Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी~१०

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी

हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-" अर्थात जो अभिमान रहिता पार्वती की कला रूप कदम्बमञ्जरी के मकरन्द-स्रोत की बढती हुयी माधुरी के पान करने वाले मधुप हैं!!और साथ ही कामदेव, त्रिपुर,भव,दक्ष यज्ञ,गज,अन्धकासुर और यम का भी अन्त करने वाले हैं-मैं उन्हे भजती हूँ ॥

मंत्र में कहते हैं-"अगर्वसर्वमंगला" जो निराभिमानिनी पार्वती का मंगल करते हैं!!तथा उसी के द्वारा अपना भी मंगल करते हैं!! मैं आपको एक बात कहूँगी!!आचार्य श्रीविद्यावाचस्पति मिश्रजी कहते हैं कि-

#खेदात_स्त्रीषु_प्रवृत्तिर्भवति_समानञ्च_खेदापगमोगम्यायां_चागम्यायां_च_तत्र_शाष्त्रेण_एष_नियमः
#क्रियते_इयं_गम्या_इयमगम्येति॥

वस्तुतः वासना से ही स्त्री-पुरूषों में परस्पर प्रवृत्ति होति है!!और ये भी सत्य है कि "गम्या-अगम्या" दोनों प्रकारके पात्रों से भी राग की शान्ति है!!तो इसे शास्त्रादि निर्धारित कर देते हैं कि कौन गम्य है और कौन अगम्या!!

और हे प्रिय!!गम्या स्त्री वही हैं जो कि निराभिमानी हों!!अन्यथा तो अपने स्वयम् के पती अथवा पत्नी भी अगम्य ही हैं!!आखिर लोगों ने सन्यास लिया क्यूँ ?
संत्रास ही सन्यास का कारण हुवा न!! ज्ञान अथवा विज्ञानों की प्राप्ति जिन्हे गृहस्थ में नहीं हुयी उन्हे वन में भी नहीं होगी!!

आज का समाज हो अथवा सतयुग का!!समाज तो समाज ही होता है न!!हम आप दाम्पत्य सूत्र से बंधकर भी मानो छिन्न-भिन्न से हैं!!और इसके मूल में दोष हम स्त्रीयों का ही ज्यादा है!!हाँ प्रियजी!!स्त्री का निराभिमान तथा पूर्ण आत्म-समर्पण ही धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष में हेतु है!!

और फिर कुलीन अर्थात कुलाचारण हेतु तो पार्वती का अपर्णा में रूपांतरण होना ही शिव-प्राप्ति में मुख्य कारक है!!और इसी कारण भगवान वेदव्यासजी कहते हैं कि-
#ये_च_वेदविदो_विप्रो_ये_चाध्यात्मविदो_जनाः।
#आहुस्ते_च_महात्मानां_कृष्णं_धर्मं_सनातनम्॥

हम स्त्रीयों को सजना-सँवरना,अपनी कोमलता तथा सुंदरता को सतत निखारना नैसर्गिक है!!और इसका कारण क्या है!!आखिर हममें ये स्वाभाविक प्रवृत्ति जो है!!वो यही कहती है कि मैं आपके लिये सजती हूँ!! और फिर यदि मैं आपके लिये ही सजती हूँ तो फिर भला आपके समक्ष मुझमें अभिमान क्यूँ ?

हे प्रिय!!कुलाचार्यों की अर्थात शिव की विशेषता है कि वे पार्वती को,भैरवी को पूर्ण समर्पिता बना ही देते हैं!!ये गुण पुरूष का आभूषण है!!और जिनमें ये गुण न हो!!जो हम स्त्रीयों को मोहित न कर सकें!!वे एक गृहस्थ तो बन नहीं सकते!!भला योगी कैसे बनेंगे ?

स्त्री हो या भैरवी!!उसकी बस एक ही ईच्छा होती है!! कि वो आपको चाहना चाहती है!!हाँ हमें इसीलिये तो विधाता ने गढा ही है!!किन्तु आप उसे अपने आप को चाहने की प्रेरणा दोगे कैसे ?
तंत्रात्मकीय जितने भी गृंथ आप देखोगे!!तो यही "देखोगे कि रति-काल में भी ज्ञानमय संवाद"

हाँ प्रिय!!शिव शिवाकी पूजा करते हैं,कृष्ण की आराध्या हैं राधिका!!और जबतक काम का रूपांतरण आराधना में नहीं हो जाता!!तबतक कोई सामान्य सी वेश्या भी भले अपने शरीर को चंद रुपयों के लिये किसी को सौंप दे!!किन्तु वो समर्पण नहीं करती!!

