Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी अंक~१२

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी~१२

#दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजो-
            #र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः #सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
#तृणारविंदचक्षुषोः #प्रजामहीमहेन्द्रयोः
       #समंप्रवर्तयन्मनः #कदा_सदाशिवंभजाम्यहम्॥

हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-" दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग"पत्थरकी शय्या हो अथवा राज्य आश्रय-सुन्दर शुषोभित पुष्पों की सेज हो!!इन दोनों में ही जिन योगिराज पुरुषों की समान दृष्टि होती है!!मैं आपको एक अद्भुत बात बताती हूँ!! जो श्रेष्ठ आचार्य होते हैं!!वास्तव में "अ.......घोर"पथ पथिक होते हैं!!जिन्होंने अपनी नाड़ी-तंन्त्रिकाओं पर नियंत्रण कर लिया हो!!उन्हें ही #तांत्रिक कहते हैं!!

और उनके लिये राज्य प्रासाद तथा श्मशान समान होते हैं!!कहते हैं न कि- #कभी_एक_मुट्ठी_चना_कभी_घी_में_सना_कभी_सबकुछ_मना!! मेरे जीवन में देखे एक आदर्श पुरूषका ही उदाहरण देती हूँ!! वो एक तिब्बतीय बौद्ध भिक्षु थे!!तथा तिब्बत के राज्यघराने से थे!!चार बौद्ध-विहारों के मुख्य भिक्षु थे!!उनकी आयु ७० वर्षों से ज्यादा थी!!किन्तु देखने में बिल्कुल युवा!!

वे वज्रयान के प्रसिद्ध आचार्य #सौवानिक के शिष्य थे!! कदाचित आपने नेपाल की प्रसिद्ध योगिनी- #वैधृति_सुगंधा_तथा_मुग्धा का नाम सुना भी होगा!!ये सभी कपाल-कुंडला की मानस-पुत्रियां थीं!! और इन्ही "सौवानिक" की आदर्श दीक्षिता!!

ये आचार्य विहार में मात्र वर्ष में एक या दो दिन ही आते थे!!और लगभग वर्ष के ३५० दिनों तक हीमाच्छादित सुदूर शैल-शिखरों में अपनी शिष्याओं के साथ निवास करते थे!! हे प्रिय!! उन्हें अणिमा, गरिमा,लघिमा,श्री,इन्द्राणी,वैजयन्ती आदि अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं!! किन्तु कभी भी उन्होंने उन सिद्धियों का उपयोग नहीं किया!!

कदाचित इस मार्ग के पथिकों को यह जानना परमावश्यक है कि उनमें सुखेच्छा अथवा हठयोग का लेषमात्र अंश भी नहीं होना चाहिये!!वे तो श्मशान में तथा राज्यप्रासाद में समान भाव रखें!!

तथा और भी दशानन कहते हैं कि- "मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः"मुक्तादि बहुमूल्य रत्न मंण्डित आभूषण हों अथवा मृत्तिका के टूटे फूटे पात्र!!इनमें समान दृष्टि कर्ता ही कुलाचार का आचार्य-पुरूष हो सकता है!!हे प्रिय!! जब भी आप जैसे कोई लाखों में एक पुरूषश्रेष्ठ इस दुधारी तलवारके सदृश्य अत्यंत ही जटिल मार्ग का चयन करते हैं!!तो उनके समक्ष सर्व प्रथम भी और बारम्बार भी अनेक परिक्षायें क्रमशः उपस्थित होती जाती हैं!!

आप कल्पना तो करें!! मानव जीवन ही क्या देवाऽसुरों तक की इच्छायें होती क्या हैं ?
मैं इस सत्य को स्वेच्छा से स्वीकार करती हूँ कि हम स्त्रीयाँ त्यागमयी होती हैं तो क्यूँ ?
आप पुरुषों में हम अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति ढूंढते ढूंढते जब तृप्त नहीं होतीं तो त्यागी बनना ही पड़ता है हमें!!

हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक यदि आपने त्याग करना सिखाया होता!!और हे प्रिय!!त्याग करने की शिक्षा देने का अधिकारी कोई त्यागी ही हो सकता है न!! यदि आप मेरे रूप,लावण्य,मृदुता,कमनीयता आदि आदि स्त्रैण गुणों पर मोहित हो गये!!तो आपको बंधनों में बाँधने वाली कोई गृहिणी ही मिलेगी!! जो आपके घर को बसायेगी!!सजायेगी,सँवारेगी!!

