Thursday 13 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~६ अंक~६

#ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगप्रभा-
             #निपीतपंचसायकं_निमन्निलिंपनायकम्‌ ।
#सुधामयुखलेखया_विराजमानशेखरं
        #महाकपालि_संपदे_शिरो_जयालमस्तू_नः ॥

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि- "निपीतपंचसायकं" मैं आपको एक बात बताती हूँ!!कामदेव के पास जो धनुष है!!और उनके तरकस में पाँच ही बाण हैं!!और आश्चर्य की बात ये है कि ये पंच-शायक फूलों के हैं!!सुंदर,सुगंधित,सुगढ,मनोरम ये बाण हैं कैसे जो किसी वज्रके समान चरित्रों को भी पतन के गड्ढे में ढकेल देने की क्षमता रखते हैं!!

ये शब्द,रूप,रस,गंध और स्पर्श ऐसे तीक्ष्ण मर्मभेदी बाण हैं!!जिन्होंने पाराशर,विश्वामित्र,नारद जैसे ऋषियों को विचलित कर दिया!! उनकी कई जन्मों की आराधना और तपस्या को धूल-धुसरित कर दिया!! तो मेरी और आपकी क्या बिसात है ?

हे प्रिय!!ये शाश्वत सत्य है कि मेरी आपके प्रति और आपकी मेरे प्रति कोमल भावनाओं का होना नैसर्गिक है!! मैं तो यहाँ तक कहूँगी कि #स्वर्गिक है!! किंतु इस नैसर्गिकता और स्वर्गिक में एक विशाल भेद है!!

ये जो किसी भी पुरूष को देखकर मैं कामासक्त हो जाती हूँ!! या किसी भी स्त्री को देखकर कोई पुरूष #यदि कामासक्त हो जाता है!!तो ऐसी स्त्री ही #सूर्पनखा कही जाती हैं!! जो अपने सूप जैसे नखों से सीता के!!या किसी अन्य स्त्री के संसार को नोच लेने की कोशिश करती हैं!!

और ऐसे दशानन जैसे महान योगी भी #रावण बन जाते हैं!!हाँ !!ये भी सच है!! तिब्बत के एक लामा मेरे आचार्य थे!! प्रबल सिद्ध पुरूष थे वे!!और प्रकाण्ड विद्वान भी थे!!तथा वज्रयानान्तर्गत घटिका सिद्धि प्राप्त ऐसी किसी आचार्य का मैं आजतक नाम भी नहीं सुनी हूँ!!

किन्तु कुछ सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद,जो उन्होंने आतंक फैलाया!! न जाने कितने निरीह पशुओं का वध किया!!और साधना के नाम पर न जाने कितनी बालिकाओं को नष्ट कर दिया!! कितने घरों को विरान खण्डहर बना दिया!!

हे प्रिय!!यह कौलाचार-मार्ग एक ऐसा अभूतपूर्व मार्ग है कि इसके पथिक नाना सिद्धियोंको अनायास ही पा जाते हैं किंतु #तपेश्वरीश्च_राजेश्वरी_राजेश्वरी_नरकेश्वरः #तथैव_च!!
हे प्रिय!!दशानन और कुलाचारियों का अंततः परिणाम ऐसा ही होता है!! आप जरा विचार तो करें कि-"शिवताण्डवस्तोत्र" जैसे स्तोत्र का रचनाकार कितना तपस्वी,त्यागी,हठाग्रही,योगी,कुलीन,शास्त्रज्ञ शस्त्र-शस्त्रास्त्रों का ज्ञाता,चिरायु,याज्ञिक!!

और साथ ही साथ रक्तपिपासु,पिशाच,बलात्कारी, लालची,कामी,क्रोधी,दैवीय-सम्पदाओं का प्रबल विरोधी भी!!और हाँ!!मैं स्पष्ट रूप से उद्घोष करती हूँ कि कुलाचार आपको रावण बनाने की क्षमता रखता है!!ये आपको नर-पिचाश और हैवान बनादे इसकी ही संभावना ज्यादा है!!
#ये_है_भुजा_सिकंदरी_यहाँ_न_आव_न_आओ!!

मेरे जीवन में कई ऐसे साधक आये!!जो नाना सिद्धियों को पाकर अंततः पथ-भ्रष्ट ही हुवे!!और उन्होंने इस देवाऽसुराऽतीत महाविद्या के मुख पर कालिख ही मल दी!!दशानन कहते हैं कि जिन्होंने इन "निपीतपंचसायकं" शब्दादि रूपी पांचों कामदेव के बाणों को नष्ट कर दिया और इतना ही नहीं!!

"ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंप्रगभा"
हे प्रिय!!जिन्होंने ललाट पट्ट तक की यात्रा कर ली!! और ऐसे अद्वितीय तथा अद्धभुत शिव कि जो पुनश्च फिर उस ललाट से नीचे नहीं आते!! अर्थात #नित्य_अहर्निश_समाधिस्थित निःसंदेह उनके पाँचों के पाँचो विषय समूल भष्म हो जाते हैं!!

और एक अद्धभुत बात और भी है इस पंक्ति में-"  धनंजय स्फुलिंग प्रभा"जब अग्नि,पृथ्वि आदि के विषय अर्थात रूपादि को शिवने भष्म ही कर दिया! तो ये ललाट में उठती #चिंगारियों के दृष्टा वो भला कैसे हो सकते हैं ?

और हां अभी कुछ दिनों पूर्व मेरे एक प्यारे बच्चे Arun Sharman ji ने ये प्रश्न मुझसे दिक्षा समूह में किया भी था!!और मैं तब शांत ही रही थी!! वस्तुतः ये शिव-ललाट अर्थात अपने सद्गुरु अथवा योगिराज के ललाट में उठती स्फुलिंड़्गों के दर्शक वे नहीं होते!! उनके दर्शक तो कोई #सञ्जय_दशानन_और_पार्थ के जैसे उनके कोई शिष्य ही हो सकते हैं!!

तभी तो दशानन कहते हैं कि "निमन्निलिंपनायकम्" अर्थात शिवजी ने कामदेव को इन ज्योति-स्फुलिंड़्गों से भष्म कर दिया है!! अतः यह तो सिद्ध है ही कि दशानन इन विषयों पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ थे ही!!

हे प्रिय!!मेरी चेष्टा एकमात्र यही है कि मैं दशानन शिवताण्डव स्तोत्र और शिव के स्वरूप अर्थात योगिराज के स्वरूप की व्याख्या तत्त्वार्थान्तर्गत ही करूँ!!और मेरा आग्रह है कि आप ब्राम्हण शिर मुकुट मानकर यदि इस रचना को पढते हैं,अथवा वर्णवादिता के आईने से इसे देखते हैं तो कृपया ऐसा न करें!!यह साधक द्वारा सिद्ध का दर्शन है!!

और वैसे भी प्राचीन काल से ही कुलाचरण की नियति यही रही है कि इस मार्ग के साधकों का भटक जाना- #सत्ता_पाहि_काहि_मद_नांही!! मैं मानतीहूँ कि हो सकता है कि दशानन ने प्रभू के हांथों मृत्यु प्राप्त करने हेतु ही #रावण का स्वरूप धारण किया किन्तु समाज का आदर्श तो #राम ही हो सकते हैं न ?

अतः यदि आप ललाटपट्ट पर निरंतर स्फुलिंड़्ग के द्वारा कुछ समय के लिये काम-विजेता हो भी जाते हैं!!तो भी पतन का भय रहेगा और तब तो पतनोन्मुखी होने की संभावना और भी बलवती हो जायेगी!!अतः मैं आपसे निवेदन करती हूँ कि -
#यह_घर_है_गुरुदेव_का_खाला_का_घर_नांहि।
#शीश_उतारी_भुयिं_धरौ_तब_पैठो_घर_माँहि।।

और फिर दशानन ने तो दश-बार अपने सर अपने ही हांथों काटकर शिवजी को अर्पण कर दिये किन्तु फिर !!

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-" सुधा मयुख लेखया"
वैसे मैं आपको एक बात अवस्य ही कहूँगी कि इन सभी निबंधों को मैं कभी भी अकेली नहीं लिखा करती!! मेरे पती श्री आनंद शास्त्री जी जो कि काशी के हैं!!कान्यकुब्ज हैं! और एक प्रसिद्ध यज्ञाचार्य तथा वेदज्ञ भी!!

वे मुझे नाना शास्त्रों,वेद-उपनिषदादि से छाँट-छाँटकर निबंधानुकूल प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध कराते हैं!! किन्तु वे पुरूष हैं न तो कठोर ह्रदय हैं!!उनकी लेखनी में गंभीरता है!! किन्तु मेरी लेखनी में मधुरता और लावण्य है!!

