Tuesday 11 September 2018

गोपिका गीत

शीमद्भागवद् गोपिकाविरहगीतम् -१

#संसारकी_सभी_वस्तुओं_से_रागके_हट_जाने_से_द्वेष_भी_स्वतः_ही_हट_जायेगा!!

हे प्रिय!!सनातन काल से प्रसिद्ध किन्तु कदाचित आपने इस मधुरतम् रस सभर गीत को शायद न सुना हो!इस मधुर गीत का भावानुवाद आज से कई वर्षों पूर्व मैं कर चुकी हूँ,पुनश्च आजसे इसका संशोधित संस्करण मैं मेरे प्रियतमजी"के श्रीचरणों में अपनी मोहित बुद्धि से #श्रीगोपिकाविरहगीतम्" के प्रथम श्लोक की विवेचना प्रस्तुत कर रही हूँ--
#एहि_मुरारे_कुञ्जविहारे_एहि_प्रणतजनबन्धो।
#हे_माधव__मधुमथन_वरेण्य_केशव_करूणासिन्धो।।

हे प्रिय!!जो वियोग,वेदना,अत्याचार,अपमान,भर्तस्ना, परित्यागआदि-आदि सभी कुछ सुख पूर्वक सहन कर सकते हैं वे ही इस गोपिकाविरहगीतम् के भाव को समझने के पात्र हो सकते हैं!!अनायास छण मात्र में उन गोपियों का परित्याग कर जब मेरे ह्रिदयेश्वरजी चले जाते हैं!!

अपने प्राण-प्यारे के मथुरा चले जाने के बाद वृन्दावन में मेरे ह्रिदयेश्वर को वन,उपवन,नदी के तट पर बावरी हो कर ढूंढती फिर रही हैं उनके साथकी हुयी क्रिड़ाओं की मधुर स्मृति-जन्य विरह में गोपियां क्रंदन करती हुई कहती हैं कि हे मुरारि!!आप तो बंशीधर हैं!! मुरलीधर हैं,मेरे स्वामीजी!हम ही  तो आपकी मुरलियां हैं!हम तो बंशी थीं आपकी आपकी ही धुन पर आपके मृदुल हास्य पर नर्तन करने वाली आपकी चेरियाँ!!

हे प्रिय!!आप जरा भागवत् जी के•६••११•२६•वें श्लोक का स्मरण तो करो-
#अजात_पक्षा_इव_मातरं_खगाः,
      #स्तन्यं_यथा_वत्स_तराः_क्षुधार्ताः।
#प्रियं_प्रियेव_व्युषितं_विषण्णा,
       #मनोऽरविन्दाक्ष_दिदृक्षते_त्वाम्।।

इसी कुँञ्ज में तो आप मेरे साथ विहार करते थे,यहीं तो आपने मेरे,हम सबके प्रणय निवेदन को स्वीकार किया था, अपनी बना लिया था!!ये आप ही जानते हैं कि एक आपके अलावा हमारा त्रिलोकी में भी अब कोई बन्धु सखा नही है!!हे नाथ!!माता,पिता, भाई, बंथु,संतान,पती,पत्नी,मित्र, तन-मन-धन ये सब कुछ मेरे जितने भी प्रेमास्पद ममता के धागे थे,उन सभी धागों को बँटकर मैंने-हमने एक सुदृढ रस्सी बनाकर आपके चरण-कमलों में बाँध दी है!!क्यों कि आपने ही तो कहा था कि--
#जननी_जनक_बंधु_सुत_दारा।
    #तनु_धन_भवन_सुह्रद_परिवारा।।
#सबकै_ममता_ताग_बटोरी।
     #मम_पद_मनहिं_बाँध_बरि_डोरी।।

हे माधव!! हे #मधुमथन_वरेण्य आपने तो सृष्टि के आरंभ में ही सृष्टि के शत्रु मधु-कैटभ को मारा था तो हमसे भी ऐसी ही प्रीति की!! कि जब मै आपपर न्योछावर हो गयी तो आप मुझे छोड़कर चले गये,कितनी मधुरता से हमारे मन का मंथन कर दिया आपने!!

हे छलिया!!आपने पहले तो अपनी अप्रतिम मधुरता से हमारे तन-मन को मथ डाला हमारे घृत तो आप ही हो!

हे मेरे माखनचोर!जैसे बेसन तो निरस होता है किंतु #गुड़ के संयोग से  उसमें मिठास आ जाती है!!मैं आपको एक बात कहूँ!!अपने-पन #स्व के संयोग से #राग होता है,और जहाँ राग होगा वहाँ #द्वेष भी होगा ही!!इसे ही तो  #द्वन्द्व कहते हैं!!!किंतु एक बात बड़ी विलक्षण है- #प्रेमरस_साधना_की!!
#नियमों_के_सम्पूर्ण_बंधनोंका_अनायास_टूट_जाना_ही_प्रेमका_एकमात्र_नियम_होता_है!हे प्रिय! संसारकी सभी वस्तुओं से राग के हट-जाने से द्वेष भी स्वतः ही हट जायेगा!!और अनायास ही प्रेमरस साधना हो जायेगी!!

