Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती


दुर्गा सप्तसती- सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~३ अंक~४

#अब_ये_एक_अलग_विषय_है_कि_हम_आपको_किस_दृष्टि_से_देखती_हैं!!

हे प्रिय!! अब पुनः मैं इस अप्रतिम स्तोत्र रत्न का यथा-शक्ति तत्वार्थ मेरे प्रियतम जी श्री रास-रासेश्वर कान्हा जी के युगल चरणों में निवेदित करने के प्रयासान्तरगत इस श्रृंखला का चतूर्थ पुष्प प्रस्तुत करती हूँ-
" पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
#कुञ्जिका_पाठ_मात्रेण_दुर्गा_पाठ_फलं_लभेत्‌।
#अति_गुह्यतमं_देवि_देवानामपि_दुर्लभम्।।
हे प्रिय!!अब मैं आपसे इस अंक में इसी श्लोक पर चर्चा करती हूँ!! ऋषि कहते हैं कि- "कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्"

इस कुञ्जिका का पाठ मात्र करने से आपको सम्पूर्ण दुर्गापाठ का फल मिल जायेगा!! किंतु ध्यान दें आप "पाठ" और वो भी #मात्र आपको करना है!!इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि और कुछ भी नहीं करना है!! "यह कुछ भी नहीं करना"!! यही तो सबसे मुश्किल काम है!!

अब लोग कहते हैं कि चलो दीपक जला लो,फूल,धूप अगरबत्ती जला लो!! मूर्ती,नारियल,कपड़े,प्रसाद सब रख लो!!और इस स्तोत्र का किसी तोते की तरह पाठ कर लो!! बस आपको "दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्" पूरा फल मिल जायेगा!!

हे प्रिय!!यही कर्मकाण्डात्मक लालच ही तो सबसे घातक होता है!!ये सब सामग्री आपको जिसने दी उसे आप भला क्या दोगे!! यह प्रकृति आपके इन पदार्थों की भूखी नहीं है!!आप अपनी जन्मदात्री के दूध का मूल्यांकन कर ही नहीं सकते!!ये तो आपकी माँ है!!आपको बस देना चाहती है!!आपसे कुछ भी लेने की भूखी नहीं है!!आप इस माँ की भावना को तो समझो ?

ऋषि ने प्रा•र•२७•में कहा है कि-
#स्वरया_सह_सम्भूय_विरिञ्चोऽडमजीजनत्।
#बिभेद_भगवान्_रूद्रस्तद्_गौर्या_सह_वीर्यवान्।।
सरस्वतीके साथ मिलकर ब्रम्हाजी ने सृष्टि की संरचना की!!और रुद्रने गौरीके साथ मिलकर उसका भेदन कर दिया!!सृष्टिका संहार कर दिया!!नष्ट कर दिया मुझे!!

हे प्रिय!! कुञ्जिका-पाठ की विधि #शुन्य_भेदनकी विधा है!! प्रथम तो आप दुर्गापाठ क्या है इसे ही संक्षिप्त में समझ लें!! "पाठ"पढने को कहते हैं!! आपका यह शरीर ही एक #दुर्ग है!!और #सप्तशती अर्थात् सप्त चक्रात्मक भेदन प्रक्रिया से ही आप इसका भेदन कर सकते हो!!इस दुर्ग को पढ लेने का फल आपको इस "कुञ्जिका"से ही मिल सकता है!!और यदि आपने इसे किसी स्तोत्र की तरह पढ लिया!!तो पढते रहो!!तोते की तरह रटते रहो!!कुछ नहीं मिलना इससे!!

शिव कहते सैं कि- "अति गुह्यतमं देवि"यह अत्यंत ही गंभीर है!! गुह्य है!! यह आपकी आध्यात्मिक साधना का फल है!!परिणाम है!!इसे दैवीय,राजसीय अथवा तामसिक विधाओं से किया ही नहीं जा सकता!!आप इस दुर्गको त्रिगुणातीत होकर ही पढ सकते हो!!दुर्गा पाठका फल पा सकते हो!!यह देवताओंके लिये तो दुर्लभ ही है!! कितनी सुंदर और स्पष्ट बात है न ये!! और हे प्रिय!!पुनश्च ऋषि आगे कहते हैं कि-
#गोपनीयं_प्रयत्नेन_स्व_योनि_वच्च_पार्वति"

जैसे कि हे पार्वती!!तूँ अपनी "योनि"को गुप्त रखती है!!वैसे ही इसे प्रयत्न पूर्वक इसे गुप्त ही रखना!! किसी को कहना नहीं!! अब ये वाक्य तो और भी गंभीर तथा रहस्यात्मक है!! योनि का अर्थ तो आप पहले समझें!! भौतिकीय #गुप्तांगों को तो जैसे स्त्रीयाँ ढंककर रखती हैं!!वैसे ही पुरुष भी अपने गुप्तांगों को ढंककर ही रखते हैं!!ये तो सामान्य सी बात है!!ये शिव का,ऋषि का तात्पर्य है ही नहीं!!

हे प्रिय!!मैं आपको एक बात कहूँ!!आप बुरा मत मानना!!मैं एक सात्री हूँ!!और आप पुरुष हो!!हम स्त्रीयों में हजारों हजार अवगुण होते हैं!!हम वाचाल,कामिनी,चुगली करने वाली,अतिशय-लालची, कामी,मोहिता और जाने क्या क्या दुर्गुणोंकी खान होती हैं!!और मैं निश्छल ह्यिदय से स्वीकार करती हूँ कि आप पुरूषों में हमसे तो बहूत ही कम अवगुण होते हैं!!

आप पुरुष योनि से हो!!किंतु विधाता ने हम स्त्रीयोंको फिर भी एक विशेष गुण देकर जन्म दिया है!! हम सभी में तो पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही होती हैं किंतु आपकी इन बहनों, पत्नियों, प्रेयसी और कन्याओं में!!इस "स्त्री-योनि"में मेरे प्रियतमजी ने एक विशिष्ट #छठी_ईन्दिय दे दी है!!

हम किसी की नजरों को पढ सकती हैं कि उसके मन में हमारे प्रति कैसी भावना है!!कोई चाहे मित्र,भाई, चाचा,बाबा,गुरू,शिक्षक,रिश्तेदार या फिर राह में चलता कोई भी पुरुष हो!!उसकी नजरें हम पे कैसी हैं!!उसकी नजरों में मेरे प्रति कैसी भावना है!! कितना खोट है!!या फिर नहीं है!!यह हम उसकी आँखों से ही पढ लिया करती हैं!!

और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण तो हम स्त्रीयों ये गुण होता है कि हम आपकी आँखोंसे आपके मनोभावोंको पढने के बाद आपसे यदि चाहें तो सतर्क तो हो जाती हैं!! किन्तु उनसे कहती कुछ भी नहीं!!आपकी आँखें आपका आईना हैं!! आप जब भी हमें देखोगे तो आपका पूरा अंतर्भाव हम जान जाती हैं!! अब ये एक अलग विषय है कि हम आपको किस दृष्टि से देखती हैं!!

हम चाहें तो आपको स्वीकार कर सकती हैं!!अथवा अस्वीकार भी!! ऋषि कहते हैं कि हे शिवा!! जैसे तेरी इस स्त्री-योनि की विशिष्ट अंर्तसंज्ञा को तूँ सबसे गुप्त रखती है!! वैसे ही इसे भी गुप्त ही रखना!! तूं जिसे चाहेगी!!उसपर ही इस पराविद्या को प्रकाशित करना!!

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