तो मैं उनके अन्वेषणों को अपनी लेखनी की मधुरता  में डूबोकर अपने प्रियतमजी के चरण-कमलों पर यह मिश्रित-मधु उंडेलती रहती हूँ!! और ऐसा ही दशानन जी कहते भी हैं कि- "सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं"

अर्थात #सुधाकर की कला से सुशोभित किरीटों वाला मस्तक!! है न प्रिय!! अद्भुत!!सभी देवी-देवता तो नाना मुक्ता,मणि जड़ित स्वर्णालंकारों से अलंकृत मुकुट पहनते हैं!!मेरे "शिव"तो इन स्वर्ण,रजत और मणियों का निर्माण कर्ता जो #सोम है!! 

आपको आश्चर्य हुवा न!!हाँ,वो तो होगा ही!!मैं आपको आपकी ही सुनी हुयी एक कथा सुनाती हूँ!!इस #अद्वितीय_यौगिक_कथा को किस तरह लोगों ने अश्लीलता की सभी हदों को पार करते हुवे अर्थों का अनर्थ कर इन्हे सुनाया और सुना होगा!!

एक बार शिवजी और मेरे प्रियतमजी मिले!!
अर्थात कृष्ण ही #काली हैं और #महाकाली ही शिव हैं!! तो दोनों मिलेंगे तो है ही!!ये भला काली और महाकाल में दाम्पत्य तो है ही न!!इसमें क्या आश्चर्य
प्रकाश और अंधकार ही तो पति-पत्नी हैं!! अब इसमें स्त्री कौन और पुरूष कौन इसका निर्णय आप करो!!

तो #कामारि शिव कहते हैं कि हे विष्णु!! अर्थात हे वैष्णवी शक्ति!!अर्थात योगों की पोषिका #अन्नपूर्णा,अर्थात-
#माता_यस्य_पार्वती_देवी_पिता_देवो_महेश्वरः।
#बाँधवः #शिवभक्तानां_तस्य_लोको_भुवन_त्रयम।।

हे प्रिये!!आप मुझे अपना #मोहिनी स्वरूप तो दिखायें!!और निःसंदेह यह एक अंतः यौगिक अथवा कुलाचारात्मक विधा है!!इस हेतु आप•कृ•यजुर्वेद• तैत्त•ब्रा•१•१•३•
के इस मंत्र को देखें-
#आपो_वरुणस्य_पत्न्य_आसन्_ता_अग्नि_अभ्याध्यासन् ।
#ताः #समभवन्_तस्य रेत: #परापत: #तद्हिरण्यमभवत्॥

जब मोहिनी स्वरूप के दर्शन से अर्थात भैरवी चक्रान्तर्गत जब शिव-स्वरूप योगिराज का अनिंद्य षोडशी अप्रतिम शोडष कलाओं से युक्ता #त्रिपुर_सुंदरी के सान्निध्य से उनकी स्वयम् की अपनी स्थूल काया में योगिनी का अंतःस्राव होता है!!

मैं आपसे बारम्बार कहूँगी कि आयुर्वेदिक तथा आयुर्विज्ञान,शारीरिक-सूत्र,अष्टांड़्ग योग,अष्टाध्यायी, निरूक्त अर्थात षट्-शास्त्रों के ज्ञान बिना जिन्होने भी कुलाचार के पथ को अपनाया वे १०० % #अंधेन_तमसा_वृताः वे भ्रष्टतम होंगे ही होंगे!!

मैं आपको" सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं"
के द्वारा इस-" महा कपालि संपदे" के गूढ भाव को समझाना चाहती हूँ!!हे प्रिय!!इस सृष्टि में दो स्थूल पदार्थ आयुर्वेद की दृष्टि से सर्वोच्चतम होते हैं!!बाह्य पदार्थों में #पारद_गंधक और अंतःपदार्थों में #रज_वीर्य!!और मैं इनके ऊपर प्रकाश डालना उचित समझती हूँ!!

प्रथम तो आप पूरी मोहिनी की कथा को ही सुन लें!! अब जब मेरे प्रियतमजी के मोहिनी स्वरूपको "शिव" ने देखा तो वे कामातुरावऽस्था में!!दिगाम्बराऽवस्था में मोहिनी के प्राप्त्यर्थ उनके पीछे दौड़ पड़े!! आगे-आगे मोहिनी-और पीछे-पीछे शिव!!

