Tuesday 11 September 2018

आगमोक्त जैनसूक्त

आगमोक्त जैन मत के १४ सूत्र-
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे मैं #स्वतंत्रता पर आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,,  अर्थात,जब वह स्वतंत्र हो जाता है!!तो उसमें स्वतः ही " ब्रह्मचर्य"का प्राकट्य होता है!!

अतूलनीय ब्रह्मचर्य!!वंदनीय ब्रह्मचर्य!!अद्भुत ब्रह्मचर्य होता है जैन मुनियों और हमारे "नागा संन्यासियों में!!
मैं जैन मुनियों को नग्नावस्थामें अनेकों बार देखी हूँ!!
अनेक कन्या,युवा और सुँदर स्त्रियों द्वारा उनकी अर्चना करते हुवे उन्हे देखी हूँ!!और कभी किंचित् मात्र भी उन मुनियों के नेत्रों में विकार आता नहीं देख-पायी!!मैं अंतःकरणसे उनकी वंदना करती हूँ!!

आदरणीय, कृष्ण प्रिया वृंद, पुनःमैं आपकी सेवामें यही कहना चाहती हूँ कि,जब ये पाँच-महापापों से आप जैसे सज्जन वृंद मुक्त हो जाते हैं तो आगे का छठवाँ सूत्र प्रकट होता है- #प्रमत्त_संयत"अर्थात प्रमाद सहित महाव्रतों का पालन!!

यह दिगाम्बर जैन मुनि (साधु) के रूप में पहला क़दम है,उनका!!और इसमें पूर्ण आत्म-अनुशासन होता है हालांकि कभी कभी थोड़ी लापरवाही हो सकती है।
"जिन-सागर" को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह समझती हूँ कि-इन" अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्म्हचर्य "रूपी सद्गुणों से युक्त एक आदरणीय #मुनी इन महावृतों का आग्रह पूर्वक पालन करते हैं!!

सतत् अभ्यास करते है इनमें अपने आपको स्थिर रखने का!!"मैं आपको इसे एक दृष्टांत द्वारा बतलाती हूँ-मेरे एक परिचित मित्र हैं, वे शराब पिया करते थे!!
परिणामतः माँसाहार भी किया करते थे!!
परिणामतः धूम्रपान भी किया करते थे!!
परिणामतःजुवा भी खेला करते थे!!
परिणामतः वेश्यागमन भी किया करते थे!!
मैंने उन्हे प्यार से समझाया,गीता वगैरह समझायी उन्होंने सबसे पहले धीरे-धीरे वेश्यागमन छोड़ा!!
फिर क्रमशः एक वर्ष में उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया!!
आज वे एक महान संत का जीवन व्यतीत कर रहे हैं!!और मेरे प्रियतमजी के अनन्य भक्त हो चुके हैं!!

मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि-"प्रमत्त संयत"मेरे भीतर एक आग होनी चाहिये!!एक पागलपन होना चाहिये,उन्माद की हद्द तक किसी को पाने का एक"जुनून"होना चाहिये!
यह अपने ऊपर स्वयं का स्थापित अनुशासन है!!

हे प्रिय!!याद रखिए-मुनी, संत,साधू,भक्त जन स्वतंत्र होते हैं!!और मैं!!हम-आप,विषयी-जन!!स्वच्छंद होते हैं!!जो स्वतंत्र होते हैं,वे स्वच्छंद हो ही नहीं सकते!!
और जो स्वच्छंद होते हैं,वे स्वतंत्र नहीं हो सकते!!

"प्रमत्त संयत "अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए पागलपन की हद्द तक अपने आपको अनुशासित करना!!हे प्रिय!! जिसने अपने को अनुशासित नहीं किया,वह ज्ञान-कर्म_भक्ति अथवा किसी भी मार्ग का अधिकारी नहीं हो सकता!!और कहते हैं न कि-
#करत_करतअभ्यास_पुनि_जड़_मति_होंहि_सुजान।

संतों, भक्तों मुनियों,साधु-संतों की वंदना मैं नहीं करती!!मैं उनके स्व-अनुशाषन और परिणामस्वरूप उन्हे प्राप्त "स्वतंत्रता"पर उनकी वंदना करती हूँ!!

और आगम यह भी उन्मुक्त्त कण्ठ से यह स्वीकार करता है कि इस "छठवें-सूत्र में आनेवाले मुनिजनों से भी कभी-कभी प्रमाद हो सकता है!!मैं देखती हूँ,मेरे अनेक संन्यासत्व के अनुशीलन में व्यस्त संतवृंद,  मुनिजन, वंदनीय-जन कभी-कभार विचलित भी हो जाते हैं,क्रुद्ध और छुब्ध भी हो जाते हैं!!

फिर भी वे ही मुनित्व के उपासक अपने को क्रमश अनुशासित करते हुवे- अगले सूत्र में स्वतः ही प्रवेश कर जाते हैं।
हे प्रिय तथा मेरी प्यारी सखियों!!अब"अष्टम-सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,,अष्टम-सूत्र"अर्थात, #अपूर्वकरण"
ये वही गुणस्थान हैं,जिसमें मंद रूप में कषाय मौजूद हों।

#कषाय"कड़वाहट,को भी कहते हैं!!और सखियों!! कषाय का का अर्थ #काषाय"भी होता है!!
#काषायऽबर_अग्नि_के_सदृस्य_वस्त्र!!जैसे हमारे शैब्य,शाक्त,आर्यसमाजी,ओशो आदि के सन्यासी "काषाय"वस्त्र धारण करते हैं!!

