Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~९ अंक~९

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विलंबिकण्ठकंदलीरुचिप्रबंधकंधरम्‌
अर्थात प्रफुल्लित नील कमलों के सदृश्य स्यामल प्रभा युक्त जिनके कंठ में मृगी का चिन्ह सुशोभित हो रहा है!!मैं एक बात बारम्बार कहूँगी कि शिवताण्डवस्तोत्र का प्रत्येक पद आप देख लें विशुद्धतम कुलाचार की पुष्टि करता है!!

अर्थात वैदिक मार्ग है यह!!आप कभी-कभी ये भी सोचते होंगे कि मैं कई निबंधों में "कामसूत्रो"का प्रयोग ज्यादातर करती हूँ!!तो ऐसा क्यूँ करती हूँ ?
आप ही विचार करो!!जब सनातन के प्रखर ध्वजवाहक शंकराचार्यजी ने आचार्य मण्डन मिश्र को पराजित कर दिया तो उनकी भार्या सरस्वतीजी ने शंकराचार्य जी से पूछा था कि-
#कलाः #कियन्तो_वद_पुष्पधन्वनः ?
आप बताओ काम की कितनी कलायें हैं ?
संभोग की कितनी विधायें हैं  ?
और शांत हो गये थे आद्याचार्यजी भी!!

और अंततः उन्होनें सद्योमृत महाराजा #अमरू की काया में प्रवेश कर उनकी रानियों से कामकलाओं को जाना!!अन्यथा उनका विजय-रथ तो वहीं समाप्त हो जाता!!अतः हे प्रिय!!प्राचीनकाल की हम भारतीय बालायें कामकलाकोविदा होती ही थीं!!

महर्षि वात्स्यायन का•अधि•२•अ•१•सू•१•में कहते हैं कि-
#शशो_वृशोऽश्व_इति_लिड़्ग्तो_नायकविशेषाः।
#नायिका_पुनर्मृगी_वडवा_हस्तिनी_च।।
अर्थात "स्त्री-मंदिर"तथा "पुरूष-वज्रानुसार" मृगी,वडवा तथा हस्तिनी ये तीन प्रकार की नायिकायें होती हैं!! और "शशक,वृश और अश्व"ये तीन प्रकार के नायक होते हैं!!

और हे प्रिय!!पद्मिनी नारि तथा शशक नायक ही अष्टांग योग के पथिक अर्थात सतत ब्रम्हचर्य के द्वारा अपना कल्याण नियोजित करने में एकलवायी जीवन भी बिना विषयों की चिंता किये व्यतीत कर सकते हैं!!अर्थात-
#नियतं_नेति_केचित्तु_परिणाहं_प्रचक्षते।
#स्त्रीणां_संसारमार्गो_वा_कुलाचारोऽपि_तद्वदेवप्रभिद्यते।।

इसके साथ ही साथ यह भी चिन्तनीय है कि कुलाचारान्तर्गत किस प्रकार की भैरवी प्रशस्त है वह इसी श्लोक में दशानन ने स्पष्ट कर दिया है कि "वलम्बि.......कंधरम" अर्थात मृगी अर्थात #पद्मिनी जिनके नेत्र मृग के समान हों,नेत्रों के कोण रक्ताभ हों,पूर्ण चन्द्र के समान मुख,शिरिष अथवा कमल के समान जिस कन्या के मुख प्रफुल्लित हों!!जिनके वक्ष विल्व फल की तरह कठोर,शरीर की कांति सुवर्ण पंकज के जैसी और चम्पक पुष्प के सदृश्य जिसका रंग हो!!तनु काया,सदैव आध्यात्मिकता में रुचिवान हो!!

अल्प भोजन कर्त्री,कोकिला के सदृश्य वाणी,अल्प निद्रा,हंसिनी जैसी चाल,स्वक्षता प्रिय!!कबूतरी के सदृश्य ग्रीवा,लज्जावती,विशाल केशी,६ अंगुल गहेरी मंदिर युक्ता,धवल मुक्ता के सदृश्य दंत-पंक्तियों से युक्ता सुंदर प्राकृतिक सुगंध युक्ता तथा कफ प्रकृति की कन्या ही "मृगी अर्थात पद्मिनी"कही जाती हैं!!