और उनका जहाँ-जहाँ शुक्रपात होता गया!! ध्यान दें आप बिना संयोग के ही यह शुक्र-पात है!! और जहाँ-जहाँ ये शुक्र -बिन्दु आक्षेपित होते गये वहाँ-वहाँ सुवर्ण,रजत,मणियों की खानें बनती गयीं!!

हे प्रिय!!है न अश्लील सी दिखती यह कथा!!किन्तु आप जबतक इसके अलौकिक रहस्यों को नसीं समझेंगे तबतक आपको इस "सुधा मयूख लेखया" का अर्थ समझ में आना मुश्किल ही होगा!! ये कहना आसान है कि #रावणकी_लंका_सोने_की_थी!!
किन्तु ये कहने के साथ आप ये क्यूँ भूला देते हो कि इस #सुवर्णमयी_लंका के निर्माता शिव थे!! और #कुबेर का इसपर अधिकार था!!

मैं अगले अंकों में इस अनोखी कथा के कुछेक अनसुलझे रहस्यों परसे आपके समक्ष पर्दों को हटाती हुयी आपको "पारद-गंधक"की कथा सुनाती हूँ!!अर्थात सोने की लंका दशानन को कैसे मिली और इसकी प्राप्ति उसके लिये क्यूँ घातक हुयी ये भी तो आप जानना चाहोगे न ?

और आप स्मरण रखें कि मैं शास्त्रों को वैज्ञानिकीय दृष्टियों से ही आपसे समझना चाहूँगी!!क्यो कि यह शिवताण्डवस्तोत्रम्  तो विज्ञान की पराकाष्ठा के सान्निध्य में लिखित अद्भुत स्तोत्र रत्न है!!

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-" सुधा मयुख लेखया"
और इस पंञ्क्ति के द्वारा मैं पूर्वोक्त अंक लिखित पौराणिक दृष्टान्त पर कुछ प्रकाश डालती हूँ!!योग तरंगिणि में कहते हैं कि-
#मलदोषो_वह्निदोषो_भूदोषोन्मत्तदोषकौ।
#शैलदोषश्च_पंचैते_दोषाः #सूते_समीरिता।।

शुक्र,सूत,पारद अथवा #हिंगुल अर्थात "ह+ईं+गुलम्" में पंच दोष होते हैं-"मल,वह्नि,भूमि,उन्मत्त और शैल"
और इन्ही के कारण बाह्य पारद में चपलता तथा अंतः शुक्र में स्खलन का कारण होती है!!
वस्तुतः कुलाचरण हो अथवा कि सामान्य आयुर्वेदिक रसों का निर्माण!!इन दोनों का सिद्धान्त एक ही है- #मर्दनं_गुण_वर्धनम॥

और जब तक आप शिवा अर्थात  गंधक को नहीं समझेंगे तबतक पारद को जानने का प्रयत्न करना ही व्यर्थ है!!हे प्रिय!!आयुर्वेद के ज्ञाता #आँवले को धात्री अर्थात #माँ कहते है!! किन्तु #हरीतकी को भी धात्री कहते हैं!!और यह हरीतकी भी दो प्रकार की है!!

बृहद् हरीतकी और क्षुद्रा!!और इसी प्रकार आमलकी के भि तीन भेद हैं"आँवला-आमलकी तथा भू-आँवला" और आपने #आँवला_सार_गंधक का नाम शायद ही सुना होगा!! अर्थात "धार्त्रि की सार गंधक" अर्थात माँ की !!मातृत्व की #सुगंध!!

और कितने आश्चर्य की बात है कि सभी दुर्गंधों में असह्य तथा दूःषित करने वाली गंध "गंधक"के पिघलने पर ही आती है!! और यह गंधक जब भी पिघलती है तो #धृत में ही पिघलती भी है!!अन्यथा इसका नष्ट हो जाना ही नियति है!!

और बिल्कुल वैसे ही शोधित गंधक और पारद मिलकर ही जिस #कज्जली का निर्माण करते हैं!! वो कज्जली ही अंततः सभी रसों की निर्माता होती है!! और आप यह स्मरण रखें कि मोहिनी ही गंधक है!! और सदैव ही गंधक तथा पारद की समान मात्रा मिलकर ही कज्जली बन सकती है!!

