Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~१३

#म्लां_म्लीं_म्लूं_दीव्यती_पूर्णा_कुञ्जिकायै_नमो_नमः।।
#सां_सीं सप्तशती_सिद्धिं_कुरुष्व_जप_मात्रतः॥

हे प्रिय!!अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-
"म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा"वैसे इस मंत्र को समझने हेतु मैं आपको एक बात कहूँगी जिस प्रकार सप्त- श्लोकी गीताजी तथा चतुष्पदी मानस की रचनायें आपने देखी होंगी उसी प्रकार नव-श्लोकात्मक #गुप्त_सप्तशती भी है,जिसे निश्चित ही आपने नहीं देखा होगा!!इसके छठे मंत्रको मैं आपको दिखाती हूँ-

#ॐ_घ्रां_घ्रीं-घ्रूं_घोर_तुण्डे_घघ_घघ_घघघे_घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
#ह्रीं_क्रीं_द्रूं_द्रोञ्च_चक्रे_रर_रर_रमिते_सर्व_ज्ञाने_प्रधाने।।
#द्रीं_तीर्थेषु_च_ज्येष्ठे_जुग_जुग_जजुगे_म्लीं_पदे_काल_मुण्डे।
#सर्वांगे_रक्त_धारा_मथन_कर_वरे_वज्र_दण्डे_नमस्ते।

हे प्रिय!! #मलीनता भी एक अद्भुत तथा विचित्र शक्ति-स्रोत है!!मैं एक बात कहूँगी!!और वो भी अपने आप से,और वो भी आपकी साक्षी में कहूँगी-ये मेरी #ह्यदि_प्रतिष्या_कवयो हैं!!या यू कहलें कि मेरे ह्यदय में उठ रहे अंतःकरण के वैचारिक बवंडरों की अभिव्यक्ति!!

ये तो सर्व-विदित है कि मुझ #माया_का_म और पुरुष का #अहंकारात्मक_म ये दोनों ही मलीनता हैं!! किन्तु इनमें जब #ळृ समायोजित हो जाता है!! ये भी एक विचित्र किन्तु अद्भुत और भौतिकीय स्थूल धरातलों की कसौटी पर कसा हुवा सत्य है कि-कोई भी निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता कि यह सृष्टि कहाँ से आविर्भूत हुयी  ?

अभी आज मैं ऋ•स•३•१९•में एक मंत्र देखकर हतप्रभ सी रह गयी-
#को_श्रद्धा_वेद_क_इह_प्रवोचत्_कुत_आजाता_कुत_इयं_विसृष्टिः।।
#इयं_विसृष्टिर्यत_आबभूव_यदि_वा_दधे_यदि_वा_न।।

ये नाना अच्छे और बुरे भेद बने कैसे,ब्रम्हा कहते हैं कि ये किसने मुझे वेदों का उपदेश दिया  ?
मैं आपको एक बात कहूँ,शायद आपको पचेगी भी!! यदि मन से पूजा की गयी हो,पाठ किया गया हो, किन्ही भी कार्यों को पूर्णतया एकाग्रता से किया गया हो!!और उन कार्यों में यदि #वासना को भी एकाग्रता से #भोगा गया हो!!तो इन कार्यों की समाप्ति पर एक अद्भुत और परम-दिव्य आलस्य,मलीनता,संतुष्टि, और तृप्ति का अंतःकरण में प्राकट्य होता ही है!!

हे प्रिय!! #अंत_शुभ_सर्वस्य_शुभम!! इस स्तोत्र का पाठ अथवा श्रवण सिद्धि नहीं है!! किसी भी यज्ञादि पूजन-अर्चनाका अंत सिद्धि नहीं है!!किन्ही भी कार्यों का पूर्णता को प्राप्त हो जाना भी सिद्धि नहीं है!! और वासना को भोग लेना भी सिद्धि नहीं है!! तो ये सिद्धि है क्या,ये मिलेगी कैसे,यक्ष प्रश्न तो यही है   ?