वैसे एक बात और भी है!!भोतिकीय तथाकथित  सुखों के नाम पर आप गंभीरतापूर्वक सोचना!!
यदि आप मान लो कि शिव,राम,कृष्ण आदि यदि कोई ऐतिहासिक पुरूष हुवे भी होंगे तो!!
शिव ने #सती_अथवा_अपर्णा को क्या दिया ?
कृष्ण ने राधिका और गोपियों को क्या दिया ?
राम ने माँ सीता को कौन सा सुख दिया ?

ये प्रश्न तो हम स्त्रीयाँ आपसे बारम्बार करती हैं कि शिव ने राजकुमारियों को महेलों से लाकर निर्जन पहाणों में रखा!!
कान्हाजी ने गोपियों और राधिका तक का भौतिकीय दृष्टि से त्याग कर आजीवन उन्हें तड़पाया!!
भगवान श्रीराम ने जनक-दुलारी जी को विवाहोपरान्त १४ वर्षों तक वन में भटकने को और राज्याभिषेकोपरान्त तत्काल ही गर्भवती सीता को वन में अकेली छुड़वा दिया!!

हाँ!!ये आरोप तो हम स्त्रीयाँ आप पर लगाती ही आ रही हैं!!आज नहीं अनादि काल से लगाती आ रही हैं!! किन्तु हे प्रियजी!!दुर्भाग्या तथा दुर्भावना वती हैं हम!! हम मूर्खा हैं!! हमने ये क्यूँ नहीं सोचा कि-
हमारा त्याग करने के बाद आपने कौन से सुखों को भोगा ?

मेरे #शिव_राम_कृष्ण की वेदना को मैं नहीँ देख पाती ?
उन्होने हमारा त्याग सुख पानेके लिये किया ?
जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कान्हाजी ने कौन सा सुख पाया ?
भगवान राम ने कौन सा सुख पा लिया ?
हे प्रिय!!आप हों अथवा राम-कृष्ण-बुद्ध अथवा नानक,महावीर हों!!आप सभी पुरूष आदर्शों के प्रतीक महापुरूषों ने जन्मसे लेकर मृत्यु पर्यन्त देश, समाज,संस्कृति तथा आदर्शों की रक्षा हेतु तिल-तिल कर अपने आपको जला दिया-
"र्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः "हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि "तृणारविंदचक्षुषोः" जिन शिव की दृष्टि में एक तृण और कमल-लोचनी तरुणी समान हैं!! किन्तु आप ध्यान दें कि चक्षुषोः शब्द का प्रयोग यहा दशानन ने किया है,और दिव्य चक्षु शब्द का ही प्रयोग गीताजी में मरे प्रियतमजी ने भी किया है- #ददामि_त्वम_दिव्य_चक्षुसः

आपने आजतक जितने भी पुराणों,तांत्रिक ग्रँथों, वात्स्यायन,कुरान बाइबिल आदि को पढा होगा!!एक समानता देखी होगी!!स्त्रीयों की कमनीयता,सुंदरता, सौष्ठव, और लावण्यता के वर्णनों से ये भरे पड़े हैं!!हाँ मैं मानती हूँ कि पुरूषों के सौन्दर्य का भी वर्णन मिलता है!!किन्तु स्त्री-सौन्दर्य की अपेक्षा मात्र १० % ही इसको स्थान दिया गया!!और इसका कारण क्या है ?

वस्तुतः शारीरिक संरचनात्मक भेद और वासना की दृष्टि से तो दोनों ही परस्पर एक-दूजे के लिये सुंदर और आकर्षित करने वाले ही होंगे न!!अप्सराओं, कन्याओं,युवतियों,भैरवी,देवी,योगिनी हों अथवा जन्नत की हूरें!!सभी ग्रन्थ इनकी कमनीयता का ही गुणगान करते हैं!!और इसका एक मात्र कारण है इनके लेखकों का शारीरिक रूप से पुरूष होना!!

और हे प्रिय!!बिलकुल इसी प्रकार से धन,वैभव,सत्ता और बल से परिपूर्ण राजा,विद्वान,ऋषि,उच्च-कुलीन अथवा धनाढ्यों के द्वारा ही परमार्थ पथ-गमन की भी चर्चा मिलती है!!और निर्धन,अविद्वान,दलित,निर्बल लोगों द्वारा परमार्थ प्राप्ति के प्रकरण आपको मात्र १० %ही पढने को मिलेंगे!