और हे प्रिय!!सांसारिक संसर्गों हेतु ऐसी कन्याओं का विवाह शशक पुरूष से ही शोभा देता है!!किंतु कुलाचार्यों ने वृशभाध्वज अर्थात मोटी ग्रीवा,सुन्दर चाल,रक्ताभ हाँथ-पैरों के तलवे वाले,स्थूल,मृदुभाषी, स्थिर-दृष्टि फलक,कच्छप के सदृश्य उदर वाले,मेदयुक्त, ९ अंगुल के वज्र युक्त,कान-शिर और बड़े ओठों वाले,सघन केश,कुटिल,लम्बी अंगुलियों वाले,जिनकी आवाज में मेघ के समान गंभीरता हो!!और पित्त-प्रकृति अर्थात क्रोधी प्रवृत्ति के श्रेष्ठ पुरूष ही एक श्रेष्ठ कुलाचार्य हो सकते हैं!!

और उपरोक्त ये सभी गुण राधा-कृष्ण,शिव-शिवा अथवा किन्ही भी ज्ञात आचार्यों अथवा श्रेष्ठ भैरवी में आपने पढा तो होगा ही!!नहीं देखा!!ये एक अलग विषय है!!अर्थात एक मृगी ही वृषभाध्वज की अपर्णा बन सकती है!!और इसका भी कारण है सभी प्रकार की कन्याओं में सर्वोपरि मृगी तथा पुरूषों में वृषभाध्वज को ही कहते हैं!!और श्रेष्ठतम पूष्प ही ईष्ट को समर्पित करना उचित होता है!!

हे प्रिय!!क्या आप विश्वास करेंगे तंत्र जगत की एक सच्चाई को!!जिन महा आचार्यों की साधना किसी कारण एक जन्म में पूर्ण नहीं होती!!और ये सत्य है कि कुलाचार्य कई जन्मों के प्रयासों से ही सिद्ध होते हैं!!और कोई श्रेष्ठ कुलाचारी ऐसी पद्मावती सदृश्य भैरवी का आह्वाहन कर उन्हे जन्म लेने हेतु निवेदन करते हैं,अथवा बाध्य करते हैं!!

अर्थात बिल्कुल विपरीत धर्मी!! किन्तु अश्व पुरूष और हस्तिनी नारी कदापि और किसी भी प्रकार से साधना के  योग्य तो हो ही नहीं सकते!! ये तो सामान्य सांसारिक स्त्री-पुरूष हैं!!हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-
"प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विलंबिकण्ठकंदलीरुचिप्रबंधकंधरम्‌"
पिछले अंक से मैं आपसे मृगी नारि तथा वृषभाध्वज पुरूष की चर्चा कुलाचारान्तर्गत करती आ रही हूँ!! वस्तुतः यह साधना की वो कक्षा है जिसे मृगी अर्थात पद्मिनी कन्या के बिना कोई भी योग्य आचार्य सिद्ध कर ही नहीं सकता!!

आप जरा विचार करो- "प्रपंचकालिमच्छटा"मैं माया हूँ!!और ये सब प्रपंच मैंने ही रच रखा है!!आपको अपने समीप रखने के लिये!!मैं आपको अपनी बाँहों से मुक्त नहीं करना चाहती!!मुझ अकेली को भय लगता है न!!तो आपको मोहित करके आपसे अपना संसार बसा लेती हूँ!!आपको और भी बड़े पिंजरे में कैद कर अपना गुलाम बना लेती हूँ!!नाचते हो आप मेरी मोहक अदाओं पर!! ये जब मेरे तीर बेकार हुवे!! तो आँसुओं के तीर से आपको घायल कर देती हूँ!!

किन्तु प्रियजी!!एक बात और भी है!!मुझमें जो ऊर्जा है न,और आप में #विवेक यदि ये दोनों मिल जायें!! आपमें मुझे देखकर भी,मेरे साथ रहते हुवे भी!!यदि आप जागते रहो!!उन अंतरंग पलों में भी आप जागते रहो!! तो मैं मृगी हूँ!!बिल्कुल #मृगछौने की तरह कुलाँचे लगाती हुयी आपके गले से लिपट जाऊँगी!! किंतु इसके लिये भी आपको मुझ #षोडसी के रहस्यों को समझना होगा!!