चलिये-छोड़िये इसे!!इसे बाद में मैं आपसे पुनश्च इसे कभी समझ लूंगी,अभी पहले यह समझती हूँ कि #असिद्धि क्या है ?
लोगों की एक समस्या रहती है कि उन्हे साधनाकाल में निद्रा सताती है!! तो लो आप!!मैं उनसे ही एक गंभीर प्रश्न पूछती हूँ  कि आपको वासना के अभ्युदय काल में निद्रा क्यों नहीं सताती  ?

और मेरे इस प्रश्न का उत्तर आप ढूंढते रह जाओगे!! कभी नहीं मिलेगा!! क्यों कि हे प्रिय!!इसका उत्तर यह है कि हम आप उल्टा चलते हैं!!आप जागने की कोशिष कभी मत करना !!क्यों कि ऐसा करने पर आप सो जाओगे!! और सोने की कोशिशें करके थक जाओगे आप,किन्तु ये निगोड़ी नींद नहीं आयेगी!!

सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र कहता है कि आप पाठ करते-करते जब सिद्ध नहीं होता तो आप "म्लान"हो जाओ!! "म्लीं"अर्थात अधूरा "मैं" और अधूरा ही टूटा हुवा "अहंकार"!! "म्+ल+अ+•=म्लां" आप जानते हैं न कि मुझ सूर्पकेशी धूमावती का नाम म्लेक्षा भी है!!

तभी तो विद्यावानों द्वारा हम स्त्रीयों को सदा ही #अपवित्रा कहा गया है!! हे प्रिय!! मैं #नर_भोजनी हूँ-"शव-भक्षिणी"इसी कारण तो मुझे "म्लीं"कहा गया है!!और स्मरण रखें कि जब आपके  पुरुषत्त्व का मैं भञ्जन कर देती हूँ!! जब आपकी पशुता मुझे भोगकर शांत!! एकबार कुछ कालके लिये ही सही!! शांत!!होजाती है!! तो आप तो अंतःतृप्ति के आगोश में सो जाओगे,किन्तु मैं "म्लीं" मलीन हो जाऊँगी!!

मेरे इस भावार्थ को समझने हेतु कोई स्त्री ही समर्थ हो सकती है!!हे प्रिय आप नहीं समझोगे!! किन्तु यदि आप इस भाव को समझना चाहते हो!!तो चलो!! आप अपने में एक पल के लिये सोयी #स्त्रीत्व को झिंझोड़ कर जगा लो!! और यदि ऐसा होता है तो- "दीव्यती पूर्णा" आप पूर्ण हो जाओगे!!क्यों कि यही तो "कुञ्जिकायै नमो नमः" कुञ्जी है ,चाभी है आपके अंतःकरण के बंद दरवाजों को खोलने की!!

#सां_सीं_सूं_सप्तशती_सिद्धिं_कुरुष्व_जप_मात्रतः॥

हे प्रिय!!अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि- "सां सीं सूं सप्तशती" यदि आपने सां सीं सूं को समझ लिया तो बस सप्तशती  सिद्ध हो जायेगी!!ये सप्तशती स्थूल रूप से एक वेदिक निबन्धात्मक गृन्थ तो है ही!! किन्तु इसके साथ-साथ यह परामनोवैज्ञानिकीय विधाओं का एक अद्वितीय संग्रह भीहै!!

वैसे मैं आपको एक बात कहूँगी सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र श्रीरूद्रयामल•गौरीतंत्र• के शिव-शिवा सम्वाद को कहते हैं!!यह यदि आप आस्तिक हैं, पौराणिक हैं, अथवा किसी भी मत के हैं तो यूँ  मान लें कि यह- #पुरुष_और_प्रकृति_का_परस्पर_सम्वाद_है!!
यह "तत्त्व और ऊर्जा"के मिलन की गाथा है!!यह #पारमाणविक_ऊर्जा_के_विष्फोट की विधा है!!