आश्चर्य इस बात का है कि कुलाचार्य प्रथम भैरवी को अपर्णा बनाते हैं!!वो अंतःकरण से अपनी माधुरी का उन्हे पान कराने हेतु बाध्य हो जाती हैं!!कितना धैर्य होगा न इन आचार्यों में!!हे प्रिय!! कोई अक्षत-कन्या, सर्वाड़्गीण सुन्दरी,पद्मिनी,सुगंधा और कुमारिका!! क्या सहज ही अपना शरीर स्वेच्छा से किसी को समर्पित कर देगी ?

और कामिनी की तो एक विशेषता है ही!! उसके सानिध्य में महान तपस्वियों की साधना धरी की धरी रह जाती है,और वो प्रणय-निवेदन करने लगते हैं!!जबकि होना चाहिये बिल्कुल इसके विपरीत!! प्रणय निवेदन तो राधिका,शिवा,गोपियाँ और भैरवी करती हैं!!ये तो कृष्ण,शिव और कुलाचार्य का आकर्षित करने वाला वो व्यक्तित्व है!!उनकी ऐसी लीला है कि राधिका कहती हैं कि हे प्रिय!!अब तो मुझे अपना बना लो आप!!इसे ही दशानन ने- "अगर्वसर्वमंगला"कहा है!!

अर्थात यह निश्चित है कि स्वयं मानसिक रूप से पूर्ण रूपेण संयमित रहते हुवे भी कृष्ण,शिव अथवा कुलाचार्य भैरवीकी वीणा को इतना झंकृत कर देते हैं कि वे उनकी बाँहों में सिमट जाती हैं!!

हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-"
"कलाकदम्बमंजरी" यह स्मरण रखें कि-कुलाचार्य के महानतम पथ-प्रदष्टा भगवान दत्तात्रेयजी अवधूत गीता में कहते हैं कि-
#त्रैलोक्यजननी_धात्री_सा_भगी_नरकं_ध्रुवम् ।
#तस्यां_जातो_रतस्तत्र_हा_हा_संसारसंस्थिताः ।।
#जानामि_नरकं_नारी_ध्रुवं_जानामि_बन्धनम् ।
#यस्यां_जातो_रतस्तत्र_पुनस्तत्रैव_धावति ।।
#भगादि_कुचपर्यन्तं_संविद्धि_नरकार्णवम् ।
#ये_रमन्ति_पुनस्तत्र_तरन्ति_नरकं_कथम् ।।

हे प्रिय!!उपरोक्त दत्तात्रेय जी के वचनों का अक्षरशः पालन करने वाले पुरूष ही इस " कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी"के तत्वार्थ को समझने में समर्थ हो सकते हैं!!जैसे कि मेरे प्रियतमजी कान्हा ने जब देखा कि उनकी गोपियाँ अर्थात इन्द्रियाँ वासनाके सागर में नग्न-स्नान कर रही हैं!!

तो वे उनके वस्त्र अर्थात प्राणोंको लेकर "कदम्ब"पर बैठकर बंशी की धुन में खो गये!!गोपियाँ कहती हैं कि-
કૌણ ચઢ્યો કદમ્બકી ડાર એઠાં ઉતરો ન.
એઠાં ઉતરો ઓ નન્દજી ના લાલ રે એઠા ઉતરો ન.

पूर्ण समर्पिता भैरवी की काम-कलाओं को निरपेक्ष रूप से जागृत करने के उपरान्त ही चक्रचारिता की अद्भुत साधना प्रारम्भ होती है!!कोई पूर्ण काम-विमोहिता भैरवी जब शिव के अंक में लिपट जाती हैं!! किसी लता की तरह वो उन सशक्त वृक्ष से आश्रय की कामना करती हैं!!ये उनका एक पक्षीय प्रणय-निवेदन होना ही कुलाचारण का प्रथम सोपान है!!