इसका तात्पर्य ही यही होता है कि-उन्होंनें अपने समस्त भौतिक और आधिभौतिक आवरणों को जलाकर भष्म कर दिया है!!यह एक अपूर्व स्थिति है!! #श्रीपाद_वल्लभ_दिगम्बरा"

आदरणीय, कृष्ण प्रिया वृंद ,अब पुनः मैं आपकी सेवामें यही कहना चाहती हूँ कि,इसमें एक भावना भी शेष रहती ही है कि--
#न_हु_जिणे_अज्ज_दिस्सई_बहुमए_दिस्सई_मग्गदेसिये।

हे प्रिय!! सत्य श्रवण करने से ज्ञान होता है!!ज्ञान से सूक्ष्म पदार्थों का विवेक होता है!!तभी अनात्म से आत्मा का पृथक्करण होता है!!और तभी तो संयम होगा!!और संयम से अनात्मा का आत्मासे #सेतु टूट जाता है!!और तभी तप करने की क्षमता उत्पन्न होती है!!

जिन-सागर को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह समझती हूँ कि-तपस्या से,पूर्व संचित कर्म-मल छिण हो जाते हैं!!और चित्त कि चंचलता मिट जाती है!!
"और परमार्थ की सिद्धि होती है"

मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि,मैं याद रखने का प्रयास करती हूँ "संयम का फल नूतन बंधनों का निरोध है!!
"और तप का फल पूर्व बंधनों से विमोचन है!!

इस प्रकार हे मेरी सखियों!!ऐसा अपूर्व कषाय उनके जीवन के सभी कषाय रूपी आकांक्षाओं को अग्नि में भष्मिभूत कर देता है!!और उस महामृत्यु से मरता हुवा- #अज्ञान_जन्म_मृत्युकी_परम्परासे_अतीत_हो_जाता_

है प्रिय!!अब आगे #नवम्-सूत्र"पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,-
#अनिवृतिकरण (उन्नत सोच)स्थूल रूप से मोहनीय कर्मों का क्षय हो जाना!!नवम्-सूत्र"अर्थात,"जीवत्व से ऊपर उठना" "शिवत्व की तरफ प्रयाण करना"
गृहस्थाश्रम में रहते हुवे अथवा सन्यस्त में ही रहते हुवे!! अकेले रहेने का!! अपने आपको महेसूस करने का अनुभव होना!!

#एगत्तगए_पिहियच्चे"अपने शरीर को ढाँक कर रखना!!अपने अंतःकरण को कोई भी अनुभूति गम्य न कर पाये!! #पूर्ण_गंभीरता!!हे आदरणीय, प्रशिद्ध श्रावक जामालि की पत्नी प्रियदर्शनी एक बार महावीर स्वामी के शिष्य #ढंक नामक कुम्हार के गाँव में गयी थीं!!

ढंक ने उनकी चादर पर एक अग्निकण फेंक दिया!!
साध्वी ने भावावेश में कहा कि,हे आर्य!!मेरी चादर जल गयी!!
ढॆँक ने कहा कि हे साध्वी!!अभी जली नहीं!!अभी तो चादर"जल रही है"!!

हे प्रिय!!मोहनीय कर्म का क्षय!!महान श्रावक भी कभी कभी मोहित हो सकते हैं!!और इस मोहनीय कर्म का स्थूलरूपेण भी पूर्णतया क्षय हो जाना ही" अनिवृतिकरण"है!!

मैं बस आपसे और स्वयम् से इतनी ही अपेक्षा रखती हूँ कि"हम-आप"यथार्थ-स्थिति को स्वीकार करें!!
उसे अनुभव करें!!और यह अपनी सोच को,अपने विचारों को उन्नत किये बिना संभव हो ही नहीं सकता!!

इसी को कहते हैं- #निश्चयनय" वास्तविक सत्यस्पर्शी दृष्टिकोण!!और पुनः उसीका!! #व्यवहारनय अपने व्यवहार में भी सत्यस्पर्शी दृष्टिकोण का हो जाना!!

जै कि एक धागा!!धागा ही है वस्त्र नहीं है!!
और उसका अंतिम तंतु भी वस्त्र नहीं है!!
तो वस्त्र भी भला वस्त्र कैसे हो सकता है ?
प्रथम तंतु से अंतिम तंतु के निर्माण की प्रक्रिया का नाम ही तो #वस्त्र ऐसा लौकिक रूप से कहा जाता है न!!

यदि प्रथम क्षण से ही निर्माण की प्रक्रिया को वस्त्र निर्माण की प्रक्रिया न मानें तो वस्त्र"वस्त्र" न होकर मात्र तंतु ही रहेगा न!! मात्र तंतुओं समूह!!यही तो उन्नत दृष्टि है!!

