दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~४ अंक~५
#पूर्व_पीठिका_ईश्वर_उवाच।।
#गोपनीयं_प्रयत्नेन_स्व_योनि_वच्च_पार्वति।
#मारणं_मोहनं_वश्यं_स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
#पाठ_मात्रेण_संसिद्धिः #कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्।।
शिव कहते हैं कि हे शिवा!!इस "सिद्धकुञ्जिका- स्तोत्र" के पाठसे मारण,मोहन,वशीकरण,विद्वेषण, स्तम्भन तथा उच्चाटनादि सभी आभिचारिक उद्रेश्यों की सिद्धि प्राप्त हो जाती है!!
हे प्रिय!! जो पढे-लिखे शिक्षित और समझदार आप जैसे व्यक्ति होंगे वे तो इस सामान्य अर्थ को तत्काल ही अस्वीकार कर देंगे!! ये तो बिल्कुल ही असंभव है कि आप इस स्तोत्रका तोते की तरह पाठ करलो चाहे हजारों हजार बार कर लो और ये आपको सिद्ध हो जायेगा!!और फिर तो आप भगवान ही बन जाओगे!!
ऐसी अनर्थात्मक भ्रान्तियाँ फैलाकर ही तो तथाकथित भ्रष्ट तांत्रिक लोगों को लूटते फिरते हैं!!आपके अंध विश्वासका दोहन करते हैं!!आपको बेवकूफ बनाते हैं!! और साथ ही हमारी उत्कृष्टतम वैदिक सनातन शाश्वत और पूर्णतया वैज्ञानिकीय विधाओं को बदनाम करके रख देते हैं!!
जैसे लोगों ने ये अफवाह फैला रखी है कि कामाख्या की उपासिका भैरवी कामाख्या आनेवाले लोगोंको जिसे वे पसंद करती हैं उसे तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर देती हैं!! हे प्रिय!!इन ढकोसलों और ऐसे झूटे तांत्रिकोंकी बातों भें आप कभी भी फंसना नहीं!! ये तो लुटेरे हैं जो कि कहते हैं कि हमें मारण-मोहन आदि विद्याएं आती हैं!! ऐसी कोई विद्या होती ही नहीं!! और यदि किसी के पास है तो वो मुझे मार कर दिखाये!!
हे प्रिय!!स्तोत्र में ऋषि कहते हैं कि- "पाठ-मात्रेण संसिद्धिः" इसका पाठ करने मात्र से ही- "कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्"
ये सभी अभिचारादि कर्म सिद्ध हो जाते हैं!! पर किसे सिद्ध होते हैं ,यह प्रथम प्रश्न है ?
और किसके लिये सिद्ध होते हैं यह द्वितीय प्रश्न है ?
और दोनों ही यक्ष-प्रश्न अत्यंत ही महत्व पूर्ण हैं!!
आप जरा दु•सप्त•८•५४•के इस मंत्र को देखें-
#मच्छस्त्रपातसम्भूतान्_रक्तबिन्दूमहासुरान्।
#रक्तबिन्दोः #प्रतीच्छ_त्वं_वक्त्रेणानेन_वेगिना।।
देवी कहती हैं कि हे कालिके!! आप जरा अपने मुखको और फैलाओ- #विस्तीर्णं_वदनं_कुरू।।
और मेरे शस्त्रपातसे गिरनेवाले रक्तबिंदुओं और उनसे उत्पन्न होनेवाले महादैत्योंको तुम अपने इस उतावले मुखसे खा जाओ!!
और हे प्रिय!!अब ये कितनी हास्यास्पद बात है कि कुछ घृणास्पद तांत्रिक बकरे और मुर्गों के गले में दाँत गड़ाकर इस मंत्र के नामपर उनका जीवित ही रक्तपान करते हैं!! और हमारे आर्यसमाजी भाई तो इस मंत्र का अनर्थ कर सप्तशती की हंसी उड़ाते ही हैं!! ये दोनों समुदाय ही भटके हुवे हैं!!
मारण मंत्र किसे सिद्ध होते हैं,यह मेरा प्रथम प्रश्न था ?
मारना है किसे,किसे मोहित करना है,स्तंभन किसका करना है,किसे अपने वश में करना है,किस चीजसे उच्चाटन करना है, और किसका करना है ?
आपका शत्रु कौन है ?
और आपका मित्र कौन है ?
हे प्रिय!!ये आत्म-संग्राम और आत्मरति की बातें हैं!!
#जो_बातें_सद्गुरु_मुखियन_की_ते_वेदन_मां_नांही।
#जहां_कबीरा_रम_रहा_तंह_वेदन_को_गम_नांहि।।
अब हास्यास्पद तो ये लगता है कि मेरे पौराणिक भाई भी कहते हैं कि इन कथाओं पर जैसे का तैसा ही विश्वास कर लो!! ऐसे ही महिषासुर,चण्ड,मुण्ड, रक्तबीजादि असुर रहे होंगे और ऐसे ही उनका वध भी देवी ने किया होगा!!
नहीं मेरे प्रिय!!ये कथानक नहीं हैं!!ये इतिहास नहीं हैं!!ये दृष्टान्तात्मक गंभीरतम योग सिद्धान्त हैं!! अब आप पुनश्च ध्यान दें!! मैं आपको उपरोक्त सिद्ध कुञ्जिकामन्त्र दिखाती हूँ-
"ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।
ऊँ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं फट् स्वाहा।।"
और मैं इसे थोड़ा सा आपसे समझती हूँ-
#ऐंकारी_सृष्टिरूपाये_ह्रींकारी_प्रतिपालिका_क्लींकारी#कामरूपेण्य_बीज_रूपे_नमोऽस्तुते।।
और इस मंत्र के इस अर्थ से कोई भी विद्यावान व्यक्ति तो कभी भी असहमत नहीं हो सकता न ?
और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!
No comments:
Post a Comment