हम आप मनुष्यों के सोलह विशिष्ठ गुणों या शक्तियों को ही षोडशकला कहते हैं!!इस तथ्य की पुष्टि हेतु शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में कहते हैं कि- #षोडशकलो_वै_चन्द्रमाः
#षोडशकलो_वै_पुरुषः #षोडशकलो_वै_ब्रह्म #षोडशकलं_वा_इदं_सर्वं!!

और इसी हेतु यजुर्वेद•८•३६• में कहते हैं कि-
#सचते_स_षोडशी”
मेरे प्रियतमजी ने अग्नि-मुझमें, वीर्य-आपमें और विद्युत् हम दोनों की संयुति में इस प्रकार इन तीन ज्योतियों को प्रजा के प्रकाश के लिए रच के संयुक्त किया है  जिसका नाम षोडशी है!!और हे प्रिय!! ये तीनों मिलकर ही सृष्टि का विसर्जन भी करते हैं!!

मैं आपको अभी पिछले अंक में ही बतायी थी कि मृगी और वृषभाध्वज के संयोग को ही कुलाचार्य मान्यता देते हैं!!और साथ ही ये भी पौराणिक सिद्धांत कहते हैं कि #शिव ने शिवा में #नख_क्षत्त के द्वारा "योनि"का विस्तार किया!!अथवा उनकी संरचना की!!इसमें भी रहस्य है!!दशानन कहते हैं कि-
"स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे"

हे प्रिय!!पद्मिनी अर्थात मृगी कन्या का "मन्दिर" ६ अंगुल का होता होता है!!और वृषभाध्वज की पताका ९ अंगुल की होती है!!अर्थात मंदिर छुद्र है!!और प्रतिमा विशाल है!!अतः वृशभाध्वज ने मंदिर को विस्तारित किया! और ऐसा क्यूँ किया!!इसमें भी भेद है!! उन्होंने "मखच्छिदं"मख अर्थात दिव्य यज्ञ हेतु यज्ञ वेदि का विस्तार किया!!

तो कोई ये भी तो प्रश्न कर सकते हैं न कि ये तो #शोषण है!!यौन कुण्ठा अथवा यौन-अपराध है ?
तो ऐसे प्रश्नकर्ताओं को ये तो सोचन होगा न कि ऐसा शिव-पुरूष ने सृष्टि सृजन अथवा वासनात्मक आनंदों हेतु नहीं किया!! उनके लिये तो ये एक मंदिर है!! तो फिर भी किया क्यूँ ऐसा ?

महर्षि बाभ्रवीय ने कहा है कि-
#पौरुषं_मेहनं_यत्र_मेहने_परिध्रष्यते।
#भावकालौ_समानौ_च_तद्रतं_ श्रेष्ठमुच्यते।।
अत्यंत ही गूढ रहस्य हुवा करते हैं कामात्मक विधाओं में!!जो इन्हें नहीं जानते वे अपने साथ-साथ शारीरिक संरचनाओं का भी उपर्युक्त प्रयोग करने से वंचित रह जाते हैं!!

हे प्रिय!! कामसूत्रों के अध्येताओं ने इस संदर्भ में कालीदासजी को भी उद्धृत किया है-
#योषितः #पुनरेतदेव_विपरीतमिति_अत्रापि_प्रकृतिस्थायाः #प्रथमरतेस्व_भेदापेक्षया_चिरवेगता_च_दृष्टव्या।।

(१)=प्रथम सहवासान्तर्गत पुरुष शिघ्र ही भावको प्राप्त होते हैं!!और प्रकृति को भाव-प्राप्ति विलंब से होती है!!
(२)=और द्वितीय,तृतीय-चतूर्थ समागमों में पुरूष की स्थिरता बढती जाती है!!और प्रकृति उनकी अपेक्षा जल्दी जल्दी ही भावों को प्राप्त होती जाती हैं!!ये नैसर्गिक विधान है!!
(३)=हस्तिनी की अपेक्षा वडवा तथा वडवा की अपेक्षा मृगी शीघ्र भावों को प्राप्त होती हैं!!
(४)=अश्व की अपेक्षा वृशभ तथा वृशभ की अपेक्षा शशक शीघ्र भाव को प्राप्त होते हैं!!

