Wednesday 12 September 2018

पितृ-सूक्त अंक ~१४

पितृ-सूक्त मंत्र-६~३ अंक~१४

#यदि_मात्र_भोगों_हेतु_संसर्ग_किया_तब_तो_ये_अपराध_आपने_किया_ही_है!!

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में षष्टम ऋचा में १४ वाँ अंक मैं प्रस्तुत करती हूँ-

#आच्या_जानु_दक्षिणतो_निषद्येमं_यज्ञमभि_गृणीत_विश्वे।#मा_हिंसिष्ट_पितरः #केनचिन्नोयद्व_आग_पुरुषताकराम।।

हे प्रिय!!अब मैं #पितृयान पर चर्चा करती हूँ!!आप देखें बृह•उप•६•२• १६• में याज्ञवल्क्य जी लिखते हैं कि-
#यान्_षड्मासान्दक्षिणादित्य_एतिमासेभ्यः #पितृलोकं_पितृलोकात्_चन्द्रं_ते_चन्द्रं_प्राप्यान्।
सकाम शुभ कर्मों के कर्ता ही पितृलोकों को प्राप्त होते हैं!!

अर्थात व ही पितर-लोकों से ऋतसोम को! चन्द्रलोक में पहुँच कर अर्थात सूर्य की उष्मा से वाष्पों के रथ पे चढकर वर्षा के साथ पुनश्च पृथ्वी पर आकर अन्न के रूपमें प्रकट होते हैं!!और जैसे ऋत्विग्गण सोमरस को #आप्यायस्व_अपक्षियस्व अर्थात चमस में भरकर पी जाते हैं!!उसी प्रकार यदि मेरे साथ आप पुत्रेष्टि यज्ञ करते हैं तो वे संतानों के रूप में प्रकट हो जाते हैं!!और यदि आप देव-यज्ञादि,भैरवी-चक्रादि का आवर्तन करते हैं तो वही आपका सोम उर्ध्वलोकों को गमन करते हुवे पितर रूपिड़ी भैरवी के द्वारा आपको देवता बनाकर स्वयं #धूमावती बन जाती हैं!!पितर बन जाती हैं!!

और हे प्रिय!!यह मैं सप्रमाण कह रही हूँ!स्वय याज्ञवल्क्य जी कहते हैं कि- #वायो_र्वृष्टिं_वृष्टेः #पृथिवीं_ते_पृथिविं_प्राप्यान्नं_भवन्ति_ते_पुनः #पुरूषाग्नौ_हूयन्ते_ततो_योषाग्नौ_हूयन्ते।।

अर्थात पितर हों,भैरवी हों अथवा कि हम स्त्रियाँ!इन चक्रात्मकीय संरचना तथा #धूमावती स्वभावों के कारण! पुनः पुनः आपके लिये दक्षिण-मार्गी होती ही हैं!! अर्थात हे प्रिय!!पितरों का दक्षिणगामी होना अर्थात बाँयें घुटनों को मोड़कर बैठना ऐसा कहना पूर्णतया वैज्ञानिकीय,शास्त्रीय तथा वेदों की ऋचाओं का कौल-मार्गों का अनुसरण करने का प्रमाण भी देती हैं!!

और पुनश्च ऋचा में कहते हैं कि-"यज्ञमभि गृणीत विश्वे" पितर यज्ञ-वेदी के नीचे बैठकर इस यज्ञ की प्रशंसा करें!! अर्थात इन उपरोक्त दोनों ही यज्ञों की प्रशंसा करने की ऋषियों ने अनुशंसा की है!! और यह भी साथ में कहा है कि-"मा हिंसिष्ट पितरः केन"इन दोनों ही प्रकार के यज्ञों में हिंसा तो होती ही है!!

जैसे कि आपके पिता या पती ने आपके पोषण तथा उत्पत्ति हेतु ही सकाम कर्मों को किया!! अन्यथा वे भी तो निवृत्ति मार्गी होकर विजयाहोम के द्वारा अपनी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त कर सकते थे!!किन्तु उन्होंने आपके लिये व्रत,यज्ञ,तप और श्रम किया!! और दूसरी तरफ इस धूम-मार्ग के संदर्भ में मैं और एक विपरीत वचन भी कहूँगी!!

आपने एक अपराध जो कि नैसर्गिक है!!अर्थात पुत्रेष्टि यज्ञ तो किया ही है,एक बार के पुत्रेष्टि यज्ञ अथवा संसर्गों में न जाने कितने जन्म लेने वाले सूक्ष्म चैतन्य बिन्दुओं को आपने नष्ट कर दिया!! और यदि मात्र भोगों हेतु संसर्ग किया तब तो ये अपराध आपने किया ही है!!

और दूसरी तरफ यदि आपने कुलाचारान्तर्गत साधना के द्वारा अपने अधूरे प्रयासों के कारण पुनर्जन्म लिया है,तो आप पितर तो थे ही!! और पुनश्च न जाने कब आपकी ये साधना आपको ऊर्ध्वगामी बनायेगी!! हे प्रिय!!मैं यह भी कहना चाहति हूँ कि आपके द्वारा श्राद्धीय सामग्री,तर्पणादि आपके अपने स्वयं के लिये भी हो सकती है!!

अर्थात दोनों ही परिस्थितियों में हम आप मानव हैं!!हमसे अपराध होंगे ही!!अतः ऋषि कहते हैं कि-"चिन्नो यद्व आगः पुरुषता कराम" आप हमें इन अपराधों के लिये दण्ड न दें!!मैं आपको यह स्पष्ट करना चाहती हूँ कि देव-श्राप से तो आप एक बार बच सकते हैं!! किन्तु पितृ श्राप बहूत ही भयावह होते हैं!! आप यह स्मरण रखें कि अपने कुल-देवता,कुल-देवी के नियमों का पालन अवस्य ही करें!! किन्तु सात्विक!!

इस बिन्दु पर चर्चा कभी पुनः करूँगी!!इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की ७ वीं ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!..... #सुतपा!!

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