Saturday 15 September 2018

विज्ञान भैरव तंत्र सुतपा देवी कृत

।।#विज्ञान_भैरव_तंत्र_सूत्र_११•१२•१३।।

हे प्रिय!!मैं आपकी आध्यात्मिक सहचरी आपके परमार्थ पथ की छाया आपके ही #पद_पंञ्कजों में #विज्ञान_भैरव_तंत्र की मेरे द्वारा लिखित बाल प्रबोधिनी टीका के पुनश्च सूत्रों का द्वितीय अंक अर्पित कर रही हूँ- #आपकी_दीदी_सुतपा!!
#मैं_उनकी_प्रिया_ही_नहीं_भोग्या_ही_नहीं_बल्कि_उद्धारक_भी_हूँ-

हे प्रिय!!"विज्ञान भैरव तंत्र"के अंतर्गत अब मेरे स्वामीजी कहते हैं कि- # हे_भैरवी स्वरूप मेरी प्रियतमा !! तंत्र की,अंतः स्पंदन की,स्नायु-तंत्र द्वारा स्वतः परिभाषित "स्वः-स्थानुभूतिक" अद्भुत ज्ञान श्रृँखला मैं तेरे सम्मुख प्रकट करता हूँ!!इस प्रकार विज्ञान भैरव तंत्र का•११•१२•तथा १३• वें श्लोक की व्याख्या प्रस्तुत करती हूँ!! #श्री_भैरव_उवाच--
"तत्तवतो न नवात्मासौ शब्दराशिर्न  भैरवः।
न  चासौ त्रिशिरा देवो न च शक्तित्रयात्मकः।।११।।
नादबिन्दुमयो वापि  न चन्द्रार्धनिरोधिकाः।
न चक्रक्रमसम्भिन्नो न च शक्तिस्वरूपकः।।१२।।
अप्रबुद्धमतीनां हि एता  बालविभीषिकाः।
मातृमोदकवत् सर्वं प्रवृत्त्यर्थमुदाह्रतम्।१३।।

हे प्रिय !!अब मेर प्रियतम भैरवजी अपनी सूरता  रूपी शिवा से कहते हैं कि-हे प्रिया-वस्तुतः #भैरव"न ही किसी नवीन शक्ति का द्योतक है,और न ही #त्रिगुणात्मिक"ही हैं!! वे न तो नाद-बिन्दु हैं और न ही #त्रिशिरा,अर्धचन्द्र स्वरूप या फिर निरोधक ही हैं,न ही वे चक्रात्मक हैं या वर्णात्मक ही क्या वे तो कुण्डलिनी भी नहीं हैं!!

प्यारी सखियों आप ध्यान दें,इसके पूर्व"भैरवी"ने यही सब प्रश्न अपने श्वामी"भैरव"के प्रति किये थे!!अतः भैरव ने उन सभी प्रश्नों को प्रथमतः एक सिरे से ही नकार दिया!!वे तो कहते हैं कि हे भैरवी!! #अप्रबुद्धमतीनां"  जो मेरे जैसी अप्रबुद्ध होती हैं!!वे सत्याऽसत्य के अविवेक के कारण मति भ्रांत हो जाती हैं,मैं आपको एक सुँदर सा उदारहण देती हूँ-मैं पूर्व- दिशाकी तरफ मुख  करके खड़ी हूँ! स्वाभाविक रूप से मेरे पीछे पश्चिम,वाम हाँथ की तरफ उत्तर और दाहिने हाँथ की तरफ दक्षिण दिशा होगी!!

अब मैं आपको वैदिक उच्चतम् वैज्ञानिकीय दृष्टिकोण से भी इस संदर्भ में परिचित कराना चाहती हूँ!!
#धी_प्राणभूतस्य_पुरे_स्थितस्य_सर्वस्य_सर्वानपि_खे।
#पुरा_सरूष्यत्यथ_पृषु_रूष्यते_स_पुरुषो_वा_पुरूषस्तदुच्यते।।और हे प्रिय!!"भै-रव"का यह अत्योत्तम प्रकाशोत्पन्नकर्ता भाव प्रकट होता है""भै-रवी"के प्रति कि--- दक्षिण से उत्तर की ओर जाने वाली #ऋताग्नि"के कारण दक्षिण अंग #अग्नि_प्रधान"है!!
एवम् मेरे ही वामाड़्ग से दक्षिण की तरफ बढती "शीतल-अग्नि" को वेदों ने #ऋतसोम"कहा है!! सखि!!है न अद्भुत-मेरा बायाँ अंग ऋतसोम स्त्रीका है,और दायाँ अंग ऋताग्नि पुरुष का है!!एक ही शरीर से मैं राधा भी हूँ और कान्हा भी!!

अब एक बात और सोम"चन्द्रमा,मैं,स्त्री,सूरता,भैरवी, शक्ति,उर्जा ही- #भोग्या है!!क्यों कि अन्न से रस, रस से शरीर को बल मिलता है,अन्नादिके अभाव में दुर्बल हुवा प्राण अन्न प्राप्त होते ही सबल और जागृत हो जाता है!और #पुरुष भैरव,प्राण,शब्द,शिव,परम- तत्व, आत्मा, ही मेरा भोग करने के कारण मेरे "स्वामीजी" हैं!!वे मेरा उपभोग करते ही सबल हो जाते हैं!!और मेरे अभावमें दुर्बल"निष्चेष्ट"मैं उनकी प्रिया ही नहीं ,भोग्या ही नहीं बल्कि उनकी उद्धारक भी हूँ!!दाम्पत्य के स्वरूपमें ऋताग्नि ही ऋतसोम के साथ "ऋत-शोणित"( siamans) का ऋतसोम में  यजन कर "सोमात्मक-प्रजाओं"की उत्पत्ति करती हैं!!हे प्रिय!!मैं तो उनकी पथगामिनी इसी कारण तो कही गयी हूँ न!!अब एक प्रश्न रखकर इस सूत्र को समाप्त करती हूँ!!ऋतसोम और ऋताग्नि के सम्मिलन स्थल- #यज्ञ_कुण्ड की परिभाषा या संज्ञा क्या है ?

और इस प्रकार इस श्लोक के उपसंहार में यही स्पष्ट होता है कि---मैं बारम्बार कहूँगी कि- #मातृमोदकवत्_सर्वं_प्रवृत्त्यर्थमुदाह्रतम्"
सद्मगुरुदेवजी ने मेरी महाव्याधि को मिटाने हेतु मीठे से मोतीचूर के लड्डू में"सांसारिक-भोगों"में ही परमौषधि "कड़वी दवा"रखकर दी है मैं अगर समझ पाऊँ,और उसका यथोचित पान कर पाऊँ तो ही यह महारोग मिट सकता है...... #सुतपा!!

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