(५)=हस्तिनी तथा अश्व सदैव ही साधनान्तर्गत अपनी कामुकता के कारण व्यर्थ हैं!!
(६)=और महत्वपूर्ण यही है कि साधनान्तर्गत चक्रचारिता में भैरवी का बारम्बार पुष्प-प्रदान ही चक्रभेदन में मुख्य हेतु है!! इसी कारण पद्मिनी अर्थात मृगी को ही श्रेष्ठ भैरवी की संज्ञा दी गयी है!!
पद्मिनी के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रकृति श्रेष्ठ आध्यात्मिक सहचरी और समर्पिता हो ही नहीं सकतीं!!

(७)=शशक पुरूष अपने यंत्र की लघुता तथा अश्व पुरूष कामुकता के कारण इस मार्ग में त्याज्य हैं!!
(८)=वृषभ पुरूष अपने क्रोध,संयम,कुटिलता, निरपेक्षता, विस्त्रित-यंत्र के कारण शिघ्र ही ऊर्ध्वीकरणात्मक प्रक्रियाओं को सम्पन्न करने में समर्थ हो पाते हैं!!

हे प्रिय!!ये और ऐसे ही अन्य भी अनेक कारण हैं जो कि "स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं"
इस श्लोकांश के मूल भाव की व्याख्या करते हैं!!

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि- "स्मरच्छिदं पुरच्छिंद" जब मेरे पूर्व के अंक-व्याख्यानुसार मृग नयनी भैरवी "स्मरच्छिदं" काम वासना के स्मरण से भाव को प्राप्त होती हैं!!अर्थात वे पुरूष को पुष्प दान करती हैं!!तो ऐसी स्थिति में वृशभाध्वज के #त्रिपुरों का छेदन होता है!!अर्थात भैरव के पाताल-पृथिवि तथा स्वर्ग तीनों ही लोकों का उत्छेदन हो जाता है!!

किन्तु इसकी प्रथम शर्त है कि उसके भावों का छेदने प्रथम ही हो चुका हो!!हे प्रिय!! मैं बारम्बार कहती आ रही हूँ कि मैं कुलाचारिणी हूँ!!अतः स्पष्ट कहना मेरे लिये संभव है तथा स्पष्ट समझना भी आपके लिये श्रेष्ठ होगा!! अभी तो मैं एक बात और भी कहूँगी!!

पुराणादि गृंथों में शिव को भाँग आदि देने का विधान है!!अर्थात मैं मान सकती हूँ कि भाँग का सेवन मात्र साधनेच्छुक पुरूषों हेतु साधनाकाल में अवर्जित हो   सकता है!!क्यों कि इस हेतु चरक तथा सूश्रुत आदि ने भी विजया को #वासना_विजय तथा स्तंभन हेतु श्रेष्ठ काष्ठ औषधि के रूप में स्वीकार किया है!!तथा इसे परम #वाजिकर भी माना है!!

तथा स्त्री अर्थात षोडसी हेतु #सोमरस पान का विधान भी शाक्त तथा शैव्य गृंथों में बहूतायत से प्राप्य है!! और इसके अनेक प्रमाण आपको वात्स्यायन के सूत्रों में भी मिल जायेंगे!!और इसका कारण भी है!!ध्यान तथा एकाग्रता हेतु प्राचीनकाल से ही यज्ञान्तर्गत सोमरस पान का विधान है!!और वह भी प्रथम ईन्द्र अर्थात इन्द्रियों को अर्पण करने का विधान है!!

इस संदर्भ में मैं आपको का यह श्लोक दिखाना चाहूंगी-
पद्मपुराण•सृष्टि•१• अ•३१• मं•२५~२६
#मा_स्वादितंन_चान्वेन_भक्ष्यार्थे_च_ददाम्यहम्।
#अद्यो_भागे_च_मेनाभेवर्तुलु_फल_सन्निभौ। #भक्ष्यध्वंहि_सहिता_लम्बौ_मे_वृष्णाविमौ।।

अर्थात- क्षुधातुरा कालिका कहती हैं कि हे शिव!! मुझे आप कुछ भक्षण हेतु दो!!तो शिव कहते हैं कि मेरे नाभि-स्थल के अधोभाग में दो वर्तुलाकार फलों के मध्य जो वज्र है!!जिसका भक्षण आजतक किसीने वृष्ण सहित नहीं किया!!आप उसका भक्षण करें!!

