Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~१२

#धिजाग्रं_धिजाग्रं_त्रोटय_त्रोटय_दीप्तं_कुरु_कुरु_स्वाहा।।
#पां_पीं_पूं_पार्वती_पूर्णा_खां_खीं_खूं_खेचरी_तथा॥

हे प्रिय!!पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-"धिजाग्रं धिजाग्रं" जब इस प्रकार आपकी बुद्धि जाग्रत हो जाती है!! आप परस्पर एक दूजे में गहेराई से डूबकर और पुनश्च अपने आपको ही ढूढते हो!!आप अपना ही-
"त्रोटय त्रोटय" त्रोटक करते हो!!त्राटक करते हो!!किन्तु ऐसा विलक्षण त्राटक होगा कब ?

हे प्रिय!!मैं आपको पुनः कहूँगी कि-आजके स्त्री-पुरुषों के अंतरंग संबधों में जैसे कि एक यंत्रात्मक क्रिया मात्र शेष बची है!! प्रेम कुछ बंट सा गया है!! खोता जा रहा है!! यदि आकर्षण थोड़ा है भी तो बस कुछ पलों का शय्या सुख!!और उसके बाद!!ग्लानि,अनाकर्षण,निर्लेपिता,और एक दूसरे की पीठ से पीठ सटाकर सो गये दोनों!! परन्तु जो वस्तुतः  प्रेमी होते हैं!!कुलाचारी होते हैं!! उनकी रतिक्रिया के पश्चात की गतिविधियों का कितना सजीव वर्णन जयदेवजी गीतगोविंद में करते हैं-

#त्वामप्राप्य_मयि_स्वयंवरपरां_क्षीरोदत्तीरोदरैः।
#शड़्के_सुन्दरि_कालकूटमपीबन_मूढो_मृडानीपतिः।।
#इत्थं_पूर्वकथाभिरन्यमनसो_विक्षिप्य_वामाञ्चलं।
#राधायाः #स्तनकोरकोपरि_लसन्नेत्रोहरिः #पातुवः।।

हे प्रिय!!राधिकाजी रतिक्रिया के उपरान्त जब  लजाकर अपने अंगों को ढाँकने लगती हैं!!तो मेरे प्रियतमजी बोले कि समुद्रमंथनके पश्चात जब तूने मेरा स्वयंवर कर लिया तो शिव ने ग्लानिवश हलाहल पी लिया!!और राधिकाजी जब उनकी बातों को सुनने लगीं तो अचानक भगवान उनके वस्त्रों को हटाकर,स्तनोंको देखने लगे-ऐसे भगवान श्रीहरि हमारी रक्षा करें!!

बहुत ही गहेरा समबन्ध है इस श्लोक और सिद्ध कुञ्जिका-स्तोत्रके पाठ का!!मंत्र में कहते हैं कि- "धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा"
जब आप जागते हुवे समागम करोगे!!और तभी उन अंतरंग पलों का पूर्ण आनंद लेकर भी आप एक दूसरे में अपने प्रतिबिंब को देखते हुवे त्राटक सा करोगे !!

तो पुनश्च "कुरु कुरु" वासना उद्दीप्त होगी!!और ऐसा होनेपर-चार्वाक कहते हैं कि-
#पित्वा_पित्वा_पुनर्पित्वा_यावत_पतति_भूतले।
#पुनरुत्थाय_वै_पित्वा_पुनर्जन्मम_न_विद्यते।।
हाँ प्रिय!!अब तो #स्वाहा हो जायेगी आपकी वासना! दाम्पत्य-जीवन ही आपका वानप्रस्थ में अचानक रूपान्तरित हो जायेगा!! किंतु आप पाठ करो तभी ऐसा होगा!! अन्यथा भटकना तो है ही!!

और तभी एक और विचित्र घटना घटित होगी-
"पां पीं पूं पार्वती पूर्णा"आपकी अपनी पार्वती भी पूर्णता को प्राप्त हो जायेगी!!हे प्रिय!!यह स्मरण रखें कि आपकी वृद्धावस्था में वात्सल्य मयी ममताकी साक्षात मूर्ति आपकी अपनी पत्नी ही हो सकती है!!और उसके पिता आपके अतिरिक्त भला दूसरा कौन हो सकता है  ?

जैसे कि गर्व करती हूँ मैं अपने दाम्पत्य जीवन पर!! मैं उनसे तृप्त हूँ-वो मुझसे तृप्त हैं!!खो चुकी है हमारी वासना!! हम अकेले दो ही हैं!!निःसंतान!! दोनों वृद्ध हैं!! और एक-दूसरे की बाँहों में लिपटकर किसी माँ-बेटे की तरह आज भी सोते हैं!!

" पां पीं पूं पार्वती"मैं आपको कुछ अश्लील से किन्तु पौराणिक उदाहरण देती हूँ-
विपरीत भावोंके स्मरण से स्खलन होना,स्वप्नदोषादि होना नैसर्गिक है!!शिवाके स्मरण से हुवे शिव-बिन्दु के कारण ही "कार्तिकेय,हनुमानजी अथवा जलन्धर" की उत्पत्ति होती है"इनकी प्रामाणिकता पर फिर कभी चर्चा करूंगी!! किन्तु ऐसा हो सकता है!! यह सम्भव है!! टेस्ट-ट्यूब बेबी इसका छोटा सा उदाहरण है!!

किन्तु पार्वती तो पूर्ण ही हैं!! वे तो आपकी संतानों को आकार देने हेतु"पां" हैं!!उसका पोषण तथा आपको तृप्त करने हेतू "पीं" हैं!! और आपके उद्धार हेतु "पूं"हैं!! आप जरा गंभीरता से सोचें तो!! क्या आपने कभी अपनी प्रिया का वासना आवेगों के न होने पर भी अधरामृत पान किया है ?

हाँ प्रिय!!मैं जानती हू कि आप कहोगे कि ना !!
क्योंकि आप सोये हुवे हो!! जरा जागकर तो सोचो!! याद तो करो!! ऐसा अधिकांशतः होता ही होगा!! और ऐसा तब भी आपके साथ हुवा होगा जब आप छोटे से थे!!तब आपकी माँ आपके अधरों को चूम लेती होंगी!! और उन घड़ियों में जब आपमें वासना नहीं होती और कोई अधरों से अधर प्यार से सटा देता है!! तो उससे बढकर कोई दूसरी #खेचरी हो ही नहीं सकती!!

और हे प्रिय!!जो भी मानसिक रूप से स्वस्थ दम्पत्ति होंगे!!वो निःसन्देह ही वासना से मुक्त ही होंगे!!उनके लिये तो जब वासना आती है!!तो कामदेव भी डरते हैं उनसे!!मदन भी जानता है कि ये तो त्रिपुरारि हैं!! त्रिनेत्र हैं!!मैं उन्हे क्या भोगूंगा!! वो तो मेरे आश्रय से मुझे ही भष्म कर देगे!!

और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!

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