किंतु इसमें भी भेद है प्रिय!! होता ये है कि कुलाचारी आचार्य पारद का अर्थात अपने शुक्र का -"षोडश" संस्कार किये बिना ही वे गंधक से मिल गये!! तो ऐसा जीवित पारद हमेशा ही असह्य दुःखों का कारक ही होगा!!अतः ऐसे आधे अधूरे कुलाचार्यों जिन्होंने अपने ऊपर विजय नहीं पायी उनका पतन तो होना ही होना है!!

#यावत्सूतो_न_शुद्धो_न_च_मृतममृतं_मूर्छितं_गंधबद्धं_नो_वज्रं_मारितं_स्यान्नच_गगनवधो_नोपसूताश्च_विद्धाः।।
मैं आपको एक गुप्त भेद बताती हूँ!!आपको इसे स्वीकार करने में कठिनाई होगी!!क्योंकि ये रहस्यमयी तथ्य है!! #सूत ऐसे पुरूष को कहते हैं जो कि पुंसवन करने में सक्षम होते हुवे भी प्रबल पुरूषत्व युक्त होते हुवे भी!!जिसने अपने शुक्र को #मूर्छित कर दिया हो!!

कदाचित जो उच्चतम कोटि के साधक होते हैं उनकी इन्द्रिय या तो अत्यंत ही छोटी हो जाती है अथवा काफी वृद्धि को प्राप्त कर लेती है!!अब आप पुनः ध्यान दें-
(१)=सामान्य गंधक अर्थात सामान्य स्त्री और कच्चा पारद अर्थात सामान्य शुक्र यदि कुलाचार में मिलते हैं!!भैरवी चक्रान्तर्गत मिलते हैं!!तो जिन रसों का निर्माण होगा वो रस नहीं #विषय हैं!!विष हैं!! ये तो वासना का नग्न और नितान्त ही त्याज्य और घृणित व्यभिचार है!!

(२)=यदि सामान्य दम्पत्तियों के मध्य यह संयोग होता है!! तो वही सृष्टि का सृजनात्मक स्वरूप है!!

(३)=यदि कच्चा पारद और शोषित गंधक अर्थात योग्यतम भैरवी और किसी सामान्य पुरूष का संयोग होता है!!तो धार्त्री अर्थात "माँ"स्वरूपिणी भैरवी के वध कर-देने तक की परम्परा इस कुलाचार में मध्य-युगों में अपनी चरम-सीमा पर थी!!

होता ये था कि योग्य भैरवियों को धोखे में रखकर तांत्रिक इनकी बली चढा देते थे!! और ऐसी ही अनेक पुस्तकों को आपने पढा भी होगा!! मैं किसी का उल्लेख नहीं करना चाहती!!

(४)=किन्तु हे प्रिय!! आप जरा संस्कारों द्वारा अंतर- ग्राह्य  पारद को समझें!! देवताओं के वैद्य धन्वन्तरी जी •ध•ध•सं•र•क•वा•१५•१६• में कहते हैं कि-

#स्वेदनं_मर्दनं_मूर्छो_पातन_मेवनिरोधनम_नियमांश्च।
#दीपन_गगनग्रासन_प्रमान_मथचारणा_विधानंच।
#गर्भद्रुति_बाह्यद्रुति_जारणा_रसराग_सारणं_चैव।
#क्रामण_वैधो_भक्षणमष्टाद_विधमिति_रसकर्म_तथैवच।।

स्वेदन,मर्दनोमुखी,किन्तु मूर्छित!!और पातन में सक्षम होते हुवे भी जो निरोध कर सकता है!! जो इनका नियमन कर्ता है!!और दीप्त होता है!!वो प्रथम गगनचारी अर्थात आकाश-गमन के योग्य होने के कारण प्रमाणित होते हुवे अर्थात वासनातीत होते हुवे!!मंथनों का दृष्टा होता है!!

और हे प्रिय!!वह गर्भ से द्रुतिमान होकर भैरवी के रजो-पुष्पों की बाह्यद्रुति कराते हुवे!! अपने रसेन्द्र को "जारण"कर देता है!!और ऐसे कोई शिव सदृश्य कौलाचार्य ही इतनी "रसरागसारमयी"चौदहवीं विधा के द्वारा अपने शुक्र रूपी ठोस-बद्ध हो चुके पारद को उत्क्रमित कर चक्रों का "वैधो"अर्थात भेदन करते हुवे अपने पारद के स्वयम् ही भक्षणकर्ता होते हैं!!और यही पारद के सोलह संस्कार हैं!!
हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-" सुधा मयुख लेखया"
और इस पंञ्क्ति के द्वारा मैं पूर्वोक्त अंक लिखित पौराणिक दृष्टान्त पर कुछ प्रकाश डालती हूँ!!