वैसे इसका सामान्य अर्थ आपको अत्यंत ही अश्लील लगेगा!!और इस श्लोक की आड़ लेकर अनेक सनातन विरोधी पुराणों का उपहास भी करते हैं!!और आश्चर्य की बात ये है कि वे वात्स्यायन के कामसूत्र पर कभी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाते!!ऐसी दोहरी मानसिकता वालों को इस तंत्रात्मकीय श्लोक के निहितार्थ को समझना आवश्यक है न!!

जैसे कि लोगों ने इस श्लोक का संकेत #मुख_मैथुन से जोड़ कर सनातन की मर्यादा का ही मर्दन करने का घृणिततम प्रयास कर डाला!! उनहोंने ये कदापि नहीं सोचा कि"मुख-मैथुन"और इस श्लोक का दूर-दूर तक भी सम्बन्ध है ही नहीं!!क्यों कि इसके भी कारण हैं-
पद्मिनी कन्या तो गौर-वर्णा होती हैं!!
और शिव अर्थात कुलाचार्य संभोग स्वयं तो करते नहीं!!

और वैसे भी समागमनार्थ किन्ही भी आचरणों का प्रयोग सनातन तो क्या विश्व की किसी भी संस्कृति में वर्जित नहीं है!!
अर्थात जब वासना के आवेगों और सोमरस के प्रभाव से भैरवी का मन्दिर अर्थात अंतःप्रान्त ये तो तमाच्छादित अर्थात कालिमा युक्त होगा ही!! हे प्रिय आप स्मरण रखें कि मदहोश मृगी ही आचार्य से प्रार्थना करती हैं कि आप मेरी क्षुधा को शांत करो!! और यह नैसर्गिक है!!

और तो और सूरदासजी भी कहते हैं कि-
#क्रीडा_करत_तमाल_तरून_पर,
#श्यामा_श्याम_उमँगि_रस_भरिया।
#यों_लपटाय_रहे_उर_उर_ज्यों,
#मकरत_मणि_कंचन_में_जरिया।
#उपमा_काहि_देउं_को_लायक,
#मन्मथ_कोटि_वारने_करिया।
#सूरदास_बलि_बलि_जोरी_पर,
#नन्द_कुमर_वृशभानु_कुमरिया।।

हे प्रिय!!गीत-गोविंद जैसे गृंथ ही नहीं ऋग्वेद तथा कई एक उपनिषदों में भी प्रकारान्तर से स्त्री द्वारा ही रति करने के सैकड़ों उदारहण आपको मिल जायेंगे!!
जब प्रकृति क्षुधातुर होती है तो इसी में आचार्य की सफलता भी नीहित है!!

और ये स्पष्ट है कि- "तमंतकच्छिदं भजे"
मैं आपको एक बात कहूँ  ?
पुरूष #संभोग करने के लिये प्रेम करते हैं!!
और हम स्त्रीयाँ #प्रेम करने के लिये समागम करती हैं!!
और #ऋषि_परमार्थ_प्राप्ति के लिये संभोग करते हैं!!

इस भेद को जो नहीं जानते उनका वेद,शास्त्र, उपनिषद, गीता या कुछ भी पढना समझना व्यर्थ है!! और तो और अजंता-एलोरा की गूफाओं में भी जिन संसर्गात्मक ८४ आसनों के भित्ति-चित्र हैं उनमें "नैसर्गिक-अनैसर्गिक"दोनों ही प्रकार की अनेक मुद्राओं तथा सामूहिक-सहवास तक के चित्रांकन किये गये हैं!! और वात्स्यायन,पौराणिक गृंथों,वेदों की ऋचाओं और अनेकानेक सनातन तथा बौद्ध गृंथों में भी आपको इनके उदारहण मिल जायेंगे!!

