Tuesday 11 September 2018

पितृसूक्त

पितृ-सूक्त मंत्र-५~२ अंक~११

        ।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में पञ्चम ऋचा में ११ वाँ अंक मैं प्रस्तुत करती हूँ-

#उपहूताः #पितरः #सोम्यासो_बहिर्ष्येषु_निधिषु_प्रियेषु।
#त_आ_गमन्तु_त_इह_श्रुवन्त्वधि_ब्रुवन्तुतेऽवन्त्वस्मान।।

ऋषि पुनश्च कहते हैं कि-पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियोंकी स्थापना के बाद हमने पितरों का आवाहन किया है,वे यहाँ आ जायें,हमारी प्रार्थना सुनें!!वे हमारी सुरक्षा करने के साथ ही हमारी संस्तुति देवों के समक्ष करें।।

हे प्रिय!!मैं समझती हूँ कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में अपने शुभचिंतकों की संस्तुति तथा अनुशंसा हमारे लिये आवश्यक होती है!!जब तक वे हमारे क्रिया- कलापों से स्वयं संतुष्ट न होंगे!!तबतक आपकी उन्नति होनी नहीं है!! और मैं जो कुछ भी सीखती,पढती और करती हूँ!!ये सब उनकी जूठन ही तो है!!

मैं जानती हूँ कि जिस जीवन रूपी नदी के इस पार मैं खड़ी हूँ-इसी नदी के उस पार कोई और भी जीवन मेरी प्रतीक्षा कर रहा है!! इसे मैं एक उदाहरण के द्वारा आपसे समझने का प्रयत्न करती हूँ!!जब मैं कक्षा दो में थी तो शायद मेरी प्रतिभा के कारण मेरे क्लास-टीचर ने मुझे कक्षा चार में प्रोन्नति करने की संस्तुति कर दी और मैं एक कक्षा की छलांग लगा कर २ से सीधे कक्षा चार में प्रवेश पा गयी!!

और कक्षा ५ में अपनी भूलों के कारण फेल हो गयी!! पुनश्च उसी क्लास में रह गयी!! तीन वर्ष लगा दिये उसी कक्षा में और फिर भी पास नहीं हो पायी!! और अंततः शिक्षा जगत से मेरा नाता ही टूट गया!!और भी एक बात कहना चाहूँगी!!मैं जानती हूँ कि मुझे बचपन में २ से लेकर २५ तक का पहाड़ा कंठस्थ था और अब शायद ७ का पहाड़ा भी भूल चुकी हूँ!!

कुछ ऐसा ही सिद्धांत पूनर्जन्मों का भी होता है!!अभी इस संदर्भ में एक और उदाहरण देना उचित समझती हूँ!! मैं मार्ग से जा रही हूँ!! मेरे पाँवों से कुचल कर एक चींटी मर जाती है!! इसमें मेरा दोष नहीं है!! उसकी मृत्यु इसी प्रकार विधाता ने निर्धारित की थी!! किन्तु किसी भी कारण से यदि मैं जान बूझकर उसे कुचल देती हूँ!!तो ये हत्या कही जायेगी!!

मेरी अज्ञानता से हुयी उसकी मृत्यु और मेरे द्वारा की गयी उसकी हत्या!! ये बिल्कुल अलग-अलग दृष्टिकोणों से विधि द्वारा न्यायित की जायेंगी!! किन्तु इन दोनों में दोष कम या ज्यादा तो होगा ही!!इसे पुनश्च आपसे समझती हूँ!!मैं एक दिन स्कूटी चला रही थी!!अचानक मेरी एक सहेली का फोन आ गया!! मैं उससे बात करती गयी और स्कूटी भी चलाती गयी!! और किसी को टक्कर मार दी!!