किन्तु वामामार्ग के परमाचार्य दुर्वासा ऋषि द्वारा वर्णित दशाक्षरी विद्या को भी आप देखें-
#ह्रीं_श्रीं_क्लीं_कालिकायै_स्वाहेति_च_दशाक्षरीम्। #दुर्वासा_हि_ददौ_राज्ञे_पुष्करे_सूर्यपर्वणि॥
मैं अनेक बार ये स्पष्ट कर चुकी हूँ कि #ह अर्थात योनि! #श्री अर्थात योनि तथा #क को ही वज्र कहने का शास्त्रों का अभिप्राय रहा है!!

और प्रिय!!संभव है कि वाजसानेय यज्ञों हेतु "ह"को यज्ञ-कुण्ड तथा "वज्र"को समिधा प्रदान करने वाले चमस की संज्ञा दी गयी हो!!तो ये भी सत्य है कि मात्र यज्ञ-वेदिका के सौन्दर्य की चर्चा न कर सम्पूर्ण यज्ञ- मण्डप और यजमान का भी सुंदर होना स्वाभाविक तथा नैसर्गिक आवस्यकता मानी गयी हो!!

किन्तु जब कुलाचार की चर्चा होती है!!और यहाँ तो यज्ञ-कुण्ड की अग्नि ही चमस में प्रविष्ट हो जाती है!!यह तो बिल्कुल ही विपरीत मार्ग है!!अग्नि सुन्दर नहीं होती!!और हो भी तब भी वो तो दाहक ही होती है!!वो चमस को जला देती है!!और यजमान यदि सतर्क न हो तो उसके हांथों को भी झुलसा देती है!!

तभी तो उसे #काली_कराल_वदना कहते हैं!! मेरे अथवा दशानन के भाव को आप समझें!!शिव अर्थात #अघोरी तो कामना-हीन होते हैं!!श्मशान वासी होते हैं!!न तो उन्हे धनकी ईच्छा है और न ही तरूणी की!! उन्हे तो मात्र सिद्धिदा-साधन की आवस्यकता है-
#दशलक्षजपेनैव_मन्त्रसिद्धि: #कृता_पुरा। #पञ्चलक्षजपेनैव_पठन्_कवचमुत्तमम्॥

और यह निश्चित है कि संसार में प्रचलित किन्ही भी पथों का आप अनुसरण कर लें! अनेकानेक जन्मों की साधनायें ही आपको क्रमशः आध्यात्मिक पथारूढ कर सकती हैं!!और उसका कारण है जब तक आपकी दृष्टि में सुवर्ण और मिट्टी का ढेला समान न हो जाये!! तब तक किसी भी आध्यात्मिक पथ के लक्ष्य बिंदुओं को पाना असम्भव है!!

हे प्रिय!!शिव की दृष्टि में हो अथवा किन्ही भी #बुद्ध पुरूष की दृष्टियाँ हों वे यही देखती हैं कि-"तृणारविंदचक्षुषोः"मैंने अपने जीवन में कुलाचार हो अथवा किसी भी पंथ का मार्ग हो!!ये महेसूस की हूँ कि जो आप जैसे श्रेष्ठ साधक होते हैं!! उनकी दृष्टि में "स्त्री-पुरूष"की बाह्य सुन्दरता अथवा धनादि का होना-न होना!! विद्वता का होना न होना कोई भी अर्थ नहीं रखता!!हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-"शिव अर्थात सिद्ध पुरुषों की दृष्टि में राजा और प्रजा एक समान हुवा करती हैं!!वे "प्रजामहीमहेन्द्रयोः" द्रोणाचार्य की तरह अर्जुन और एकलब्य को दो तराजुओं से नहीं तौला करते!!उनकी दृष्टि देवता तथा असुरों को समान देखती है!!

मैं समझती हूँ कि आप कबीर,बुद्ध,राम,कृष्ण, महावीर,नानक अथवा किन्ही भी सिद्ध पुरूषों की जीवनी उठाकर पढ लेना!! विद्वान-अविद्वान,धनाढ्य -निर्धन,राजा-प्रजा,स्त्री-पुरूष" इन सभी को उन्होंने समान दृष्टि से देखा!! आध्यात्मिक पथ का समान रूप से अधिकारी अथवा अनाधिकारी माना!! शिष्यत्व का एकमात्र मापदण्ड है आपका किसी कोरे कागज की तरह होना!!