अभी और भी एक तथ्य है प्रिय!!विश्व दाम्पत्य-जीवन संस्था के आदर्शों को ऋषियों ने प्राप्त करने हेतु जीवन-चक्र को द्वादश भावों में विभाजित भी किया है-
(१)= #लग्न_तनु-मेरे प्रियतमजी ने जिस तन के साथ मेरा लग्न अर्थात संयोग कराया!!और इसी से मेरे स्वभाव,स्थूल-सूक्ष्मादि भौतिकीय तथा अंतर्भौतिकीय वर्ण-विचारों का निर्णय होता है!!

(२)= #पैतृक_तथा_पूर्व_संस्कार-और वह संयोग भी मेरे पूर्वकृत संस्कार रूपी पैतृक-सम्पति ही तो हैं!!प्राप्त हुवा ये जन्म जिन संकारों को लेकर आया है!!उन पूर्व-कृत संस्कार रूपी बीजों का दर्पण है यह द्वितीय भाव!!

(३)= #पराक्रम_बंधु-और इसी से मुझे आप जैसे बंधु और पराक्रमों की प्राप्ति होती है!!मेरे वे पूर्व कृत संस्कारों और बीजों को परिमार्जित कर आप दशानन भी बन सकते हैं,और रावण भी!!

(४)= #मातृ_भवन_सुख-पराक्रमी संतान ही मातृत्व को धन्य करती है!!और सुखादि पदार्थों का उपभोग करती है!!हे प्रिय!! आपकी लग्न को यदि आपने अपने पूर्व कृत कर्म-बीजों से परिमार्जित करते हुवे अपने पराक्रम को प्राप्त किया तो सुखों की प्राप्ति तो होगी ही!!

(५)= #संतान_विद्या -और इन मातृत्व का वात्सल्य ही विद्या अर्थात सरस्वती प्राप्ति का कारक है!!जो आप ही नहीं आपकी संतति को भी प्रभावित करती है!!एक शिक्षित-संस्कारी दम्पत्ति ही श्रेष्ठ संतान के कारक होते हैं!!

(६)= #व्याधि_शत्रु -सरस्वति होगी और योग्य संतानें होंगी तो ईर्ष्या के कारण शत्रु भी होंगे!!और उस शत्रुता की चिंता आपको व्याधियाँ तो देंगी ही!!और फिर यह तो आप पर निर्भर करता है कि आप शत्रु-भाव को स्वीकार कर अपने आपको रोगी बनाते हैं,अथवा छमा रूपी महौषधि से #शिव बन जाते हैं!!

(७)=वासना-जीवन साथी -इन व्याधि,शत्रु आदि को पराभव करने हेतु,आपको एक ऐसे आँचल अथवा ह्यदय का आश्रय चाहिये ही कि जो आपकी कामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ आपका नितांत अंतरंग जीवन-साथी हो!!और हे प्रिय!! इस सप्तम भाव के ठीक ऊपर आपका लग्न अर्थात सहस्रार भी तो है!!आपका यह साथी ही आपके योग और भोग का कारक है!!

और यही -"सुधा मयूख मेखला" भी है!!एक ऐसी मेखला जो आपके सहस्रार से आपकी कुण्डलिनी तक और कुण्डलिनि से सहस्रार तक की योग-पथ प्रदायिनी है!!
#तदेव_लग्नम_सुदिनं_तदैव_तारा_बलं_चन्द्र_बलम_तदैव।

(८)= #राज्य_मृत्यु_कारक -आपके राजयोग अथवा भिक्षुक योग,व्याधि,शत्रुता,संस्कार,विद्या,सुख,पराक्रम  और जीवन साथी ही मिलकर आपके अमृतत्व अथवा मृतत्व का निर्णय करते हैं!!

(९)= #भाग्य -और यह आपका यदि पछले भावों के समष्टि से निर्मित होता है!!अर्थात यह यदि प्रालब्ध है तो अगला भाव-
(१०)= #कर्म_पितृ -अब आपके कर्मों का विधाता नहीं बल्कि संकेतक और संचेतक भी है!! और स्मरण रखें कि कर्म ही आपका पिता है!!और कर्म ही आपको सूर्य की तरह प्रकाशवान अथवा अंधकारमय पतनों के गर्त में ढकेल देता है!!