हमारे तो आप ही सार-तत्व हैं!!मैं तो बस इतना ही जानती हूँ कि मैं आपको वर चुकी हूँ!! #वरेण्यम्-वर्तूम्यहम्!!हे प्रिय- आप विचार अवस्य करना कि वरण करना तो मेरे मन के वश में है!!कि मैं किनका वरण करती हूँ,किंतु मैंने जिनका वरण किया! उन्होंने मुझे स्वीकार किया अथवा नहीं किया,ये तो उनके ही वश में होगा न!!

किंतु हे केशव!! आप तो करुणानिधि हो करुणा के सागर हो आपको मुझ दीन दुखियारी विरहिणी पर करुणा क्यों नहीं आ रही है मेरे ह्रिदयेश्वर!!! हे प्रिय!!  इसी के साथ इस पद्यांश का भावानुवाद पूर्ण करती हूँ!!
#ये_तो_प्रेमके_प्याले_हैं_आप_जितने_भी_पीयेंगे_प्यास_और_भी_बढती_जायेगी!!
हे प्रिय!!आज पुनः द्वितीय श्लोक की विवेचना प्रस्तुत कर रही हूं--

#रास_निकुञ्जे_गुञ्जति_नियतं_भ्रमरशतं_किल_कान्तं_एहि_निभृतपथपान्थ_त्वामिह_याचै_दर्शनदानं_हे_मधुसूदन_शान्त।।
मेरे प्रियतम!!देखो न! आपके इस वृन्दावन में, इस कुँञ्ज में!! सैकणों भौंरे भृमर-गीत गाकर आपको निमन्त्रण दे रहे हैं!!हे मधुसूदन!!हमारा चित्त काम से ब्याकुल हो रहा है मदन हमारे चित्त को मथ रहा है-
मैं यहां यह स्पष्टीकरण देना अत्यावश्यक समझती हूं कि #मदन_एवं_काम शब्द यहां विशेषार्थी हैं।मेरे कृष्णा तो #कामारि हैं- वे तो मयूर-पिच्छ धारी हैं!!मदनमोहन है- #नारि_न_मोहैं_नारी_के_रूपा इसी कथानुसार श्रीकृष्ण के मनमोहन स्वरूप के प्रति महारास मे शिवादि सभी देवाधिदेव अपने पुरुषत्व का परित्याग कर गोपी बनकर #स्त्रित्व को स्वीकार कर निकुंज की शरण मे आये थे!!

मैं आपको स्मरण दिलाती हूँ-•ब्र•पूर्वता•उप• २•४•का-
#ब्रम्हवादिनो_मुक्ताश्च_लीलया_विग्रहं_कृत्वा_नमन्ति।ये प्रेम का रस इतना मधुर होता है कि जीवन-मुक्त भी साक्षात्-शरीर धारण करने को विवश हो जाते हैं!! #मुमूक्षवो_मुक्ताश्च_विग्रहं_कृत्वा_भजन्ति।।
#मदन_का_एक_अर्थ_मद_न_भी_तो_है_न! हे प्रिय!! #मद अहंकार को कहते हैं!!और आपके समर्पण की प्रथम शर्त है आपका #मद_हीन होना!!जैसे कि स्त्रीत्व की सफलता मदहीनता में ही संभव हो सकती है!!गोपियाँ कहती हैं कि -ये जो हमने अपने अहंकार को छोड़ दिया!! अब यही हमारे विरह का कारण बन चुका है!!

हे प्रिय!!अब तो बस हम आपसे याचना ही कर सकती हैँ #त्वामिह_याचै!और #काम तो विरहाकुला का आभूषण है!क्यों कि प्रेम तो प्रेम के लिये ही किया जाता है,और फिर इसकी साधना में न कभी विराम होता है और न ही विश्राम!! #ब्यये_कृते_वर्धते!! नित्य ही #उत्साह_वेदना_और_विरहाग्नि बढती ही जाती है!संत कबीर बीजक•१२•२•में कहते भी हैं कि-
#अरधे_उरधे_भाठी_रोपिन्हि_ले_कषाय_रस_गारी।
#मूँदे_नयन_काटि_कर्म_कल्मख_संतत_चुअत_अगारी
ये तो प्रेम के प्याले हैं,आप जितने भी पीयेंगे!प्यास और भी बढती जायेगी!!ये जीभ्ह्या का विशय नहीं है प्रिय!यह ईन्द्रियों का विशय तो है ही नहीं!अरी!!जब लोक-परलोक को अर्पण करदेने की जिन्होंने ठान ली!!वे गोपियाँ ही तो प्रेम का दर्शन कर पायेंगी!!

और यहाँ तो लौकिक कामवासना की दृष्टि से देखना महापातक है।मैं कई बार सुनी हूँ- कृष्ण- गोपियों के महारास पर अनेक तथाकथित अविद्वान भागवताचार्यों के रसिक विचार!!घिन्न आती है ऐसे विचारों पर। मेरे ह्रिदयनाथ को ब्याकुल हो क्रन्दन करती हुई गोपियां बार बार आर्तनाद कर रही हैं कि- हे मेरे ह्रिदयाधार!!आप बस अपने दर्शन का मुझ भिखारिण को दान कर दो!!मेरी इस विरहाग्नि को शांत!!!कर दो नाथ!!

हे प्रिय!!  इसी के साथ इस पद्यांश का भावानुवाद पूर्ण करती हूँ!!

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