वात्स्यायन•का•सू•अधि•२•अ•९•२३• तथा •१३• में कहते हैं कि-
#पुरूषाभिप्रायादेवा_गिरित्पीडयेच्चापरिसमाप्तेः।
और तो और इस अधर समागम के एक दो नहीं बल्कि #आठ आसन वात्स्यायन,कालीदास,नल,कोक और अनेक कामाचार्यों ने बताये हैं!!
#निमित्तं_पार्श्वतोदृश्टं_बहिसंदशोऽन्तःसंदंशश्चुम्बितकं_परिमृष्टकमाम्चूषितकं_संगर_इति।।
अर्थात "निमित्त,पार्व-उदिष्ट,बाह्य संदेश,अन्तः संदेश, चुम्बन,मरिमार्जन,चोष्य और संगर"।।
हे प्रिय!!मैं अनैसर्गिक समागम की #वैध्यता पर चर्चा कर रही थी!!ये एक ऐसा गंभीर विषय है जिसपर सभी चर्चा करने से डरते हैं!!किन्तु इसपर लोगों की विशेषतः एक विचित्र सी जिगुप्सित भावना दबी-कुचली सी उन्हे भ्रमित भी करती रहती है!!

और वैसे भी शुक्र तथा पुष्प के वास्तविक द्रब्यों के प्रति अज्ञानता ही आज समाज को और विशेषतः संस्कारों का तीव्र गति से क्षरण भी करती जा रही है!!इस वैद्यकीय तथा शाश्वत सत्य से कोई भी असहमत नहीं हो सकते कि हम स्त्रीयों के स्राव निःसंदेह दुःषित रक्त से युक्त होते हैं!!और ऋतु उपरान्त भी अंगों में इनमें #विषाणु होते ही हैं!!कृमि तो हैं ही!!ऐसी स्थिति में भार्या अथवा भैरवी,प्रेयसी अथवा अन्यान्य किन्ही भी स्त्रीयों के विशिष्ट अंगों का चुंबन सर्वथा ही त्याज्य तथा विभिन्न व्याधियों का जन्मदाता है!!

ये तो साक्षात हलाहल विष है!!और ये बिल्कुल सत्य है कि इस विष का अंतर्गमन उर्ध्वीकरण का कारक है!! किन्तु मर्षण से अथवा वज्रोली द्वारा ही यह हलाहल विष भी शिव को नीलकंठ बना देता है-
" विलंबिकण्ठकंदलीरुचिप्रबंधकंधरम्‌"

कदाचित पशु भाव तो नैसर्गिक है किन्तु भैरवी तो मोहिता है!!और आचार्य विमर्शक!! इसी हेतु आचार्यों का कुटिल और कठोर ह्यदय होना आवश्यक कहते हैं!!

और हे प्रिय!! इसके बिल्कुल विपरीत पुरुषों के #अंतः_स्वरस में जिस प्रकार #मधु मधुमक्खियों द्वारा प्रथम ही पचाया हुवा सिघ्र ही सुपाच्य है!! बिलकुल वैसे ही आपके रसराज में सप्त-धातुयें स्वतः ही पचायी हुयी विद्यमान हैं!!अतः ये तो शारीरिक संरचना का सिद्धांत है कि शरीर उसकी ही ईच्छा करता है जो सिद्धान्ततः ग्राह्य और उचित हो!!

और यही कारण है कि ९९ % पुरूष अधर-मिलन की ईच्छा रखते हैं!!और इन ईच्छाओं की पूर्ति न होनेपर वेश्यागमन तक हेतु बाध्य हो जाते हैं!!अथवा मानसिक रूप से इनकी इच्छाओं में कुंठित रहते हैं!! और ये स्त्रीयों हेतु विषाक्त भी नहीं है!! और ये भी सत्य है कि अपने प्रिय को अपने आपमें ही आकर्षित रखने हेतु प्रिया कुछ भी करने हेतु तत्पर होती हैं!! तभी तो हमें ऋषियों ने #समर्पिता कहा है!!

और वैसे भी कुलाचरण का यह सिद्धांत है कि उसका कोई भी सिद्धांत नहीं है!!इसकी ये विशेषता है !! हे प्रिय!!वेसे भी पती -पत्नी अथवा साधक और साधना सामग्री में कोई भेद होता है क्या ?
आपने गोरखनाथजी के इन शबदों को सुना तो होगा ही-
#नदी_तीरे_बिरिखा_नारी_संगे_पुरखा,
          #अलप_जीवन_की_आसा ।
#मन_थैं_उपजी_मेर_खिसि_पडइ,
           #ताथैं_कंद_बिनासा ।।
#गोड_भये_डगमग_पेट_भया_ढीला,
            #सिर_बगुलाकी_पँखियाँ ।।
#अमी_महारस_बाघणि_सोख्या ।
#कंत_गयाँ_कूँ_कामिनि_झूरै_बिंद_गयाँ_कूँ_जोगी ।।

हे प्रिय!!दशानन यही कहते हैं कि कोई ऐसी विलक्षण समर्पिता मृगी ही-
"प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विलंबिकण्ठकंदलीरुचिप्रबंधकंधरम्"
मेरे नीलकंठ की ग्रीवा में स्थिर हो सकती हैं!!