(११)= #आय- हे प्रिय आपके द्वारा प्राप्य पूर्वोक्त भावों के फल ही आपको धर्म अथवा धर्मानुसार अर्थोपार्जन कराते हैं!!
(१२)= #व्यय- और यही यह नियत भी कर देते हैं कि आपका और आपके धनादि का व्यय होकर पुनश्च इसका अगला भाव "लग्न"समाप्त होकर नूतन कलेवरों की खोज में चल पड़ेगा!!

हे प्रिय!!पूर्व के अंकों द्वारा मै आपका ध्यान शारीरिक सूत्र,ग्रहादि,चक्रचारिता,तथा जन्मों-जन्मों की विवेचना द्वारा यही बताती आ रही हूँ कि यह एक सुधामयी मेखला है!!अन्यथा तो नर्कों की बेड़ियाँ तो हैं ही!!वस्तुतः दशानन एक महान #ज्योतिषाचार्य और तंत्र सम्राट तो थे ही!!उनके लिखित "उड्डीशतंत्र, रावण संहिता,शिव विनोद भाष्कर,ग्रहोदय निर्णय" जैसे अनेक गृंथ अभी भी उपलब्ध हैं!!

और दशानन ने उपरोक्त सभी विधाओं का आश्रय लेकर अकूत शक्ति तथा सम्पदा भी पायी!!मेरा अनुमान है कि सामान्य धार्ती-गंधक को यदि गो-धृत में पिघला कर और गो-दुग्ध में १६ बार सिंचित किया जाये तथा पुनश्च षोडश संस्कारित पारद के साथ उसकी कज्जली निर्मित की जाये!!

पुनश्च अन्य ६ भष्मीकृत धातुओं,अभ्रक,मण्डूर, चित्रक,सोमवल्लि,कनैर,सर्पगंधा,अष्टक वर्ग,त्रिकुटा, पंच-लवण आदि-आदि से सम्पुटित कर रसायन शालाओं में इनपर शोधकार्य किया जाये तो स्थूल स्वर्ण निर्माण बिल्कुल सम्भव है!! और कृतिम रजत,लौह,मुक्ता, वैदुर्यादि मणियों का निर्माण तो होता ही है!!

अतः हे प्रिय!!मैं उपयुक्त आधार पर ही यह कहना चाहती हूँ कि जिस प्रकार आपके ये स्थूल लग्न,धातुओं का विधान तथा रहस्य है!!उसी आधार पर जब आप अपनी प्रेयसी के साथ अंतरंग यात्राओं पर प्रयाण करते हैं तो जिन रत्नों के साथ आप शुषोभित होते हैं हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-" सुधा मयुख लेखया"
और इस पंञ्क्ति के द्वारा मैं पूर्वोक्त अंक लिखित पौराणिक दृष्टान्त पर कुछ प्रकाश डालती हूँ!!ये नटराज का ताण्डव है!!अर्थात #अर्धनारिनाटकेश्वर का अंतरंग नृत्य!!और आप इसे "काम कला विलास" भी तो कह सकते हैं!!

आप स्मरण रखें कि श्रीशुक्लयजुर्वेदी संहिता•शतपथ• ब्राह्मण •९•१•१•१•में कहते हैं कि-
#अत्रैष_सर्वोsग्नि: #संस्कृत: #स_एषोsत्ररुद्रो_देवता

शिव,कूर्म तथा मार्कण्डेय पुराणों में शिव को ज्योतिर्मयी-ऊर्जा कहा गया है!!और इसी कारण शिवलिङ्ग को ज्योतिर्लिङ्ग भी कहते हैं!! किन्तु संस्कारित और द्विअग्नि संभूतात्मक!! और ये तो सिद्ध है कि अग्नि से संयूक्त करके ही सभी धातुओं का विशुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है!!

और हे प्रिय!! हम स्त्रीयों रत्नाकर की बेटियाँ हैं!! हमारी चंन्द्रिका मयी शीतल अग्नि और आपकी उष्णता मयी सौर-शक्ति स्वरूपा अग्नि का जब संगम होता है!! तो उस महा कुंभ में!! जितने भी आपके पर्व अर्थात सूक्ष्म से सूक्ष्म अंग हैं!!