मैं इस संदर्भ में आपको श्रीदेव्यथर्वशीर्ष का •१४• वाँ मंत्र पढने की सलाह दूँगी-
#कामोयोनिः #कमला_वज्रपाणि,
             #गुर्ह्य_हसा_मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः।
#पुनर्गुह्य_सकला_मायया_च,
            #पुरुच्यैषा_विश्वमातादिविद्योम्।।

हे प्रिय!!इस मंत्रको ही #पञ्चदशी अर्थात #श्रीविद्या कहते हैं!!इसे समझने के पूर्व आप एक बात पहले ही समझ लें तो उचित होगा!!किसी भी मंत्रके अर्थ कम से कम ६ होते हैं- भावार्थ,वाच्यार्थ,सम्प्रदायार्थ, लौकिकार्थ, रहस्यार्थ और तत्वार्थ!!

अब आप इस मंत्र को समझें!! देवगण दक्षको कहते हैं कि- #अदितिर्ह्यजनिष्ट_दक्ष_या_दुहिता_तव।
हे दक्ष जो आपकी कन्या #अदिति हैं!!वे प्रसूता हुयीं और उनके काम-"क" योनि-"ए",कमला-"ई", वज्रपाणि-"इन्द्र"ल"और गुहा-"ह्रीं"और ह,स- रूपी वर्ण, तथा मातरिश्वा अर्थात वायु"क" अभ्र अर्थात "ह"और पुनश्च इन्द्र "ल"
और भी पुनः-"गुहा-ह्रीं" -"स,क,ल रूपी-वर्ण!!
तथा माया-ह्रीं!!

और हे प्रिय आप ध्यान दें!! उपरोक्त-
(१)=काम   (२)=योनि   (३)=कमला (४)=इन्द्र  (५)=गुहा  (६)=वर्ण  और (७)=मातरिश्वा 
यही सप्तशती है!!अर्थात श्रीविद्या अर्थात- (८)=माया!!-अष्टधा!! सिद्धकुञ्जिका स्तोत्र के द्वारा चण्डी-पाठ के फलों की सिद्धि भी यही हैं!!

#दक्ष_प्रजापति आप ध्यान दें!!ये शिवद्रोही हैं!!जो भी प्रजाओं को उत्पन्न करने के इच्छुक हैं!!जो प्रजाओं का पालन करते हैं!! कितनी विचित्र और गंभीरतम यह पौराणिक मर्मभेदी दृष्टान्त है!! आप इसे #शिवपुराण की कथा न मानें!! ये तो आपकी अपने भीतर की #कथा है

हे प्रिय!!अब इसे आर्यसमाजी मेरे प्रिय और विद्वान लोग, तर्कमहारथी लोग भला कैसे और क्यूं  स्वीकार करेंगे ?

मेरे इस निबंध को पढने से अथवा सिद्धकुञ्जिका स्तोत्र पढने से पाठ सिद्धि होगी अथवा नहीं होगी यह आपको ही समझना होगा!! मैं बारम्बार कहती आयी हूँ कि #साधना अर्थात-जैसे कि कि मान लें कि आपने कोइ कार खरीदी अब इसे चलाना सीख सकते हैं,इसे साध सकते हैं!!

हे प्रिय!! हो सकता है कि आप संसार के किसी भी यंत्र,तंत्र,मंत्र,भाषा,व्यवहार,विधि,संस्कार,व्यक्ति,स्थान आदि को साध लें,सीख लें!! ये संभव है!! किन्तु ये  #ध्यान_अर्थात_ध्या_न!!

जो #है उसीको आप साध सकते हैं!!किन्तु नहीं को आप कैसे साधोगे ?
अंधेरा है लो आप दीपक जला लो!! प्रकाश हो जायेगा!! किन्तु इस दीपक के बुझने पर ?
अंधकार था,अंधकार है!! और अंधकार ही रहेगा भी!!इस अंधकार को आप कुछ पलों के लिये ही हटा सकते हो!!