अब वो थोड़ा सा घायल हो गया!! मैं जान बूझकर टक्कर नहीं मारी थी!! किन्तु #सावधानी_हटी_दुर्घटना_घटी!! मेरा दोष तो था ही न!!तो मुझपर केस तो होगा ही!!अब जब केस होगा!!तो मैं वकील करूँगी!! और वो वकील मेरा पक्ष रखेगा!! वो न्यायाधीश जी को बतायेगा कि ये असावधानी से हुवा अपराध है!!तो न्यायाधीश भी मेरे इस अपराध की उचित सजा ही मुझे देंगे!!

हे प्रिय!!ये वकील ही तो मेरे पितर हैं!! वही तो देवताओं के समक्ष हमारे उचित-अनुचित व्यवहार तथा कर्मों की संस्तुति करते हैं!!प्रस्तुतिकरण करते हैं!! जैसे कि मेरे घर आप आते हो!! तो जैसा व्यवहार मैं आपके साथ करूँगी वैसा ही आप मेरे प्रति बाह्य समाज में संदेश भी दोगे!!

ऋचा में कहते हैं कि-"उपहूताः पितरः सोम्यासो बहिर्ष्येषु निधिषु प्रियेषु" अब पितरों को कैसा सोमरस प्रिय होगा ये भी तो मुझे ज्ञात होना चाहिये!!आप देखो तो!! यहाँ ऋषि ने सोमरस की तूलना #निधियों से की है!!निधि अर्थात #धन! आप यह स्मरण रखें कि जो मेरे उपयोग हेतु मैं व्यय करती हूँ वो धन नहीं है!!वो तो #भोग है!! धन का वास्तविक होना तो तभी सार्थक होता है जब वो दूसरों के लिये न्योछावर कर दिया जाय!!

#ऊँ_सहनावतौ_सहनौभुनक्तः #सह_वीर्यम्_करवावहे_तेजस्विनाम_धीतमऽस्तुः #माम्_विद्विशा_वहे।।
हे प्रिय!! हमारे पितरों को क्या प्रिय है!!येअत्यंत ही सामान्य तथा सारगर्भित ज्ञान है!!जैसे कि स्थूल शरीर का अन्न स्थूल होता है!! वैसे ही सूक्ष्म शरीर का अन्न भी सूक्ष्म ही होगा न!!और सूक्ष्म अन्न हैं क्या और ये कहाँ मिलते हैं ?

हे प्रिय!! जैसे कि आपका यह शरीर सामान्य उपलब्ध अन्न तथा द्रवों को खाता है!! और उन्हीं के अंशों से रस,रक्त, वीर्यादि का निर्माण करता है!!बिलकुल वैसे ही ये अन्न तथा द्रव पदार्थों में भी चैतन्यता होती है!!और उनकी चैतन्यता यह देखती है कि-

जैसे आप किसी स्त्री को,किसी अपने से निर्बल को!!किसी निर्धन और रोगी को,किसी बालक और वृद्ध के साथ आप जैसा व्यवहार करते हो!!उसका शोषण करते हो अथवा पोषण!!यह वह भली-भाँति जानता और समझता है!! भले ही उसमें आपका विरोध करने की क्षमता न हो!!अथवा धन्यवाद कहने की बुद्धि न हो!! किन्तु उसमें बसी आत्मा तो सर्वज्ञाता ही है न!!

बिल्कुल इसी प्रकार और आपके इसी बाजार में बिक रहे अन्न तथा द्रव भी हैं!! बस उन्हे लाकर पितरों को देने की, अतिथियों और असहायों को देने की भावना से ही उन अन्नों की भावना!!उन अन्नों की आत्मा जागृत हो जाती है!!और इस प्रकार की श्रद्धा से दिये नैवेद्य को वे पितर प्रसन्नता से नृत्य करते हुवे उसमें सुवासित प्रेम की सुगंध से तृप्त हो जाते हैं!!और वे आपकी संस्तुति देवों से करते हैं!!

इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की ६ वीं ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!..... #सुतपा!!

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