और ऐसी महाभैरवी ही-" स्मरच्छिदं"अपने प्रियजी के लिये कामकलाकोविदा होती हुयी!!वासनानोन्मुखी होती हुयी अपनी वासनाओं से उन्हे वासनातीत कर देती हैं!!अर्थात ये एक बलिदान है!!जिनके बलिदान के कारण ही तो-" पुरच्छिंद"आपके पुरों का भेदन होता है!!

परिणामतः"मख"अर्थात यज्ञवेदी का भी छेदन संभव है!!लोगों ने इसका अर्थ दक्ष प्रजापति के यज्ञ-विध्वंश से किया है!!और यह अर्थ उचित भी है!!मैं इसे भी आपसे दो भावों में समझने का प्रयत्न करती हूँ !! जो प्रजाओं को उत्पन्न करने में दक्ष हैं!!वे ही प्रजापति हैं!!अर्थात प्रजावान!!किन्तु दशानन ने स्पष्ट रूप से मखच्छिदं के द्वारा यह स्मरण रखा है कि- "शिव" प्रजाओंकी उत्पत्ति में रुचि नहीं रखते!!

और जो प्रजाओं की उत्पत्ति में रुचि नहीं रखते!! वे महा-कपालि ही कुलाचार्य के योग्य हो सकते हैं!!
शिवताण्डवस्तोत्रम्~९~५ अंक~३०

#स्त्रीयाँ_वे_प्रकाशस्तंभ_हैं_जिनके_वासनामय_आलोक_में_दिव्य_प्रकाश_का_महासागर_हिलोरें_ले_रहा_है!!

मेरे प्रियसखा तथा प्यारी सखियों!!अनेकानेक लोगों के आग्रह तथा अंतःप्रेरणा के वशीभूत होकर मैं अपने गुरुदेव #भगवान_अवधूतरामजी के श्रीचरणों में अर्पित करती हुयी इस स्तोत्र की भाव-प्रबोधिनी का ३० वाँ पुष्प निवेदत करती हूँ-

# प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमच्छटा-
        #विलंबिकण्ठकंदलीरुचिप्रबंधकंधरम्‌
#स्मरच्छिदं_पुरच्छिंद_भवच्छिदं_मखच्छिदं
        #गजच्छिदांधकच्छिदं_तमंतकच्छिदं_भजे ॥

दशानन कहते हैं कि- "मखच्छिदं"यह निश्चित है कि सती के देह त्याग के परिणाम स्वरूप शिव ने दक्ष- प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस कर दिया!! अर्थात क्या ये कार्य उनका प्रतिक्रियात्मक था अथवा इसके और भी कारण हैं!!ये भी तो विचारणीय है न ?

और इसी हेतु दशानन आगे कहते हैं कि- "गजच्छिदांधकच्छिदं" #गजासुर_तथा_अंधकासुर के वधकर्ता!! अब ये गजासुर और अंधकासुर की कथायें तो आप पुराणों में पढ सकते हैं!!और मैं उनके आपके अंतःस्थलि में विद्यमान होने के यौगिक रहस्यों पर चर्चा करती  हूँ!!

इस संदर्भ में मैं एक बात अवश्य ही कहूँगी कि महिषासुर,गजासुर,अंधकासुर आदि सभी के सभी #पशुपतिनाथ अथवा #दुर्गा के विरोधी प्रतीक हैं!!मैं इसे और भी स्पष्ट करती हूँ!! हे प्रिय!!कुलाचार जैसी श्रेष्ठतम विधा के नष्ट-तूल्य होने में इन्हीं लोगों अर्थात "गजच्छिदांधकच्छिदं"की मुख्य भूमिका रही है!!

