिर को गजासुर ने शिव में समाहित कर दिया!! आप ध्यान दें!!ये जो भैरवी,शिवा,साधन,स्त्री,प्रकृति है न!! वही आपकी गुरू हैं!!वही आपकी माँ हैं!!और आप पुरूष उसके #भोग्य हो!!

अर्थात अभी तक तो आपने भैरवी को भोग्या के रूप में देखा था!!अब वो आपका भोजन करेगी!!हाँ प्रिय!!इसीलिये मुझे चाण्डालिनी और नर-भोजनी की अनुपम संज्ञा दी गयी है!!आप का बिल्कुल दो भाग कर देती हैं वे!!सर और धड़ बिल्कुल अलग-थलग!!

दशानन कहते हैं कि-"कलानिधानबंधुरः" आपके मस्तक पर सूर्य नहीं चंद्रमा विराजित होता है!!और ऐसा नहीं है कि सहस्रार का विष्फोट सूर्यात्मकीय उर्जा है!!वो तो शीतल विष्फोट भी है!! जब ब्रम्हा का पंचम मस्तक शिव-सरस्वती अर्थात महाकालिके को सौंप देते हैं!!वो कहते हैं कि ये लो प्रिये-
#ये_घर_है_गुरुदेव_का_खाला_का_घर_नांहि।
#शीश_उतारी_भुंयि_धरौ_फिर_पैठो_घर_माँहि।।

हे प्रिय!!दशानन इस अलौकिक रहस्य के दृष्टा हैं!!वे शिव-शिवा के रहस्यों के विज्ञाता भी हैं!! लेकिन ये क्या मैं देखती हूँ कि उनमें अमृत के महासागर में अमृत बनकर घुलजाने की ईच्छा नहीं है!!वे तो बस कुछ घूँट पीना चाहते हैं अमृत की!!

वे चाहते हैं- "श्रियं" शिव-शिवा से भी वो #श्री की कामना करते हैं!!मैं आपको एक बात कहूँ!!मैं एक बिलकुल सामान्य गृहिणी हूँ और मेरे पति मुझसे भी सामान्य गृहस्थ हैं!!परन्तु हम दोनों की एक विचारधारा है!!मेरी कम उनकी ज्यादा है!! निःसंतान हैं हम दोनों!!कुछ कारणों से मैं #माँ नहीं बन सकती!! इस बात का मुझे कष्ट था!!आखिर स्त्री जो ठहेरी!!

किन्तु इन्होंने मुझे समझाया कि देख सुतपा!!कभी भी तूं ईश्वर से कुछ मांगना नहीं!!धन,संतान,सुख, ऐश्वर्य,स्वास्थ्य ये सबके सब भले ही छणिक हों किन्तु स्व-पुरूषार्थ से प्राप्य हैं!! इनके लिये अपने आराध्य, ईष्ट अथवा गुरूदेव से कामना करना ही सबसे बड़ा पाप है!!इसे मिलना और न मिलना यह कर्मों से निर्मित भाग्याधीन है!!

वे तो "जगंद्धुरंधरः"हैं सर्वज्ञाता हैं!!तूं उनसे माँगेगी ?
जा माँग ले और बदले में पथ-भ्रष्ट हो जा!! और यही सत्य भी है!!आप आध्यात्मिक पथ के पथिक हो!!तो सांसारिक सुखों की चिंता न करो!!कर्म करो!!कर्म करो!! #कर्म_करो!! वे स्वतः ही प्राप्त होंगे!!और नहीं होते तो इसमें भी उनकी आपके लियेकरुणामयी उदारमयी दिव्य-दृष्टि ही होगी!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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