आज आप सभी आत्मीय जनों से एक प्रश्न करने से अपने आपको रोक नहीं पा रही हूँ कि,क्या हमारे जैन "आगम गृंथ " अपनी इस विशाल ज्ञान परम्परा के साथ हम सभी के आदर के पात्र नहीं हैं ? हे प्रिय तथा मेरी प्यारी सखियों!!अब दशम्-सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ-दसवां -सूत्र"अर्थात- #सूक्ष्म_साम्पराय"
कषायों का सूक्ष्म रूप में मौजूद होना।

पाँच प्रकार के अतिचार #क्षपक"(मुक्त्याकांक्षियों में देखने को मिलते हैं!!
(१)=  जिजीविषा,!!जीवन को बुलबुले की तरह जानकर भी जीने की ईच्छा का प्रबल रूप से होना!!
अपना सत्कार,सेवा,आत्मप्रशंषा सुनकर,मरणोन्मुखी होनेपर भी,आहार गृहण करने में सक्षम या परित्याग कर देने पर भी जीने की ईच्छा का होना!!

मैं अपने जीवन में स्वयम् ही दो-चार बार मृत्यु-तूल्य कष्ट पायी हूँ,और उन घड़ियों में मैंने अपने आपको शरीर के अथवा शरीर से सम्बद्ध लोगों और पदार्थों के प्रति और भी ज्यादा समीप पायी थी!!मेरे स्वजनों द्वारा मेरी प्रशंसा,मेरे धैर्य अथवा मेरे गुणों का बखान, उनके द्वारा की जा रही सेवा,उनका रुदन करना,उनसे बिछुड़ जाने का भय ही तो #जिजीविषा"है!!

(२)= और व्याधिगृस्त होने पर मरने की ईच्छा करना! आहारादि गृहण करने में सक्षम न होने पर तथा किसी की सहानुभूति न मिलने से व्यथित चित्त को #मरणाशंषा नामक द्वितीय अतिचार कहते हैं!!
हे प्रिय!!इसके संदर्भ में धर्मामृत-सागार में कहते हैं कि-
#जीवितमरणाशंसे_सुह्रदनुरागं_सुखानुबन्धनम्।
#सनिदानं_संस्तरगश्चरेच्च_सल्लेखना_विधिना।।

और हे प्रिय!!एक बार बाल्याऽवस्था में ही अपने स्वजनों द्वारा परित्याग कर दिये जाने और कतिपय अनपेक्षित कुचक्रों में अपने आपको घिरा देखकर, भयँकरतम् शारीरिक-मानसिक यंत्रणाओं को भुगतते हुवे मैं बारम्बार ईश्वर से #मृत्यु की भिक्षा माँग चुकी हूँ,यह जीवन से पलायन वाद,आत्महत्या की कामना भी अतिचार ही है!!

(३)= अपने बालसखा,मित्र,सुह्रद,सुख-दुःखादि के साथी,पती-पत्न्यादि के अनुराग का स्मरण,इनसे वियोग का भय!!

(४)=अपने द्वारा पूर्व में उपभोगित नाना प्रकार के भोगों-सुखों का स्मरण #सुखानुबंध"नामक चौथा अतिचार है। जैसे कि मेरे आपके सभी के जीवन में परिस्थितियों तथा आयु के आधार पर उतार-चढाव आते ही रहते हैं!!मैं समझती हूँ कि-
#बाल_स्तावत्_क्रीडासक्तः #तरूणी_तरूणो_जातोऽरक्तः #वृद्धोयाति_गृहीत्वा_दण्डम्_तदपि_न_मुञ्च्यति_आशा_पिण्डम्।
#अंड़्गं_गलितम्_पलितम्_तुण्डम्_दशाविहीनम्_जातम्_मुण्डम्_तदपि_न_जायति_त्राशा_पिण्डम्।।

ये बिल्कुल सत्य है,मैं इसे महेसूस करती हूँ कि- #आशा_तू_न_गयी_मेरे_मन_से!!आयु के साथ-साथ,अथवा पूर्व में किन्हीं भी कारणों वशात् भोगे हुवे सुखोपभोगों को छोड़ देने की कचोट मनको टीस देती ही रहती है!यह भी तो अतिचार ही है न !!

(५)= और सबसे महत्वपूर्ण!!मैं अपने तप,लंघन, कठोर संयमादि के प्रताप से आनेवाले जन्मों में #निर्यापकाचार्य।या ईन्द्रादि पदों को प्राप्त कर लूँगा यह #निदान"नामक पाँचवाँ"स्वर्गादि लोक जन्य सुखोपभोगों की लालसा का होना अतिचार है।

हे प्रिय!!आप ध्यान देना इसी प्रकार के अतिचार की"ईशावास्योपनिषद"में भी निंदा की गयी है!!और हम कभी कभी मतांध होकर इस अतिचार की इस प्रकार व्याख्या कर लेते हैं कि"जैनियों"नें तो हमारे ईन्द्र को नर्कगामी कहा है!!वे वेद-विरोधी हैं!!