हे प्रिय!!तो छोड़ दो इस मिथ्या परिश्रम को!!न प्रकाश करना है,न अंधकार दूर करने का मिथ्या प्रयास ही करना है!!अर्थात हे मेरे आत्मसखा वृन्द बस #कुछ_नहीं_करना_है!!मैं जानती हूँ कि सबसे कठिन यही है!!तिब्बत में एक #रयान्याप्पाम्प नामक छोटे से बौद्ध #वज्रयान विहार में मेरी किशोरावस्था के कुछ सप्ताह व्यतीत हुवे थे!!

छोटी थी मैं!!शायद एक कोरी सी स्लेट के जैसी!!वहाँ एक काफी वृद्ध भिक्षू थे!!उनका नाम शायद #कृच्छार_रिनपोछे था!!वे बताते थे कि वे #अघोरघंट की भैरवी #कपालकुंडला के शिष्य हैं!!वे एकमात्र
"सां सीं सूं"इसी बीज का  पाठ साधनान्तर्गत करते थे!!

हे प्रिय!!वस्तुतः शुन्य,अंधकार,दहर में प्रवेश की विधा ही रूद्रयामलतंत्र है!!आप कल्पना तो करें-सप्तशती अर्थात सप्तचक्रों में प्रवेश की विधा क्या मात्र सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र पाठ या सप्तशती का पाठ करना हो सकती है  ?

यदि ऐसा होता तो सभी संस्कृत जानने वाले सिद्ध हो जाते!! और जिन्हे संस्कृत नहीं आती!!वे सभी के सभी असिद्ध अर्थात तथाकथित नर्कों के ही अधिकारी होते!!
#सां_सीं_सूं_सप्तशती_सिद्धिं_कुरुष्व_जप_मात्रतः॥
#इदं_तु_कुञ्जिका_स्तोत्रं_मंत्र_जाल_ग्रहां_प्रिये।
#अभक्ते_च_न_दातव्यं_गोपयेत्_सर्वदा_श्रृणु।।

हे प्रिय!!अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि- "सां सीं सूं सप्तशती"पिछले अंकमें मैंने यह स्पष्ट किया था कि सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र #रूद्रयामलतंत्रोक्त #श्रीविद्या ही है!!और श्रीविद्या अर्थात #सप्तशती!!संक्षेप में यदि मै कहूँ तो #ॐ ही आप हैं और #श्री मैं हूँ!!

श्री को साध्य करना ही ॐ की साधना है!!जिसने माया अर्थात श्री या योनि को नहीं साधा!! वो भला ॐ में कैसे प्रवेश करेगा  ?
और हे प्रिय जो कठिन होता है उसे नकार देने,छोड़ देने की आदत तो विद्यार्थियों में होती ही है!!इसी कारण तो प्रणवोपासकों ने श्री को नकार दिया!! योनि- साधना को उपेक्षित तथा पापाचार की संज्ञा दे दी!!

इसी कारण शिव कहते हैं कि-
"इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये" यह मंत्र-जाल है!!ध्यान दें आप!! #मंत्र चाहे कोई सा भी हो!! वो वैखरी के विषय नहीं हुवा करते!! एक छोटी बात आप देखें- "ॐ" अथवा "श्री"क्या वैखरी की ध्वनियां हैं ?

नहीं मेरे प्रिय सखा तथा सखियों!!इस भ्रम को आप छोड़ दें!! मंत्र अर्थात #मंत्रणा ये तो विचारणीय होती हैं!!बारम्बार स्मरणीय तथा एकाग्रता से सोचनेके लिये तभी तो गुरुजनों कहते हैं कि आप मंत्रों का जप करो!!थोड़ा और मैं इस तथ्य को स्पष्ट करना चाहूंगी!

