Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~१० अंक~१०

#क्रां_क्रीं_क्रूं_कालिका_देवि_शां_शीं_शूं_मे_शुभं_कुरु॥
#क्रां_क्रीं_श्रीं_मे_शुभं_कुरु_ऐं_ॐ_ऐं_रक्ष_सर्वदा।
#ॐ_ॐ_ॐ_कार_रुपायै_ज्रां_ज्रां_ज्रम्भाल_नादिनी।

हे प्रिय!!पुनश्च आगे अब शिव-सदृश्य ऋषि कहते हैं कि- "क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि" मैं कालिमा हूँ!! अज्ञानमयी अंधेरे में खोयी हुयी #महाकाली आप मुझे Mother Dark nias अर्थात अंधेरे की माता भी कह सकते हो!!और आप देखो तो-मेरा अज्ञानी रहना!! अविवेकी रहना!! अंधेरे में रहना ही आपके लिये हितकर है!!

मैं जब भयंकरी हो जाती हूँ!!आपके ऊपर विराजमान हो जाती हूँ!!तब आप मेरे स्वामी हो यह भी भुला देती हूँ!! तभी तो आप मुझे #भद्रकाली कहते हो!! हे प्रिय!!श्रीदु•सप्त•८•५६~५७•में कहते हैं कि-
#इत्युक्त्वा_तां_ततो_देवी_शूलेनाभिजघान_तम्।
#मुखेन_काली_जगृहे_रक्तबीजस्य_शोणितम्।।

ऋषि कहते हैं कि जब दुर्गा रक्तबीज का वध करने को उद्यत होती हैं!!तो उन्हें कालिका के सहयोगकी आवस्यकता होती है!! और वे कालिका से कहती हैं कि जब मैं रक्तबीज पर शस्त्राघात करूँगी तो उसके रक्त को तूं भूमि पर मत गिरने देना!!

अब मैं आपको पुनश्च कुलाचरण का स्मरण दिलाना चाहूंगी!! भैरवी के पुष्प यदि चक्राचारिता में भूमिपर गिर गयें!!तो यह बिल्कुल ही स्पष्ट है कि उसके साधक कुलाचार्य अधूरे हैं!! वे उसके रक्तप्लावित पुष्पों का मर्षण करने में समर्थ नहीं हैं!! वे वज्रोली क्रिया से अनभिज्ञ हैं!! और ऐसा ही अधिकांशतः अच्छे किंतु सामान्य साधकों के साथ साधनारंभ में होता भी है!!

हे प्रिय!!ऋषि ने पहले ही कह दिया था कि #विस्तीर्णं_वदनं_कुरु!! मैं आपको इसी तथ्य को समझाने का प्रयत्न कर रही हूं कि भैरवी आपको पुष्प-समर्पित तो कर सकती है,किन्तु उन पुष्पों का भक्षण ही होना आवस्यक है!! यदि वे व्यर्थ में यज्ञकुंड के बाहर फैल गये तो भैरवी का शोषण भी हुवा और आचार्य की साधना भी व्यर्थ हो गयी!!

आप स्मरण रखें कि काली का रक्तपानार्थ पात्र खप्पर है!! #खप्पर अर्थात दरियाई-नारियल का अर्धांड़्ग अथवा #कपाल-पात्र!! ये जो तांत्रिक मानव कपालों को पात्र बनाते हैं,अथवा खप्पर से मदिरादि पान करते हैं!! वे सत्य से बहुत ही दूर हैं!! उन्होने तो बस कथाओं को पढ लिया और उसका अंथानुकरण करने लगे!!

ऋषि कहते हैं कि-
#रक्तबिन्दोः #प्रतिक्ष_त्वं_वक्त्रेणानेन_वेगिना।।
चक्रान्तरगत जब रज-निष्क्रमण होता है!!तो शव के सदृश्य निश्चेष्ट पड़े शिव इसी की तो प्रतिक्षा करते हैं!!उनके विशिष्ट-अंग का मुख "वक्त्रेणानेन वेगिना" उस वेग पूर्वक  प्रवाहित रज-रश्मियों को तत्काल ही अपने भीतर खींच लेता है!! हाँ प्रिय यह पुरुषांड़्ग् ही कालिका का खप्पर है!!

मंत्र में कहते हैं कि "क्रां" #क अर्थात कालिमा" कालिमा में छुपी #र रति-शक्ति की "●"बिन्दु स्वरूपिणी अथाह नूतन सृजनात्मकीय प्रक्रिया की अ-कार स्वरूपी ईच्छा!!

"क्रीं" #क अर्थात कालिमा" कालिमा में छुपी #ई रति-शक्ति की "●"बिन्दु स्वरूपिणी अथाह नूतन संतानों के पोषण की ई-कार स्वरूपी ईच्छा!!
और क्रूं" #क अर्थात कालिमा" कालिमा में छुपी #ऊ शक्ति की "●"बिन्दु स्वरूपिणी अथाह ऊर्धवगमनानुकूल की ऊ-कार स्वरूपी पुष्प-वर्षा!!

और यदि एसा संभव होता है तो मैं कालिका ही!!मैं निर्वस्त्रा-विसर्ग अंधकारमयी वासना की जड़ प्रतिमा "शां शीं शूं मे शुभं कुरु" आपके शव के अ-कार अर्थात पुनः संतानों को जन्म देने वाले बीज का संहार कर दूँगी!!

"शीं" अर्थात आपके बाह्यगमनेच्छुक बीजोंको, कामनाओं को अपनी शक्ति से वापस आपके ही भीतर ढकेल दूँगी!!
और "शूं"उसी शक्ति के प्रभाव से आप ऊर्ध्वगामिता को प्राप्त हो जाओगे!! आप मुझसे अपना शुभ होने की प्रार्थना करो!!

हे प्रिय!!यह तो अंधकार के द्वारा प्रकाश में प्रवेश की विधा है!आपके भीतर जो घनघोर अंधकार फैला है!!जो आपके अपने शरीर में अनेक स्थानों पर ढंके हुवे दीपक पड़े हैं!! उन दिपकों को आवरण-हीन करने की विधा है!!

आप यह स्मरण रखें कि आपकी कुण्डलिनी जब-जब जागती है तो तीव्र गति से वो बाहर की तरफ ही अपना ऊर्जा-पात करने को ब्याकुल रहती है!! बारम्बार वह बाहर की तरफ ही भागती है!!और जब तक वह आदेश चक्र में मेरे द्वारा प्रविष्ट नहीं होती!! तबतक तो ये बीच के दीपक- जलते और बुझते ही रहेंगे!!

और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!

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