उनमें भी उन अद्भुत क्षणों में आपका वीर्य सातो धातुओं का भेदन करता हुवा पारद की भाँति रोम-रोम से स्खलित होकर उनमें अपने से रिक्त हुवे स्थानों में पुनश्च इन्ही धातुओं के पुनर्निर्माण हेतु अपने अंशों रूपी खानों को छोड़ भी जाता है!!

और आपने #लहेसुनिया नामक रत्न का नाम तो अवस्य ही सुना होगा!!जो कि मानव-अस्थियों के जीवाश्म से ही प्राप्य है!!और हे प्रिय!!इसी आपके शरीरों में स्थित द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रथम ज्योतिर्लिंग #सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध है!!

ये एक अद्भुत प्रक्रिया है!!तभी तो काम-क्रीड़ा से प्रकट धातु को पारे की तरह चंचल #रसराज कहते हैं!!जब आपके सुदृढ पर्वताकार शरीर की चट्टानों से निःसरित हो रहा रसराज आपकी प्रेयसी के पुष्प-राग से प्रक्षालित हो जाता है!!

अब ये तो निश्चित ही है कि पुष्पराग की अपेक्षा रसराज का घनत्व अधिक है!!जैसे कि आज भी आपने Hydraulic Mining के द्वारा अर्थात जल की तेज फुहारों से स्वर्णकारों अथवा खनन कर्मियों को धातु को मिट्टी से अलग करते देखा या सुना होगा!! बिलकुल यही विधि भी कुलाचारान्तर्गत चक्रचारिता में निर्मित हीती है!!

अब आप विचार तो करो प्रिय!!जब कोई शिव जैसा नटराज अपनी आद्याशक्ति नटराज्ञी त्रिभुवन मोहिनी के साथ विशुद्ध काम विहीन यज्ञात्मकीय संयोग-जन्य हवनोत्सुक हुयी अपनी प्रिया की शीतल उर्जाओं को विमुग्ध कर आत्मसात करता है!!और जिसके परिणाम स्वरूप अनेक-रत्नों के खान मयी चक्रों का भेदन करता जाता है-
"ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा"

किंतु हे प्रिय!! उसके ललाट प्रान्त में झिलमिलाते स्फुलिंग तभी प्रभाषित होंगे जब नीचे के पाँच चक्रों  पर कामदेव के तीर निष्प्रभावी हो चुके होंगे " निपीतपंचसायकं" और मेरे प्यारे!! वेदानुकूल इस मार्ग को समझने वालों यह आप निश्चित ही स्वीकार कर लो कि यह मार्ग अंतःजागरण यज्ञों की वेदी है!!कोई आपके रंग-महल की शय्या नहीं है!!

और ऐसा तभी संभव होता है जब कोई विलक्षण योगी भोगों को जागते हुवे योग बना देता है!!जो संयोग में भी"निमन्निलिंपनायम्" निरपेक्ष भाव से इन भोगों का जागृत-दृष्टा होता है!! इसी हेतु दशानन कहते हैं कि-जब ऐसा होता है तो...........

मूलाधार का भेदन करते हुवे शिवा की ऊर्जा से शिव का बद्ध-पारद रस-राज "सुधा मयुख लेखया" एक चन्द्रिका की लहेराती हुयी मेखला की तरह योगिराज के सहस्रार में "विराजमानशेखरं" चन्द्रमा बनकर विराजमान हो जाती है!!

और हे प्रिय!!यही तो मेरे अवधूत महा-कापालिक की सम्पदा है!!और यदि आप इस महा कापालिक से किसी सांसारिक सम्पदाओं अथवा कामनाओं की आकांक्षा करते हो!!जैसा कि "रावण" ने किया!! तो अंततः ऐसी सोने की लंका जलकर खाक तो होनी ही है!!

और इसका कारण भी है- "शिरोजयालमस्तूनः" आप यदि तंत्र मार्ग से सम्पत्तियों की प्राप्ति करते हो!! अथवा कि तांत्रिक-जनों से सम्पत्तियों की आशा रखते हो!! तो प्रथम बात तो ये है कि ऐसे सिद्ध तांत्रिक आपको मिलेंगे नहीं!!और यदि कोई सच्चा सिद्ध मिल भी गया तो उससे प्राप्त ऐसी सम्पदा मात्र #ईन्द्रजाल बनकर रह जायेगी!!नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !!और शेष अगले अंक में पुनः प्रस्तुत करती हूँ!! .... #सुतपा!!

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