शिव ने अपनी प्रिया से कहा है कि- "मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये" हे प्रिये!! तू इस मंत्र-जाल को ग्रहण कर ले!! अर्थात तूं इस जाल में फंस जा  ?
अर्थात  इस मंत्र रूपी पिंजरे में फंस जा  ?
हाँ प्रिय!!यही कहा है शिव ने-शिवा से!!
और यही कोई भी सच्चे गुरुजन अपने शिष्यों को कहते भी हैं कि- #जपात_सिद्धि_जपात_सिद्धि_जपात_सिद्धि_वरानने।।

जाल कहते किसे हैं!!ये तो आप सभी जानते हैं!!जैसे कि पक्षियों,पशुओं और मछली को फंसाने के जाल होते हैं!!या पिंजरे होते हैं!! जिसमें एक बार वो फंस गये!! तो या तो उन्हें परतंत्र होना है!! अथवा अपने प्राणों को खो देना है!!और ये जाल फैलाया है शिकारी ने!! उन्हें फंसाने के लिये ही तो फैलाया है न !!

हे प्रिय!!ऋग्वेदोक्त अघमर्षण•सूक्त▪१०•१९०•१~३ इसीको कहता है कि-
#ऋतं_च_सत्यं_चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
#ततो_रात्र्यजायतततः #समुद्रो_अर्णवः।।
#समुद्रादर्णवादधि_संवतसरो_अजायत।
#अहोरात्राणि_विदधद्विश्वस्य_मिषतो_वशी।।
#सूर्याचन्द्रमसौ_धाता_यथापूर्कल्पयत्।
#दिवं_च_पृथिविं_चान्तरिक्षमथो_स्वः।।

ऋत अर्थात् योनि आकाशकी तरह व्यापक है!! अंधकारमय है!!असीम है!!और #सत्य ससीम है!! अर्थात योनि ही सर्व-व्यापक जीवात्म-तत्त्वको माया रूपिणी ऋत शक्ति से बाँधकर बिन्दु रूपी उसके भावको अपने जालमें फंसाकर #जीव_देहधारी बना देती है!!

मैं आपको एक बात कहूँ!!ऋग्वेद कहता है कि-"ततो रात्र्यजायत" #मैं अर्थात ईश्वरीय मोहनिशा और आप अर्थात #ब्रम्ह अभेद हैं!! हे प्रिय!! मैं आपका भेदन करती हूँ,और आप मेरा भेदन करते हो!!यह परस्पर मेरा आपका चला आ रहा मधुर-संग्राम!! अनादि काल से यही होता रहा है!!और अनंत काल तक होता भी रहेगा!!

मैं आपके बिन्दु से अथाह सृष्टि रूपी"ब्रम्हाण्ड सागर" की रचना करती रहूँगी!!और आप मुझपर जब भी विजय प्राप्त कर लोगे तो आप इन सृष्टिओं को मिटाते रहोगे!! जब भी आप विश्वामित्र बनोगे,तो मैं मेनका बनकर आपकी तपश्चर्या को भंग कर दूँगी!!और जब आप शिव बनकर अनंग को भष्म कर दोगे!!तो भी मैं पार्वती बनकर आपकी हो जाऊँगी!!

यही तो "मंत्र-जाल"है!! इससे न आप बच सकते हो,और न ही मैं बच सकती हूँ!!हम दोनों ही एक दूसरे के #मधुर-प्रतिद्वन्दी-सखा-सखी"हैं!!
"राधा-कृष्ण,सूर्य-चन्द्र और पती-पत्नी" हैं!! हे प्रिय!! सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र के द्वारा आप ही तो मुझसे कहते हो कि- "मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये"  ओ मेरी प्रेयसी तूं मेरे बिछाये इस मंत्र जाल में!!मेरी मधुर वाणी पर आकर्षित होकर मुझसे फंस जा!! और यह सुनकर मैं भी अपनी मधुर वाणी के मंत्र जाल में आपको फंसा लेती हूँ!!