और यही पंच कषाय हैं!इनसे सभी"क्षपक" (मुमुक्षाकांक्षियों) को बचना चाहिये!!
जहाँ तक मैंने समझा है तो आप स्वयम् भी विचार कर सकते हैं कि यही तो वे #मोह-पाश" हैं,जो हमें अप्राप्त की प्राप्ति हेतु बारम्बार बाध्य करते हैं!!

और प्राप्ति न होने पर मन कड़ुवाहट से भर जाता है,उद्विग्न हो जाते हैं हम!!यही इस सूत्र का भाव है!!हे प्रिय तथा मेरी प्यारी सखियों!!अब आगे "एकादस -सूत्र"पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,,  एकादश-सूत्र"अर्थात- #उपशान्तमोह मोह का दमन पर #केवल्य ज्ञान की प्राप्ति का फिर भी न होना।

यह मुनिराज की वह स्थिति है जिसमें सांसारिक मोहका दमन तो कदाचित् हो जाता है!!किंतु अभी ?
मैं आपसे एक निवेदन करना चाहती हूँ!! वह यह है कि"मोह या विशय रूपी पापों"से मुक्त होने का दो ही उपाय है!!वह मैं आपके प्रति कहती हूँ--

(१)=या तो आप इतने ऊँचे!इतने बड़े महान सम्यक्- दृष्टि के हो जायें कि"पाप,मोह,निंदा"की परिस्थितियाँ चाहे जितनीं भी आपके समक्ष उपस्थित हों!! चाहे वो जितनी भी आपके ऊपर आक्रमण करें!!पर आपके विचारों,त्याग,सर्व मत सम्भावादि रूपी आपके कदमों को छू भी न पायें!!अर्थात-
#सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि_मोक्ष_मार्गः"

(२)=अथवा आप इतने छोटे बन जायें,लोगोंकी दृष्टिमें इतने अज्ञानी बन जायें कि आपको अपने सद्गुरु देव जी"के बोध के अलावा और कुछ भी गृहण करने की इच्छा ही शेष न बचे!!

आदरणीय, कृष्ण प्रिया वृंद ,अब पुनः मैं आपकी सेवामें यही कहना चाहती हूँ कि- #उपशांतमोह"
मोह शांत हो गया,कदाचित् मन में स्थित ,वासनायें शांत हो गयीं!!पर प्रिय!!वासनायें और संस्कार शांत तो एक बार हो सकते हैं!!

किंतु भूँसेमें छिपी आग की तरह वे कभी भी किसी के द्वारा छेड़ने-पर और भी भयँकर रूपसे प्रकट भी हो जायेंगे!!इसकी संभावना तो अभी शेष रहती ही है!! तभीतो मैं कहती हूँ कि आप देखें कि-

#धर्मः #सर्व_सुखाकरो_हितकरो_घर्म_बुधाश्चिन्वते ।
#धर्मेणैव_समाप्यते_शिवसुखं_धर्माय_तस्मै_नमः ।
#धर्मान्नास्त्यपरः #सुहृद्भवभृतां_धर्मस्य_मूलं_दया ।
#धर्मे_चित्तमहं_दधे_प्रतिदिनं_हे धर्म_माँ_पालय

यह त्रिरत्न का सूत्र है,सूत्र वही कहता है जो कि गीताजी औरआद्य शंकराचार्यादि ने भी कहा है कि-
स्वधर्म का पालन निष्ठा और एकागृता पूर्वक जबतक शरीर में प्राण अवशेष हैं!!करना ही चाहिये!!
अरी सखियों!!मैं या आप अर्जुन और उद्धवजी के ज्ञान और "प्रभुजी की सन्निकटता"के सापेक्ष कहीं तृण मात्रभी ठहरती हैं क्या?

जब उन्हें भ्रम हो सकता है!!महानतम भक्त नारदजी मोहित हो सकते हैं!!तो मेरे जैसी जन्मों जन्मकी पापानि की क्या गिनती है ? क्या औकात है ?

जिन-सागर को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह समझती हूँ कि- मोहका दमन होने से ज्ञानकी प्राप्ति हो गयी!!ऐसा कहना व्यर्थ है!!हे आदरणिय प्रिय !! इस विशयमें यह कहना कहीं ज्यादा सत्य के नजदीक लगता है कि मोह के बंधन से मुक्त होना ही #मोक्ष का प्रथम सोपान है!!

#सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि_मोक्षमार्ग:" (१-१)!!
यह तत्त्वार्थसूत्र का पहला सूत्र है। इसमें कहते  हैं कि- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं।
#परस्परोपग्रहो_जीवानाम् (५.२१): यह सूत्र जैन धर्म का आदर्श-वाक्य है। यह जैन धर्म के प्रतीक चिन्हों के अंत में लिखा जाता है। और मैं इस वाक्यसे अत्यंत ही प्रभावित रही हूँ!!

सम्यक दर्शन #आत्मवत्_सर्व_भूतेषु"यही तो हमारा दर्शन भी कहता आया है!!जब मैं सभी भूत समुदायों में एक अपनी ही आत्मा को देखूँगी!!और अपनी आत्माको सभी भूतोंमें देखूँगी तो यही "सम्यक ज्ञान"कहा जायेगा!!

मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि-किंतु!!अभी भी मुख्य बात तो शेष ही रहती है कि " सम्यक् चरित्र"का होनाअत्यंत ही जटिल समस्या है यह!!अपने चरित्र में,जन्मों जन्म के पड़े कुत्सित संस्कारोंका परिमार्जन हुवे बिना यह कदापि संभव नहीं है!!

मैं इसे ऐसे समझती हूँ कि-मैं अपने कमरे मे अभी बैठी हुयी हूँ!!दरवाजा बंद है! एक छोटीसी जालियोंसे ढँकी हुयी खिड़की खुली है!!निःसंदेह मैं खिड़की से आकाश को देख सकती हूँ!!किंतु बहूत थोड़ा सा आकाश ही दिखेगा!!और वह  भी"जालियों"के व्यवधान से ही दिखेगा!!

महावीर स्वामीजी ने एकबार अग्निभूत से कहा था कि" धर्म का दृष्टा नहीं होता तो वह शब्दोंके अनुमानसे,शब्द रूपी खिड़की से झाँक कर देखा जाता है तो ऐसी स्थिति में अनेक मार्ग और मार्ग दर्शक भी मिल जाते हैं!!

अतः मेरी सखियों!!मैं आपसे इतना ही कहूँगी कि आपको जो मार्ग मिला है,वह दृष्टा बनने का मार्ग है!!उसीपर आपको जागते रहना होगा!!
#न_हू_जिणे_अज्ज_दिस्सई_बहुमये_दिस्सई_मग्गदेसिये।
#संपइ_नेयाउये_पहे_समयं_गोमय_मा_पमायए   ।।

अतः मोहनिश तो किसी की कभी न कभी बीत सकती है किंतु ज्ञान रूपी सूर्योदय की बात!!
इस कमरे से मुक्त होकर खुले आकाश को देखने की बात अभी अधूरी ही है!!
हे प्रिय तथा मेरी प्यारी सखियों!!अब एकादस-सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ!एकादस-सूत्र"अर्थात #उपशान्तमोह
मोह का दमन पर केवल्य ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना।
यह मुनिराज की वह स्थिति है!!

जब आप ज्ञान कै पात्र तो कदाचित् बन जाते हैं!!
किंतु प्रिय!! पात्रता अत्यूत ही दुर्लभ परिस्थितियोंमें आती है!! #न्यायाऽन्याय_सत्याऽसत्य का विवेक अत्यंत ही दुर्लभ है!!इस हेतु एक छोटा सा उदारहण रखती हूँ- #शेर आदि हिंसक पशुवों को मार देना चाहिये!क्यों कि वे हिंसा करते हैं!!

तो उन्हें मारने वाले भी तो"हिंसक"ही हुवे न!!तो उन्हे भी मार देना चाहिये ?
#क्या_इस_हिंसात्मक_प्रवाह_का_अंत_संभव_है ?
यही सूत्र जिन धर्म की आधार-शिला भी है!!

मैं जिन्हे भी मार देना चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिन पर शासन करना चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिनका शोषण करना चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिनसे घृणा करना भी चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिनसे विशय भोगना चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे दास बनाना चाहती हूँ,वह मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे तृप्त करना चाहती हूँ,वह भी मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे चाहती हूँ,वह भी मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे उपयुक्त बनाना चाहती हूँ,वह भी मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे ज्ञान देना चाहती हूँ,वह भी मैं ही हूँ!!
मैं जिन्हे पराया मानती हूँ,वह भी मैं ही हूँ!!

आदरणीय, कृष्ण प्रिया वृंद ,अब पुनः मैं आपकी सेवामें यही कहना चाहती हूँ कि--यही महावीर स्वामी जी का #द्वैताऽद्वैत वाद है!!महावीर स्वामीजी के विचार जितने द्वैत-वाद के समीप आप को दिखेंगे!!
उतने ही महावीर स्वामीजी के विचार आपको अद्वैत वाद के समीप भी दिखेंगे!!

महावीर स्वामीजी न द्वैत वादी हैं,और न ही वे अद्वैत वादी हैं!!महावीर स्वामीजी #अस्तित्ववादी हैं!!वे आत्माके स्वरूपको नकारते नहीं!! वे इसी लिये- परमात्माके स्वरूप को भी नकार सकते ही नहीं!!
क्योंकि वे जीव के स्वरूप,"उसके बंधन और मोक्ष" की परिभाषा के दृष्टा हैं,साक्षी हैं वे!!

जिन-सागर को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह समझती हूँ कि-----
#मोक्षमार्गस्य_नेतराम_भेतारं_कर्मभूभृतां !
#ज्ञातारं_विश्वतत्त्वानां_वन्दे_तद्गुणलब्द्धये !!

एक बात कहती हूँ मैं आपसे प्रिय! #देखता_कौन_है?
आँखें!! लेकिन क्या आँखें अंधकार में मैं देख सकती हैं ?
नहीं!! प्रकाश और आँखें दोनों मिलकर देखती हैं!!
किंतु यदि मैं #अन्मयस्क होऊँ तो ?

