Saturday 15 September 2018

विज्ञान भैरव तंत्र सूत्र~१६ अंक~१४

#अनुभूति_को_भला_क्या_अनुभूति_होगी!!
            
अब विज्ञान भैरव तंत्र  यह सोलहवाँ श्लोक मैं  आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ, #श्री_भैरव_उवाच--
#तद्वपुस्तत्त्वतो_ज्ञेयं_विमलं_विश्वपूरणम्।
#एवंविधे_परे_तत्वे_कः_पूज्यः_कश्च_तृप्यति।।

हे प्रिय!!अब मेरे प्रियतम भैरवजी अपनी सूरता  रूपी शिवा से कहते हैं कि--हे शिवा!!
"तद्वपुस्तत्त्वतो  ज्ञेयं विमलं विश्वपूरणम्"
यही तुझ भैरवी और मुझ"भैरव"का स्वरूप है!!
वस्तुतः "तंत्र" ग्रंथ या तांत्रिक प्रक्रियाओं का प्रारंभ ही वहीं से होता है-जहाँ पर सभी बाह्य क्रियाओं का लोप हो जाता है!! लोग सोचते हैं कि तंत्र अर्थात किन्ही प्रकारों का कर्मकाण्ड-किंतु मैं आपको यह स्पष्ट कर देना प्रथम ही उचित समझूँगी कि "विज्ञान भैरव तंत्र"जैसे गूढ रहस्यात्मक गृंथ "ब्रम्हसूत्र, भक्तिसूत्र या फिर योगसूत्र"की कक्षाओं में प्रवेश कराने के प्रशस्त पथ पुस्तकीय दीपक हैं!!
निश्चलदासजी ने कहा भी है कि-
#कीया_अनुभव_जा_वस्तु_का_ताकी_ईच्छा_होंहि।
#ब्रम्ह_वस्तु_नहीं_अनुभूति_है_वाकी_ईच्छा_करै_न_कोई बस इसी पदमें इस श्लोक का भाव निहित है!!

हे प्रिय- मुझे कोई आकांक्षा तभी होगी जब वह वस्तु अप्राप्त हो, प्राप्त की ईच्छा तो कभी हो ही नहीं सकती!! मैं स्त्री तो प्रत्यक्ष हूँ ही-अब भला मैं चाहूँ कि मुझे स्त्री बनना है तो इससे बड़ी मूर्खता और भला क्या हो सकती है!! निश्चलदासजी यही तो कहते हैं कि-"अनुभूति को भला क्या अनुभूति होगी ?

मैं या आप और कुछ भी नहीं बस मात्र "अनुभूति"ही हैं!! इस समूची सृष्टि के सभी पदार्थ,उनमें व्याप्त शक्ति के अविरल प्रवाह,सभी कल्पित-अकल्पित भावनायें अंततः अन्य कुछ भी नहीं बस मात्र और मात्र #अनुभूति ही तो हैं!!मैं अपनी शारीरिक संरचना के कारण स्वयम् को स्त्री समझती हूँ!!आप अपनी शारीरिक संरचना के कारण स्वयम् को पुरुष समझते हैं!! हम आप बाह्य संरचना के कारण किन्हीं भी   पदार्थों का क्या क्या नामकरण कर लेते हैं!! किंतु आप खूब ध्यान देना!!आखिर ये जो स्त्रीत्व-पुरुषत्व की अनुभूति है!यह क्या है ?

और हे प्रिय!!
#तद्वद्_धर्माधर्मस्वर्निरयोत्पत्ति_मरण_सुख_दुःखम्।
#वर्णाश्रमादि_चालन्यदपि_विभ्रमबलाद्भवति।।
ये जितने भी धर्म-अधर्म,उत्पत्ति-संहार,सुख-दुःख, वर्णाश्रमादि हैं,ये सभी "अनुभूत"को ही अनुभव होते हैं!! मैं आपको एक भेद की बात बताती हूँ, गहन भेदात्मक, इस श्लोक रत्न में एक महान भेद निहित है,भैरव स्पष्ट कहते हैं कि" एवंविधे परे तत्वे कः पूज्यः कश्च तृप्यति" अर्थात-
#भला_भगवान_को_भगवान_पे_कैसे_चढाऊँ_मैं यह योग की सूक्ष्मातिसुक्ष्म अवस्था है!अब आप ध्यान दें-

व्याकरण में एक विशेष #लिंड़्ग है जिसे सदैव ही हेय दृष्टि से देखा जाता है- #नपुसंक_लिंड़ग्" किंतु यह विद्वद् समाज ही जानता है कि जिन व्यक्तित्वों में "स्त्री-पुरुष"दोनों के लक्षण पाये-जाते हैं वे "उभय- लिंड़्गी"हैं,"नपुँसक",,न वे स्त्री हैं और न ही जो पुरुष ही हैं!! हमारे समाज ने तो उन्हें घृणा,दया, जिगुप्सादि न जाने कितनी दृष्टियों से देखना शुरू कर दिया,एक घिनौनी गाली इस समाज को बनाकर रख दिया!! और तो और इन लोगों को भी विशेष रूप से "स्त्री" के ही परिधान पहनना अनिवार्य कर दिया!! ये भी तो मैं अगर कहना चाहूँ तो कह सकती हूँ कि- हम स्त्री समाज के साथ ये मानसिक अत्याचार ही है!!

अब मैं यदि अपनी शारीरिक संरचना से पृथक अपने अस्तित्व का बोध कर लूँ-तो मैं स्त्री नहीं रही!!और यदि आप भी अपनी शारिरिक संरचना से अतीत अपने स्व स्वरूप का बोध कर लो तो आप भी पुरुष नहीं रहे!! और इसी प्रकार ब्रम्हाण्ड के अन्यान्य पदार्थों या भावन्ओं को भी आप उनके तत्कालीन स्वरूपों की अपेक्षा उनके वास्तविक स्वरूप की दृष्टि से यदि एक बार देखते भर हैं तो वे भी "पदार्थ या भावनायें"नहीं रहेंगी!!

और इस प्रकार इस श्लोक के उपसंहार में यही स्पष्ट होता है कि--- तो स्त्रीत्व से दूर #मैं और पुरुषत्व से दूर #आप और बाह्य लक्षणों या भावनाओं से दूर का ये #ब्रम्हाण्ड" ही तो अनुभव है,भैरव है,भैरवी है!!और यही मेरे स्वामी आप हैं और यही आपकी स्वामिनी मैं हूँ......सुतपा!!

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