यही तो #कुञ्जी है!!चाभी है!! हम-दोनों की!!मेरी तिजोरी की चाभी आपके पास है!!और आपकी तिजोरी की चाभी मेरे पास है!! मैं कभी भी आपकी चाभी आपको नहीं दूँगी!!क्यों कि मैं जानती हूँ कि आप भी मुझे मेरी चाभी कभी नहीं दोगे!!

हे प्रिय!!मैं जानती हूँ कि मेरी तिजोरी आप मेरे सहयोग के बिना कभी खोल नहीं  सकते!! और आपकी तिजोरी भी मेरे सहयोग के बिना कभी खुल नहीं सकती!! और मेरे प्रिय!! तभी तो यह जो मेरे और आपके बीचके अंतरंग पलों का वार्तालाप है-
"अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु" इसे गुप्त आप भी रखते हो और मैं भी रखती हूँ!!हाँ प्रिय!! यही "सर्जन-विसर्जन का अंतरंग गुप्त भेद है!!और #अभक्ते_च_न_दातव्यं_गोपयेत्_सर्वदा_श्रृणु।।

हे प्रिय!!अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि- "अभक्ते च न दातव्यं" अर्थात इस सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्रको किसी #अभक्त को नहीं देना चाहिये!! किन्तु ये स्तोत्र तो अभी तक मात्र गीताप्रेस गोरखपुर से ही ४० लाख से भी ज्यादा प्रतियों में छपा और बिक भी गया!!

अर्थात इसकी पूरे विश्व में अभीतक करोणों प्रतियाँ बिक चुकी हैं!!और यदि हिंदू लोगों की ही मैं बात करूँ तो क्या ५० करोण लोगों के पास पुरातन काल से लेकर आजतक ये स्तोत्र नहीं पहुंचा होगा ?

और दूसरी बात कि क्या ये सभी "अभक्त" हैं ?
और यदि ये सभी अभक्त हैं तो शिवाज्ञा के वचनों का उलंघन किसने किया ?
किया तो पार्वती जी ने ही!!
तब तो ये समस्या बड़ी ही गंभीर है प्रिय!!
आद्याशक्ति पर ही हमीं लोगों ने प्रकारान्तर से आरोप लगा दिया  ?

आजतक सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों तंत्रानुयायी लोगों ने मेरे निबंधों पर आपत्ति रखते हुवे कहा कि आप गुप्त भेदों को उजागर करके शिवाज्ञा का उल्लंघन कर रही हो!!आप ऐसा मत करो!! तो मैं उन्हीं लोगों से पूछना चाहती हूँ कि मेरे उपरोक्त्त प्रश्नों का क्या उत्तर है आपके पास ?

हे प्रिय!!"भक्त-अभक्त" तथा गुप्त-अगुप्त"को भी मैं आपसे समझना चाहूंगी!! इस हेतु मैं आपको महानिर्वाणतंत्र•९•२५२•वाँ वह मंत्र दिखाती हूँ जिसे आज कर्मकाण्डी पुरोहित वर्ग विवाह के अवसर पर #वर द्वारा उच्चारित कराते हैं- #दाता_कामो_गृहीतापि_कामायादाच्च_कामिनीम।
#कामेन_त्वां_प्रगृह्णामि_कामः #पूर्णोऽस्तुचावयोः।।

अर्थात हे कामिनी!!काम ही सम्प्रदान करता है,काम ही प्रतिगृह करता है,और काम ही कामको कामिनीदान करता है!!हे मेरी भार्या!!मैं कामके लिये तुमको गृहण करता हूँ!!हमारे दोनों के काम पूर्ण हों!!