वस्तुतः जिन्हे #वज्रोली का अभ्यास न हो!! उनका चक्रचारिता में प्रवेश निषेध था, है और रहना भी चाहिये!! किन्तु आज मैं देखती और अनेक तथाकथित आचार्यों से सुनती भी हूँ कि कुलाचारिणी भैरवी से आचार्यों ने संतति उत्पन्न कर ली!!अथवा शुक्रादि के तिलक की परम्परा भी लोगों ने जबरन थोप दी!!

और हे प्रिय!!प्राचीन काल में ऐसे पुरुषों को तत्काल ही भैरवी-चक्र से निष्कासित कर दिया जाता था!!वैसे मैं आपको एक अद्भुत रहस्य भी बताना उचित समझूँगी!!महाकाल संहिता तथा स्वच्छंद भैरव तंत्र में कहते हैं कि- भैरवी के बाँयें स्तन में अर्थात चन्द्र स्वर में सोलह कलायें निवास करती हैं-- अमृता,मानदा,पूषा,तुष्टि,पुष्टि,रति,धृति,शशिनी, चन्द्रिका,कान्ति,ज्योत्स्ना,श्री,प्रीति,अङ्गना,पूर्णा,और स्वरजा!!

और भैरवी के दायें स्तन में अर्थात सूर्य स्वर में भी सोलह कलायें निवास करती हैं-- अतपिनी,तापिनी,धूम्रा,मरीचि,ज्वालिनी,रुचि,सुषुम्ना,भोगदा,विश्वा,बोधिनी,धारिणी,क्षमा, संक्रामिणी
कला, विपरिणामिनी,अतिशायिनि और प्रभ्वी कला

अर्थात हे प्रिय!!अष्टांड़्ग योग पथिक हेतु जहाँ ये कलायें #शिव_स्वरोदयात्मक हैं!!वहीं इनका चक्रचारिता में आचार्यों द्वारा भैरवी के अंगों में उन विशिष्ट नाड़ियों का ज्ञान होना भी अपरिहार्य है!! अन्यथा तो यह एक विकृत मानसिकता के लोगों का वासनामय नग्न-नृत्य ही कहा जायेगा!! तभी तो दशानन ने पूर्व के मंत्र में इसे- #कुचाग्र_चित्र_पत्रक से संकेतिक भी किया था!!

और हे प्रिय!!मंत्र के अंत में दशानन कहते हैं कि -
"तमंतकच्छिदं भजे"हे शिव आप ही अज्ञानान्धकार का उत्छेदन करने में समर्थ हो!!अतः मैं आपको स्मरण करता हूँ!!इस पूरे मंत्र में भैरव पुरूष तथा महाभैरवी की योग्यताओं का गंभीरतापूर्वक दशानन ने प्राकट्य किया है!!

और इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि स्त्री शरीर के काम-त्रिकोणों का जो भेदन कर लेते हैं!!अर्थात अधो-भाग से स्तन पर्यन्त ही स्त्री का #काम_त्रिकोण हैं!!आप पुरूषों के स्वर चक्र से सहस्रार तक #अध्यात्म_त्रिकोण है!! और इन दोनों ही त्रिकोणों के मध्य <>°<> गजासुर,अंधकासुर तथा महिषासुर का वध भी निश्चित ही है!!

किन्तु हे प्रिय!!आपको स्मरण तो"तमंत कच्छिदं"
"तम"का जो छेदन करते हैं उनका ही करना होगा न!!और मैं आपको एक बात कहूँ!! आपके तमस का छेदन कोई स्त्री ही कर सकती है!! हाँ प्रिय!!हम स्त्रीयाँ ही वे प्रकाश स्तंभ हैं जिनके वासनामय आलोक में दिव्य-प्रकाश का महासागर हिलोरें ले रहा है!!

किंतु आपने यदि इस सागरकी गहेराइयों को ढूँढने का प्रयास किया!!तो आपको डूबने से ब्रम्हाण्ड में कोई नहीं बचा सकता!!आप घोर अंधकार में डूबकर अपनी आत्मा को कलुषित कर लोगे!! आप तो पुरूष हो!!सर्व समर्थ पुरूषोत्तम के अंश हो आप!!

आपको तो इस हिलोरें लेते वासनाकी लहरों के आश्रय से!! इसके मनोहर स्पर्श से अपने ही सूर्य की रश्मिरथी किरणों के रथ पर आरूढ़ होकर अपने अंधकार का सर्वथा ही उच्छेदन कर देना है!!
इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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