और ऐसी स्थिति में ही आचार्य उसके प्रणय निवेदन को स्वीकार करते हैं!!और वो भी भोग हेतु नहीं करते!!बल्कि योग हेतु करते हैं!!भैरवी के विशेषांग में स्थित "रस-प्रवाह" जैसे कि कोई कली जब चटक कर फूल बनती है!!अपनी अनुपम सुगंधों को बिखेरने हेतु व्यग्र हो जाती है!!मैं आपसे एक बात कहूँ!! मंजरी पवित्र "तुलसीजी"के फल को कहते हैं!!तुलसी भक्ति की प्रतीक है!!

और भैरवी जब भक्ति-भाव से अपने देवता को मंजरी अर्पित करती हैं!!वे अपने कौमार्य को अपने ईष्ट पर न्योछावर कर देती हैं!! ऋग्वेद में कहते हैं कि-
#यथा_सुवासा_जाया_पत्ये_कामयमाना_स्वात्मानं_विवृणुते॥
हे प्रिय!!स्वक्ष वस्त्रावृता ऋतुमति भैरवी अपने आपको शिवके प्रति स्वयम् ही विवृता कर देती हैं!!

किन्तु फिर भी!! विचित्र होते हैं #शिव!! हे प्रिय!! अंतःशारीरिक तंत्रिकानुसार स्त्री और पुरूषों में "विजृंभणा"अर्थात #जम्हाई आने के काम-क्रीडान्तर्गत बिल्कुल ही विपरीत कारण होते हैं!!स्त्रीयों को पुरूषके संग शय्या पर जम्हाई आने का अर्थ है मूक-आमन्त्रण!! और पुरूष को प्रिया के संग जम्हाई आने का अर्थ है #विरक्ति!!

और ऐसी विरक्ति जब प्रिया कामभाव से पूर्णतः पीडित है!! और फिर भी पुरूष जम्हाई ले रहे हैं" मधुव्रतम्"अर्थात वे मधु-व्रती हो चुके हैं!! वैसे चर्चान्तर्गत मैं आपको कुछ विशिष्ट बातें बताना चाहूंगी!!जो कि कुलाचार की प्रथमिक आधार-शिला हैं!!और वो भी नवीन साधनेच्छुक पुरूषों हेतु!!

जिस दिन स्त्री ऋतुमति होती हैं!!उस दिन पंचाड़्गानुसार कोई भी तिथि हो किन्तु तंत्राचार्य उसी दिन को साधनान्तर्गत #कृष्णपक्ष_की_प्रतिपदा मानते हैं!!और पद्मिनी भैरवी •१•२•४•५• इन तिथियों में तथा मध्यान्ह तथा मध्य-रात्रि अर्थात रात्रि के चतूर्थ प्रहर में  शिघ्रातिशिघ्र तथा बारम्बार भावको प्राप्त होती हैं!!

तथा हे प्रिय!!प्रतिपदा को स्त्री के बाँये अंग के पाँवके अंगूठे,द्वितिया में पाँव,चतूर्थी में जघन-स्थलि तथा पंचमी में श्रीमंदिर में कामदेव का निवास होता है!! तथा इन्ही तिथियों में स्त्रीयों के दाहिने अंग में भी प्रतिपदा से लेकर अन्यान्य तिथियों में वासना शिघ्र ही जागृत होती है!!

इसी कारण कहते हैं कि-सांसारिक दम्पति हों अथवा कुलाचारी साधक उन्हे इन वैज्ञानिकीय तिथियों का ज्ञान आवश्यक है!! और जैसा कि मैं कह चुकी हूँ कि प्राचीनकाल से ही ऋषि-समुदाय इस तथ्यको जानते थे!!जिसके कारण हमारी आपकी संस्कृति कामकलाओं में भी निष्णात होकर एक पूर्ण तथा स्वस्थ जीवन यापन करते थे!!

और ये तो नितान्त सत्य है कि #मधुवातोऋताऽयते जिन्होंने मधुपान नहीं किया!!जिन्होंने कामिनी की कामनाओं रूपी मधु का आस्वादन अंतर्जगत में नहीं किया!! बल्कि उस अद्वितीय मधु को पचा लिया!!जो वासना-विलासातुरा भैरवी की ऊर्जा के द्वारा मात्र अपना ही नहीं बल्की उसका भी कल्याण करते हैं!!