तो नहीं देख पाती!अर्थात"आँखें प्रकाश और मन"ये तीनों ही मिलकर देखते हैं!! एक छोटा सा बालक जानकर भी आगमें हाथ क्यूँ जला बैठता है ? क्यूँ कि उसमें अभी बुद्धि का विकास नहीं हुवा है!!
अर्थात"आँखें प्रकाश और मन और बुद्धि"ये चारो ही मिलकर देखते हैं!!

किंतु मैं बुद्धिजीवियों को भी मद्यपान,माँसाहार"जुवा इत्यादि खेलते हुवे क्यों देखती हूँ ?
मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि----
आँखें प्रकाश मन और बुद्धि के साथ ही इनपर "आत्म बोधके अस्तित्व"का वरद हस्त होना प्रथम आवस्यकता होती है!!

हे प्रिय!!व्यक्तित्व के होने का अर्थ होता है- #कुछ_होना और अस्तित्व के होने का अर्थ होता है #होना" जहाँ व्यक्तित्व का अधिकार अस्तित्व पर होता है वहीं "जीवत्व "होता है!!और जब  व्यक्तित्व पर अस्तित्व का अधिकार होता है वहीं पर शिवत्व होता है!!
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे "एकादस- सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,,  एकादस-सूत्र"अर्थात,
#उपशान्तमोह:"

मोह का दमन पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति का नहीं होना।मैं यहाँ पर अपने पिछले निबंध से ही चर्चा को प्रारंभ करती हूँ--मैं आपसे "व्यक्तित्व और अस्तित्व" पर विचार विमर्श कर रही थी!!
(३)=मैं विचार करती हूँ कि"सोना अच्छा है या जागना"!!"जीवों का आलसी होनाअच्छा है या क्रियाशील होना अच्छा है"!!"जीवों का सबल होना अच्छा है या दुर्बल होना अच्छा है!!

तो इसी संदर्भ में भागवद् जी•२०•३०• में कहते भी हैं कि-
#अन्तर्हिते_भगवति_सहसैव_व्रजाङ्गना:।
#अतप्यंस्तमचक्षाणा_करिण्य_इवयूथपम्।।

हे प्रिय!!"कुछ व्यक्तित्वों का सोना ही अच्छा है!!
और महापुरुषों का जागना अच्छा है!!"अधार्मिक और वितंडावादियों का सोना ही अच्छा है,अन्यथा वे जागकर दूसरे जागने वालों को भी सुला देते हैं!!किंतु "धार्मिक और ज्ञानी जनों का जागना ही अच्छा है,क्यों कि वह जागकर दूसरोंको भी जगा देते हैं!!

(४)= जीवों का आलसी होना अच्छा है या क्रियाशील होना अच्छा है!!कुछ लोगों का आलसी होना ही अच्छा है और महापुरुषों का क्रियाशील होना अच्छा है"!!

"अधार्मिकऔर असंयमी लोगों का आलसी होना ही अच्छा है,अन्यथा वह दूसरों का अहित ही करते हैं!!
"धार्मिक और ज्ञानी जनों का क्रियाशील होना ही अच्छा है,क्यों कि" वह अन्य जीवों का आलस्य दूर कर उनका परमार्थ साधन करते हैं!!

(५)= हेआदरणीय, कृष्ण प्रिय वृंद ,अब पुनः मैं आपकी सेवामें यही कहना चाहती हूँ कि, कुछ व्यक्तित्वों का दुर्बल होना ही अच्छा है!और महा पुरुषों का सबल होना हीअच्छा है!! क्यों कि अधार्मिक और हिंसक प्रवृत्ति के लोग अगर दुर्बल होंगे!!तो दूसरों को दुःख नहीं दे पायेंगे!!और धार्मिक तथा महापुरुष यदि सबल होंगे तो वे अन्य व्यक्तिओं का अपनी धर्मयुक्त आजीविका से हित ही करेंगे!!

जिन-सागर को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह सोचती हूँ कि-
(६)="लोक" श्रांत है या अनंन्त हैं!!तो प्यारी सखी!! संख्याकी दृष्टि से यह लोक एक ही है!"श्रांत"है!!
किंतु अनंत आकाशमें फैली हुयी मेरे प्रियतमजी की महा चक्रवर्तिणि सत्ता अनंत क्षेत्र,रंग,वर्ण,संज्ञा,रस, और गंधादि रूपों से अनेक लोकों-परलोकों से व्याप्त है!! लोक थे,हैं और रहेंगे भी!!अतः अनंत हैं!!

मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि-इस प्रकार,की अभिव्यक्ति में,विचारों में अविवेकी पुरुष अविरोध में भी विरोध ही देखते हैं!!अतः वे "चर्म-चक्षु" हैं!!