संत महापुरुषों की न तो कोई जाति होती है और न ही कोई धर्म!! न मन्दिर होते हैं और न ही मस्जिदें-
સકલ લો માં સહુ ને વન્દે નિન્દા ના કરે કોની રે.
વાછ કાછ મન નિશ્છલ રાખે ધન ધન જનની તેની રે.
और पुनः दशानन कहते हैं कि-"समं प्रवर्तयन्मनः" जिनकी दृष्टि में उपरोक्त सभी समान होते हैं!!

आप कभी-कभी ये सोचते होंगे कि मेरे प्रियतमजी ने-
ध्रूव,प्रहेलाद,रन्तिदेव,अम्बरीश,नचीकेता,मार्कण्डेय, नारद आदि सभी का उद्धार किया!!वरदान दिया!!
गोपियों,गार्गी,अपाला,लोपमुद्रा,मीरा,सहजो,गंगासती सभी का उद्धार किया!

अर्जुन,शिवि,हरिश्चन्द्र,दधीचि,आरुणी,उद्दालक,जनक, याज्ञवल्क्य,,शुकदेव,सूत जी सभी का उद्धार किया!!
अजामिल,एकलब्य,बर्बरीक,कर्ण,भीष्म पितामह, जयमंगल,गुणिका, अहील्या,मन्थरा का भी उद्धार किया!!

यहाँ तक तो ठीक है!! किन्तु इसके बिलकुल विपरीत धर्मी- मधु,कैटभ,हीरण्यकश्यप,रावण,कंस,पूतना, ताड़का,जलंधर,भष्मासुर,धुंधुकारी,अंगुलीमार और जैसल जैसे महा पापात्माओं को वरदान दिया और उनका उद्धार भी किया!! आखिर ऐसा क्यूँ  ?

हाँ प्रिय!!यही भेद है परमात्मा और जीवात्मा के सोचने में!!हम सांसारिकों और संतो के सोचने में!! मुझे अनायास ही यह श्लोक स्मरित होता है कि-
#अहम्_निर्विकल्पो_निराकार_रूपो
#विभुव्याप्य_सर्वत्र_सर्वेन्द्रियाणाम।
#सदा_मे_समत्वं_न_मुक्ति: #न_बंध:
#चिदानंद_रूप: #शिवोहम_शिवोहम।।  

हाँ सत्य यही है!!शिव और संत ऐसे ही होते हैं!!वे मुक्ति और बंधन से भेदातीत होते हैं!! मैं उन्हे किताबों और साधनाओं में कुछ-कुछ समझ तो सकती हूँ !! किन्तु जब तक यह #मैं रहूँगी!! तबतक उनको ढूंढ नहीं सकती!!

मैं मूर्खा एक बार एक सागर की गहेराई नापने गयी थी!!और एक बड़ी सी रस्सी में एक बड़ा सा मीश्री का ढेला बाँधकर माप रही थी!! जब तल से ढेला नहीं टकराया!!डोरी समाप्त होने को आयी तो रस्सी ऊपर खिंच ली!! तो क्या देखती हूँ कि मिश्री का ढेला तो सागर में घुलकर सागर हो चुका था-
#जोत_में_जोत_समाये_तिनकी_जम_फाँसी_टलती!
#अनहद_बाज_बजाऊं_उतारूं_तुम्हारी_आरती!!
#गुरू_जय_मंगल_मुरती!!

अतः हे प्रिय!!जो आप जैसे संत होते हैं!!उनकी दृष्टि सम्यक होती है- "समं प्रवर्तयन्मनः" और कदाचित मैं दुर्मुखी यदि प्रारब्ध से अपने मन को आपमें!!आपके श्रीचरणों में लगा सकूँ तो दशानन कहते हैं कि क्या ऐसा हो सकता है कभी ?

"कदा सदाशिवं भजाम्यहम्"शिव तो "सदाशिव"कहे जाते हैं न!! शिव अर्थात #कल्याण करने वाले!!वे तो मेरा कल्याण करने को सदैव ही उत्सुक हैं!!पर ये तो मैं ही संसार को भजती हूँ!!यहाँ ती कि शिव से दशानन ने लंका ही माँगी!!अमरत्व की कामना की!!
और अमृत का घड़ा भी पी लिया!! किन्तु मरना तो उसे फिर भी पड़ा!!

तो चलो मैं आपसे यही समझने की कोशिश आगे करती हूँ कि- मैं और आप उनका भला कैसे भजन कर सकते हैं!!और कब कर सकते हैं!!

इसी के साथ इस श्लोक की प्रबोधिनी  पूर्ण करती हूँ !!... #सुतपा!!

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