हे प्रिय!!सकारात्मक और नकारात्मक इन दोनों ध्रुवों के मध्य जो रुक गये!!जिन्होंने #धृत_को_मधु_मिश्रित होते देख लिया!! जो वासना के दृष्टा हो गये!! उन शिव को ही दशानन ने "मधुव्रतम" कहा है!!
हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-" स्मरांतकं " शिव की विशेषता है,कि वे काम-स्मरण मात्र से अतीत हैं!!उनमें वासना है ही नहीं!!क्यों कि वे-" मधुव्रतम्" हैं जैसे कोई भौंरा पुष्पों से मकरन्द लेता तो है!! किन्तु व्रत के लिये लेता है!!उसे मधु की मधुरता प्रिय नहीं है!!उसे तो मधु की सुपाच्य-ग्राह्यता प्रिय है!!

ये एक अनोखा सम्बन्ध है न!!दो विपरीत ध्रुव!!भैरवी की अतिशय कामुकता तथा शिव की बिलकुल उपेक्षा किन्तु उनकी उपेक्षा में भी एक विचित्र सी गंभीरता है!!वे शिवा के सहयोग से " पुरातकं" अपने त्रिपुरों,त्रिगुणों का विनाश कर देना चाहते हैं!!या यूँ कह लें कि वे उनका विनाश कर ही चुके हैं!!
#क्षोणी_यस्य_रथो_रथाङ्गयुगलं_चन्द्रार्कबिम्बद्वयं
_कोदण्ड: #कानकाचलो_हरिरभूद्वाणो_विधि:_सारथि:।
#तूणीरो_जलधि_र्हया: #श्रुतिचयो_मौर्वी_भुजङ्गधिप:
#तस्मिन्_मे_हृदयं_सुखेन_रमतां_साम्बे_परब्रह्माणि।।

हे प्रिय!!वो पर त्रिपुरा सुर का वध करते है!!
और सखियों "तारकासुर"के तीन पुत्र हैं-- #तारकाक्ष_कमलाक्ष_और_विद्युन्मालि!!
इनकी तीन पुरियाँ भी हैं!!जो इन्हे ब्रम्हा ने ही बना कर दी हैं!!स्वर्ण-पुरी-अर्थात स्थूल-देह!!सभी भोगों का प्रत्यक्ष अनुभव कराने वाली नगरी!!आपका यह शरीर!! इसका स्वामी "तारकाक्ष"है!!जब आप इसे तरने का साधन समझेंगे तो!!

और दूसरी नगरी है-रजत-पुरी!!अर्थात स्वप्न पुरी!! सूक्ष्म शरीर!!सभी पूर्व-जन्मों के,संस्कार और वासनाओं की साक्षी!!इसका स्वामी #कमलाक्ष"है!! अष्ट गुण-अवगुणों का अधिष्ठाता!!आपका अंतःमन!!अति सूक्ष्म-मन!!

और प्रियजी!!तीसरी नगरी #लौह_पुरी"कारण देह!!
निद्रावस्था!!प्रगाढ निद्रा!!जागृत-स्वप्न से दूर!! विद्युन्माली की नगरी!!विद्युत के समान आने-जाने वाली!! फौलाद की तरह मजबूत!!सबसे सुदृढ बंधन!!

ये तीनों ही जब एक साथ!!और #अभिजित्_नक्षत्र में!! अभी......जीतो!!अन्यथा देर हो जायेगी!!
अभि+जित्=अगर जीती जा सके तो अभी इसी मानव अवतार से संभव है यह प्रिय !!अन्यथा नहीं होगा। अब कहते हैं कि जब ये तीनों ही लोक ,शरीर,तीनों का ही "संधान"एक साथ करना हो!!और मात्र एक पल में बेधन करना हो तो-------

#रथः #क्षोणी_यन्ता_शतधृतिरगेन्द्रो_धनुरथो ।
#रथाङ्गे_चन्द्रार्कौ_रथ_चरण_पाणिः #शर_इति ।।
#दिधक्षोस्ते_कोऽयं_त्रिपुरतृणमाडम्बर_विधिः ।
#विधेयैः #क्रीडन्त्यो_न_खलु_परतन्त्राः #प्रभुधियः।।

"शिव"ही योगी हैं!!योगी ही"सत्यम्-शिवम्-सुंदरम" का प्राप्य कर्ता पात्र हो सकता है!!वही इस त्रिपुरासुर का संहार करने में सक्षम भी हैं!!
शिव पुराण में कहते हैं कि-- शंकर जी ने पृथ्वी को अपना रथ बनाया!!अर्थात भैरवी ही रथ है!!आपका आसन ही रथ है!!