और जो महापुरुष इसी संदर्भ में गीता जी के अनुसार भी विरोध में भी अविरोध को देखते हैं,वे"प्रज्ञा-चक्षु" हैं!दिव्य चक्षु हैं!!महापुरुष अनंत चक्षु शील होते हैं!!
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे "एकादस- सूत्र"पर ही मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ,, एकादस-सूत्र"अर्थात,
"उपशान्तमोह"मोह का दमन पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति न होना।

मैं यहाँ पर पुनःअपने पिछले निबंध से ही चर्चा को प्रारंभ करती हूँ- व्यक्तित्व और अस्तित्व दोनों पृथक भी हैं, और दोनोंमें तादात्म्य ऐक्यता भी है!!
इसे मैं आपके साथ समझने का प्रयास करती हूँ!!
#एगो_मे_सस्सदो_अप्पा_णाणदंसणलक्खयो।
#सेसा_मे_बाहिरा_भावा_सव्वे_संजोगलक्खणा।।

मै जब कभी दधि से माखन बिलोती हूँ!!जो कि मेरे प्रियतमजी को अत्यंत ही प्रिय है!!तो मैं देखती हूँ कि एक प्रक्रिया निरंतर होती है!!मेरा दायाँ हांथ आगे आता है-और बायाँ हांथ पीछे चला जाता है!!तो दधि का ठोस तत्व नीचे चला जाता है!!और पुनः मेरा बायाँ हांथ आगे आता है-और दायाँ हांथ पीछे चला जाता है!!तो दधि का तरल तत्व उपर आ जाता है!!
यह प्रक्रिया सतत् होती रहती है!!

और अंततः मैं जब देखती हूँ कि"तरल और ठोस तत्व"एक सार हो गये हैं!!तो मैं उसमें"अलग-अलग" किंतु एक साथ"गर्म  और शीतल"जल मिला देती हूँ!!
तभी तो "नवनीत" की प्राप्ति होती है न!!

जिस प्रकार दधि में ठोस और तरल तत्व दोनों ही हैं!!
उसी प्रकार प्रकार माखन में भी ठोस और तरल तत्व दोनों ही हैं!!यही"व्यक्तित्व-और अस्तित्व हैं!!

हे आदरणीय, मैं सागर के पास जाकर देखती हूँ!!तो उत्ताल तरंड़्गों से व्याप्त,ऊँची ऊँची लहरों में हिलोरें मारता! महा-अशांति का "महासागर"दिख पड़ता है!!और वही सागर"कितना शांत और निर्मल" भी होता है!!बिल्कुल किसी "समाधिस्थ- महायोगी"की तरह!!मेरे कहने का तात्पर्य यह है प्रिय कि--

(१)=साधना वन में हो सकती है,अथवा जंगलों में!!
साधना गृहस्थ में हो सकती है,अथवा सन्यास में!!
तो मैं समझती हूँ कि दोनों ही स्थानों में हो सकती है!!
और मैं समझती हूँ कि दोनों ही स्थानों में नहीं भी हो सकती है!!

मैं यह समझती हूँ कि- जो व्यक्ति"व्यक्तित्व और अस्तित्व" के भेद को जानता है!!जिनकी चैतन्यता जड़ तत्व को अपने अधीन कर सकती है!!ऐसे महात्मा पुरुष जंगल में रहें अथवा गृहस्थाश्रम में!!उनके लिये दोनों ही समान है!!

और जो व्यक्ति"व्यक्तित्व और अस्तित्व"के भेद को नहीं जानता है!!जिसकी चैतन्यता पर जड़ तत्व अपना अधीकार कर लेता है!!ऐसे व्यक्ति  जंगलमें रहें अथवा गृहस्थाश्रममें !!उनके लिये दोनों ही समान है!!वे न ही सदगृहस्थ ही हो सकते हैं!!और न ही "संन्यासी"ही!!

ऐसे ही लोगों के विशय में,महापुरुषों नें कहा है कि-
#आहारनिद्राभय_मैथुनानि_सामान्यमेतत्_पशुभिर्नराणाम्_ज्ञानं_नराणामधिकों_विशेषो_ज्ञानेन_हीनाः #पशुभिः #समानाः।।

(३)=मैं यह भी सोच सकती हूँ कि मैं"द्वैत" हूँ या "अद्वैत"!!तो प्रिय!!मैं द्वैत भी हूँ और अद्वैत भी!!
#अदृश्यो_यदि_दृश्यो_न_भक्तेनापि_मयाप्रभो।
#स्याद्वादस्ते_कथं_तर्हि_भावी_मे_ह्रदयड़्गमः।।(जिन वंदना)

क्यों कि सखियों!! मैं"चैतन्य"हूँ!अतः एक ही हूँ!!
और क्योंकि मैं ज्ञानादि से समझती हूँ,अतः"द्वैत"हूँ!!
क्यों कि जो कल था,वह आज नहीं है!और जो आज है,वह कल नहीं होगा!!अतः मैं"गतिशील"हूँ!अनित्या हूँ!!और प्रिय !!इस "काल"की अपेक्षा मैं"अजर- अमर,चित्-स्वरूपा हूँ!!अतः मैं "शास्वत"हूँ!!
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे"द्वादस-सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ, "द्वादस-सूत्र"अर्थात-#क्षीण मोह (भ्रमों का विनाश)।।सभी कषायों,कड़ुवाहटों और मोहों का क्षय!!यह आप जैसे मुनिराजों की वह स्थिति है,जिसमें आप-
#नष्टो_मोहो_स्मृतिर्लब्ध्वा_त्वद्प्रसादात्मयाऽच्युतः"
कहने की "मुनि" स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं!!
मैं आपको यह भी तो कहना चाहूँगी कि यहाँ पर "क्षीण-मोह"जैसे विशद् अर्थऽयात्म्क शब्द का प्रयोग किया गया है!!

