Saturday 15 September 2018

विज्ञान भैरव तंत्र सूत्र~१९ अंक~१७


#जो_इस_अग्निकी_ज्वलनता_है_यही_तो_आदि_शक्ति_भैरवी_हैं।।
        
अब विज्ञान भैरव तंत्र  यह उन्नीसवाँ श्लोक मैं  आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ, #श्री_भैरव_उवाच--
#न_वह्नेर्दाहिका_शक्तिव्यर्तिरिक्ता_विभाव्यते।
#केवलं_ज्ञानसत्तायां_प्रारंभोऽयं_प्रवेशने।।

हे प्रिय !!अब मेरे प्रियतम कान्हाजी अपनी राधिका रूपी शिवा से कहते हैं कि-
"न वह्नेर्दाहिका शक्तिव्यर्तिरिक्ता विभाव्यते" मैं इसे एक दृष्टांत के द्वारा आपसे समझने का प्रयास करती हूँ- मैंने अग्नि को देखा है,वह रक्त मिश्रित पीत वर्ण की होती है!! अरी सखियों मैं रोज ही तो उसपर भोजन पकाती भी रहती हूँ!! अब ये "अग्नि"का जो दृश्य स्वरूप है, इसे ही #भैरव"आप कह सकते हैं!! किंतु अब इस अग्निके स्वरूप का आओ  मैं"स्पर्श" करने का प्रयास करती हूँ!! और ये क्या!!मैं तो इसका स्पर्श तो कर ही नहीं पाती और इस मिथ्या प्रयास में मैं जल भी गयी!! तो  प्रिय !!यह जो इस अग्नि की ज्वलनता है"दाहकता"है!! यही तो  #आदि_शक्ति_पराम्बा_भैरवी_हैं!!

हे मेरे प्रिय!!पुनः कहते हैं कि - #रिक्ता_विभाव्यते" मैं तो बावरी थी जो कि "दाहकता"से अलग अग्नि को देखती थी!!और अग्नि से पृथक "दाहकता"को देखती थी!!मैं आपको शाक्त-संहिता"का एक उदारहण देती हूँ--
#फलभेदादारोपितभेदः_पदार्थात्मा_शक्तिः
मैं अनेकों लोगों से ऐसा पढी या सुनी हूँ कि विज्ञान मय बोध का होना,ज्ञान की पराकाष्ठा का वह बिंदु है-जिस बिंदु पर जाकर ज्ञान विलुप्त हो जाता है!! #ज्ञान_का_पराभव_नहीं_होता!! वह अनंत के अंतः गर्भ में विलीन हो जाता है!! #फलभेदादारोपितभेदः" अब मैं इसे समझने का प्रयास करती हूँ-अग्निकी दाह्यता का अनुभव किसे होता है ?

जो अग्नि के विरूद्ध या विपरीत धर्मी होगा!!उसे ही उसकी दाह्यता का अनुभव भी होगा और उसी के लिये उसका महत्व भी होगा!! स्त्री के लिये स्त्री की या पुरुष के लिये पुरुष की ही आवश्यकता भी है!! और यही अनाकर्षण का कारण भी है!! मैं इसे और भी स्पष्ट करती हूँ,मेरे प्रियतमजी के जिन गुणों की मैं दीवानी बनकर उनके समक्ष आत्मसमर्पण कर बैठी, वस्तुतः विज्ञानमय दृष्टि से जब विचार करती हूँ तो अब यह समझ पाती हूँ कि उनके जिन गुणों को मैं उनका समझती थी-वास्तवमें तो वे "गुण"नहीं बल्कि"मैं"ही हूँ!!ये गुण तो मेरे प्रतिबिम्ब हैं,मैं तो मुझपर ही मोहित हूँ!!

हे प्रिय!!इसके ठीक विपरीत मेरे स्वामीजी भी मुझपर नहीं बल्कि स्वयं पर ही आकर्षित हैं!! आप इसे इस प्रकार समझें कि "आकर्षण"कोई भी ऐसा सेतु नहीं है कि जो परस्पर एक दूसरे को जोड़ने हेतु हो!! आप जल को जल में मिला सकते हैं-अग्निको अग्निमें मिला सकती हैं,किंतु परस्पर विरुद्ध-धर्मी अग्निको जलमें या जलको अग्निमें कदापि मिला नहीं सकतीं!!
उन्हें पृथक रहना ही होगा,किंतु उनके पृथकी करण की जो सीमा-रेखा है!!वह इतनी सूक्ष्म है कि उसे बस अनुभव मात्र ही मैं कर सकती हूँ!!जैसे कि--
"लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन जो चली मैं भी हो गयी लाल।।"

अर्थात अग्नी को मैं देख तो सकती हूँ,सामान्य रूप से उससे अपनी शीतलता को भी थोड़ी सी कम भी कर सकती हूँ--उससे #ताप।सकती हूँ!!किंतु ये सभी उस अग्नि के कुछेक छोटे से अंशों का ही व्यर्थ का अनुभव होगा!!

और इस प्रकार इस श्लोक के उपसंहार में यही स्पष्ट होता है कि- यदि अग्नि के ताप का सम्पूर्णता से अनुभव करना हो,तो मुझे मरना ही होगा!यही एक मात्र उपाय #अग्नि_स्नान"का है!! मैं यही कहना चाहती हूँ कि-
#ऊँ_पञ्च_प्राणाय_स्वाहा_इदम्ऽग्न्ये_समर्पयामि"
तो हे प्रिय!! मैं सूत्रांत में इतना ही कहूँगी कि "धर्म" जीने की कला का नाम है!!और"तंत्र"मरने की अद्भुत कला सिखाता है!! मैं #अद्भुत_मृत्यु_सिखाती_हूँ!!

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