आपने अपनी स्वाँसों को!!सूर्य और चन्द्रमा को रथ के पहिए बनाए,!!प्राण और अपान वायु ही पहिये हैं!!
सुमेरु पहाड़ को धनुष बनाया!!आदेश चक्र ही सुमेर है!! और भगवान् विष्णु को बाण बना दिया,!!नाद ही विष्णु हैं!!

ब्रह्मा जिनके रथ को चलाने वाले सारथि बने!! और हे प्रिय!! ब्रम्हा!!अर्थात मैं!!आपकी भैरवी!!आपकी नकारात्मक उर्जा!!मैं चैतन्यमयी उर्जा ही योगि-रथ की सारथी हूँ !!

समुद्र जिनका तूणीर!!अर्थात भैरवी का अंतर-मंथन ही योगिराज का तरकस है!!वेद वाहन घोड़े बने!! शास्त्रानुकूल आचरण ही आप योगीजनों के योग-रथ की अश्व-शक्ती  है!!

सर्पराज बासुकि को अर्थात उनके वज्र को जिन्होने धनुष की डोरी बनाया!! और सूरता जिनके धनुष की प्रत्ञ्चा है!! ऐसे विस्मयकारी!!अलौकिक रथ पर आरूढ होकर!!और जिस सम्पूर्ण रथ के आधार स्वय मेरे प्रियतम जी हैं!!मेरा धर्म है!!वृषभ है!!उस रथ से"हास्य"करते हुवे एक पल में शिव अपनी शिवा के
द्वारा!!अपनी भैरवी के द्वारा!!अपनी स्वाँसों के द्वारा!! त्रिपुरासुर" स्थूल सूक्ष्म और कारण इन तीनों ही देहों की आसक्ति को!! एक पल में नष्ट कर देते हैंहे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-"भवांतकं" इस भव का,अर्थात जीवन-मृत्यु रूपी ये जो निरन्तर
"मखांतकं" मख-अर्थात #मख यज्ञ को कहते हैं!!वैसे एक बात तो है ही कि सभी भवसागर से पार पाना चाहते हैं,और-
#भवसागर_तारण_कारण_हे_गुरूदेव_दया_करु_दीन_जने।

इस भवसागर से उस-पार!!त्रिलोकी के पार!!हाँ प्रिय!!शरीर से अशरीर की यात्रा तभी होगी,जब यज्ञोंका अंत हो जाये!!और ये यज्ञ श्रेष्ठ कर्म तो यज्ञ हैं ही किन्तु कामक्रोधलोभऔरमोहादि भावनायें भी यज्ञ ही हैं!!और मैं सच कहूँ तो सबसे बड़ा और अहर्निश होने वाला यज्ञ तो यही हैं!!

और हे प्रिय!!इसे कितने गूढ शब्दों में दशानन ने आगे की पंक्ति में कह भी दिया- "गजांतकांधकांतकं"ये #कंत किसे कहते हैं ?
और शिव कंत भावके अंत कर्ता हैं!!मैं आपको गोरखनाथजी का एक ह्रदयस्पर्शी शबद दिखाती हूँ-
#नदी_तीरे_बिरिखा_नारी_संगे_पुरखा,
          #अलप_जीवन_की_आसा ।
#मन_थैं_उपजी_मेर_खिसि_पडइ,
           #ताथैं_कंद_बिनासा ।।
#गोड_भये_डगमग_पेट_भया_ढीला,
            #सिर_बगुलाकी_पँखियाँ ।।
#अमी_महारस_बाघणि_सोख्या ।
#कंत_गयाँ_कूँ_कामिनि_झूरै_बिंद_गयाँ_कूँ_जोगी ।।