मोहका"क्षीण हो जाना"अर्थात परिवर्तित हो जाना!!
क्षय हो जाना!!जो संसारमें अनुरक्त था,वह मेरे प्रियतमजी के श्री चरणोंमें अनुरक्त हो जाये!!अरी सखियो!!यह "अनुरक्ति और विरक्ति"भी अत्यंत ही विचित्र अनुभूतियाँ हैं!!मैं अनुरक्ति के नेत्रोंसे यदि सृष्टिके सम्पूर्ण भूतों और पदार्थों में मात्र "गुण"ही देखूँ!!

और उनके दोषोंको,उनके अवगुणों को "विरक्ति" की आँखोंसे देखने का प्रयास करूँ!!तब भीआप एक श्रेष्ठ-साधक मात्र ही माने जायेंगे!!हे आदरणीय, #साधना अनुराग और वितराग के भेदसे #अतीत होनी चाहिये!!

उसे आचार्य"हरिभद्रजी"अष्टक-प्रकरणम् में मोक्षाष्ष्टकम्(८) में कहते भी हैं कि मोक्ष साम्प्रत है!!
#परमानन्दरूपं_तद्गीयतेऽन्यैर्विचक्षणैः।
#इत्थं_सकलकल्याणरूपत्वात्साम्प्रतं_ह्रदः।।

और मैं आपको एक बात और भी स्पष्ट कर दूँ कि #साम्प्रत"का विशेष-गूढार्थ भी मैं समझना चाहती हूँ!"साम्प्र+इति"जिसे समझते ही सभी "साम्प्रदायिक -दृष्टिकोणों"का अंत स्वयमेव ही हो जाये!!वही तो #साम्प्रत होगा!!उसी का मोह तो क्षीण होगा!!

"साधक"मध्यस्थ जब तक नहीं होंगे तब तक साधना सम्भव ही नही है!!हे प्रिय!! बातों से "नाहर-सिंह" नहीं मारे जाते!!"भक्ति-ज्ञान-योग"मैं चाहे किसी भी मार्ग का आश्रय लूँ-- मुझे #साधना तो करनी ही होगी!!!

#संवेद्यं_योगिनामेतदन्येषां_श्रुतिगोचरः।
#उपमाऽभावतो_व्यक्तमभिधातुं_न_शक्यते।।
बिना साधना और मोहों के परिवर्तन से सिद्धी संभव ही नहीं है!!मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि-

"मुनी"की #मनस्विता अनुरक्ति और विरक्ति दोनों से ही अतीत हो जाती है!!वे उस अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं"जिसमें सतत् जागरण"ही शेष रहेता है!!

न ही कोई प्रिय नही अप्रिय!
न ही कोई बंधन न ही मोक्ष!!
न ही कोई शत्रु न ही कोई मित्र!!
अरी सखियों!!"मुनी"का जाग्रित रहना ही उनका संयम है!!"मुनी"का जाग्रित रहना ही उनकी साधना है!!"मुनी"का जाग्रित रहना ही उनका ध्यान है!!और यही है- "क्षीण मोह (भ्रम का विनाश)।।सभी कषाय और मोहों का क्षय।

#सयोगकेवली (योग के साथ कैवल्य ज्ञान) इस गुणस्थान में आत्मा की स्वाभाविक गुण- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त आत्मशक्ति प्रकट हो जाती हैं।

"स" अर्थात् "साथ" और योग अर्थात  मन, वाणी और शरीर की गतिविधीयाँ।  कैवल्य शब्द का प्रयोग सर्वज्ञ जीवों (अरिहन्त) के लिए किया गया है जिन्होंने सभी आत्मघातक कर्मों का विनाश कर दिया हो और कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति कर ली हो।

हे प्रिय!! #अप्प_दीपो_भव "स+योग कैवल्य"जब योग के साथ-मैं सतत् युक्ता रहती हूँ!!एक छण मात्र को भी मैं विचलित नहीं होती!!सतत् योग रूपी दीप जलता रहता है,मैं सतत् और निरंतर निज-स्वरूपमें स्थित रहती हूँ!!

मैं इसे समझने हेतु आपके समक्ष एक दृष्टांत रखती हूँ-"अग्नि"जल से बुझ जाती है-अतः जल अग्निका विरोधी तत्व है!!
इनमें प्राकृतिक वैर है-यदि मुझे ठंड लग रही होती है तो "ताप"मेरी ठंड को मिटा देता है!!
ये दोनों ही पदार्थ हैं , किंतु एक दूसरे के विरोधी!!
लेकिन एक बात अभी और है!!

जितनी अग्नि घी को पिघला सकती है,उतनी ही अग्नि लोहे को नहीं पिघला सकती!!यह बात भी सत्य है!!
अर्थात जितनी "अग्नि" घी के लिये उष्ण है!!
उतनी ही अग्नि"लोहे"के लिये शीतल भी है!!
इस प्रकार समस्या का समाधान ढूँढना!!
समन्वय का मार्ग ढूँढना ही"सयोग कैवल्य"है!!

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