अतः हे प्रिय!!आप यदि गृहस्थ हैं!!हे सखी!!यदि आप गृहिणी हैं!!तो ये कामवासना आपकी सहायिका तथा परमानंदमय मोहों से क्षय का अप्रतिम साधन है!!यह तो एक दूसरे को साधने की,पढने की कला है!!आप इससे जितना ही भागोगे यह आपको और सतायेगी!!और यदि भोगने की कोशिश करोगे!!तो भी आपको रुग्ण कर देगी!!तो आप जागकर इसे भोगो न!!सोकर भोगना बंद करना ही इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय है!!

सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्रमें पुनश्च ऋषि यही कहते हैं कि- "अभक्ते च न दातव्यं"जो बिचारे "स्त्री-पुरुष "अकेले हैं!! वे तो अकेले ही हैं!!अभक्त हैं!!वे तो जिगुप्सा जनित मनोविकारों से पीड़ित काम के शत्रु हैं!!उन्हे तो आँखें बंद करने पर"राम"नहीं दिखते"काम" दिखता है!! ऐसे अभक्तों को इस विद्या को देना व्यर्थ है!!

ऋग्वेदोक्त•वि•सू•३७•के श्लोक को आप देखें!!इस मंत्र का प्रयोग आपके विवाह अवसर पर आपके पुरोहितों ने अवस्य ही #भाँवरों के पश्चात किया होगा-
#तां_पूषञ्छिवतमामेरयस्वयस्यां_बीजं_मनुष्या_वपन्ति।
#या_न_उरू_उशति_विश्रयाते_यस्यामुशन्तः #प्रहराम_शेषम।।

ऋषि कहते हैं कि,हे पूषा!!( आप ध्यान देना!!ये पूषा नामक ऋषि जब दक्ष प्रजापति ने शिव-निन्दाकी थी तो ये दांत दिखाकर हँस रहे थे!!इसी कारण वीरभद्र ने इनके दाँत तोड़ दिये थे!!और तभी ये सुधरे थे)

आप इस कन्याको कल्याणी बनाकर भेजो!!अर्थात वह कामिनी होकर अपनी ईन्द्रिय को विस्तारित करेगी!! और मैं कामवश होकर उसमें अपनी ईन्द्रिय के प्रहार द्वारा बीजों को स्थापित करूंगा!!

अब जो बिचारे कामिनी विहीन हैं!!अथवा जिन स्त्रीयों को वर-प्राप्ति नहीं हुयी!!और चाहे किन्ही भी कारणों से नहीं हुयी हो!!उन्हे कदापि इस ज्ञान को नहीं जानना चाहिये!!क्यों कि वे जानेंगे तो या तो कामासक्त होकर समाज को नष्ट करेंगे!! अथवा समाज को विवाह-संस्था के प्रति भ्रमित कर!! स्वच्छन्दाचारी बनायेंगे!! अथवा वे वासना के निंदक बनकर वेदाज्ञा का ही उल्लंघन करेंगे!!

हे प्रिय!!कार्लमार्क्स हों अथवा आधुनिकतम तथाकथित समाजवादी,शिक्षाविद्-  अथवा कि ब्रह्मचर्य की गलत मिमांसा करने वाले लोग हों या कि अर्थशास्त्री  इन सभी लोगों ने मिलकर आपकी माँ,भार्या अथवा कन्याओं को आपसे छीन लिया!!!

#औरत बना दिया!!बस एक शरीर मात्र!!हम भी प्रतिक्रियावादी बन गयीं!! हे प्रिय!! मैं तो माँ हूँ!! मैं मात्र शरीर नहीं हूँ!!सन्तान उत्पन्न इस शरीर से होती है!!माँ,भार्या,कन्या, प्रेयसी तो भावना तथा विशिष्ट उर्जा का नाम है!! जो आपकी छमताओं का रूपान्तरण कर दे उसे माँ कहते है!!

अतः शिव कहते हैं कि हे पार्वती!! "गोपयेत् सर्वदा श्रृणु" आप सुन लो कि ऐसे अभक्तों से इस विद्या को कहना व्यर्थ है!!और इसीके साथ इस श्लोक का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!

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