इस पद और इस पूरी पंक्ति का एक ही भाव है!! हे प्रियजी!! आनंदघन महासागर के इस पार!!भवसागर में!! #मैं_नारी अपनी सभी मोहिनी युगों-युगों से चली आ रही भोगेक्षणाओं के साथ एक नागिन जैसी अपने वासना सभर जीवन की आस आप से लगा बैठी हूँ !!और आपको ऐसा मोहित करती हूँ कि आप विषयों से व्याकुल हो जाते हो!!मैं सच कहती हूँ-
"ऐसा करम न कीजै ताथैं अमी महारस छीजै"

मैं एक ऐसी बाघिन हूँ जो आपके इस अमृत की भूखी हूँ!!मैं आपके अमृतमयी शुक्र को सोख लेती हूँ!!और "बिंद गयाँ कूँ जोगी" यदि आप वीर्यवान नहीं हो!!पराक्रमी नहीं हो!!संयमी नहीं हो!!तो न इस पद को समझ सकते हो और न ही इसका अनुसरण ही कर सकते हो!!मैं आपको सत्य कहती हूँ-कुलाचार्य वही है!!जिसने #भैरवी को मात्र साधन सामग्री माना!!

यदि कुलाचारी की दृष्टि में भैरवी उसकी भार्या है,प्रेयसी है,उसकी शारीरिक भूख मिटाने वाली है!! तो निःसंदेह वो भ्रष्ट आचार्य अंततः अपने आपको कलुषित ही करेगा!! मैं आपको एक सत्य घटना बताती हूँ!! घटना को नहीं बल्कि उसके मूल भाव से आप समझेंगे तो ज्यादा उचित होगा!!

एक सिद्धिदा भैरवी को मैं जानती हूँ,जिसे किशोरावऽस्था के आरम्भिक काल में ही एक महानतम श्रेष्ठ कुलामार्गीय साधनेच्छुक महात्माजी ने अपनी भैरवी के रूप में परिवर्तित कर दिया था!!और ६८ वर्षीय उन विलक्षण महापुरूष ने भैरवी के साथ साधनान्तर्गत एकान्त साहचर्य में!!

सतत् २७ दिवसों के साहचर्य में!!अनेकानेक बार कुल-साधना सम्पन्न की!!उनके कथानुसार सैकड़ों बार की!!किंतु महानतम आश्चर्य ये है कि वे एक बार भी द्रवित नहीं हुवे!!और अंततः ठिक सत्ताइसवें दिन उन्होने भैरवी के अंक में ही अपने देह का त्याग कर दिया!!

भैरवी की दृष्टि में तो वे उसके "कंत"अर्थात #पती बन ही चुके थे न ?
"कंत गयाँ कूँ कामिनि झूरै" और यही इस पंक्ति में कहते भी हैं कि-" गजांतकांधकांतकं"उन साक्षात गजेन्द्र पुरूष ने अपने जीवभाव का तिरोहन भैरवी द्वारा करते हुवे!!भैरवी के कंत भाव का भी तिरोहन कर दिया!!

हे प्रिय!!आप इस निबंध अंकको एक सामान्य लेख न समझें!!यह किसी कालजयी सिद्ध पुरूष की अंतिम यात्रा के किसी पड़ाव की कथा है!!जहाँ रखा वह शव अभी भी पुनर्जन्म पाकर पूनश्च #नीलधाराके_महाश्मशान में अपनी लाश के भैरवी द्वारा पहुंचाये जाने की प्रतिक्षा कर रहा है!!

"तमंतकांतकं"तो मैं एक बात यहाँ पर पुनश्च कहूँगी कि यदि आप कुलाचार्य के साधक हो!!बनना चाहते हो !!तो चलो अपने अंतिम महा-प्रयाण के लिये!! अपने इस शरीर रूपी घर से अंतिम बार निकलने की तैयारी करो!!कोई ना कोई भैरवी या आपकी अपनी स्वाँसें ही #महाभैरवी बनकर अपने अंधकार मय अस्तित्व से आपको मुक्त कर प्रकाशान्धकार के उस अंतिम बिंदु पर स्थापित कर ही देंगी- #यद्गत्वा_न_निवर्तन्ते।

इसी के साथ इस श्लोक की बाल प्रबोधिनी  पूर्ण करती हूँ !!  #सुतपा!!

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