Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~११

#हुं_हुं_हुंकाररुपिण्यै_जं_जं_जं_जम्भनादिनी।
#भ्रां_भ्रीं_भ्रूं_भैरवी_भद्रे_भवान्यै_ते_नमो_नमः॥

हे प्रिय!!पुनश्च आगे अब शिव-सदृश्य ऋषि कहते हैं कि- "हुं हुं हुंकाररुपिण्यै"ये अंतः हुंकार की चर्चा है!!वैसे अब आगे जिन बीजाक्षरों का उपयोग इस सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र में किया गया है!! उन शब्दों का अर्थ प्रकट या तो किया ही नहीं गया!!

और किया गया तो इतना गुप्त कर दिया गया कि ढोंगी लोगों के द्वारा इन गंभीर किन्तु प्रथम-दृश्ट्या भयंकर लगते शब्दों की आड़ लेकर समाज को खूब ज्यादा से ज्यादा भ्रमित किया गया!! लूटा गया!! निरीह पशुओं का वध,यहाँ तक कि नरबली भी दी गयी!! शराब पी,मारण मोहन वशीकरण का लालच देकर स्त्रीयों का यौन शोषण किया गया!!

हे प्रिय!! ये शब्द तो अत्यंत ही मनोहारी हैं!! ये तो प्रिया के मुख से निकलती वे ध्वनियाँ हैं,जो उसकी आनंदमयी पीड़ा के अंतः उद्गार हैं!!आप देखें तो ऋषि कहते हैं कि-
#ततः सिंह्यो_महानादमतीव_कृतवान_नृप्।
#घण्टास्वनेन_तन्नादमम्बिका_चोपबृंहयत।।

#धनुज्यार्सिंहघण्टानां_नादापूरितदिड़्मुखा।
#निनादै_र्भीषणैः #काली_जिग्ये_विस्तारितानना।।

प्रथम तो देवी अपने धनुष की टंकार करती हैं!!
इसके पश्चात सिंह दहाड़ता है!!अर्थात प्रथम जब भैरवी कामनावेगों में अपनी अंतर्कमान को टंकारित करती हैं!!तो उनकी अंतरवाहनीय शक्ति लज्जामुक्त होकर "हुंकार"भरती है!! और अब देवी प्रचण्ड रूप से अपने घंटे का निनाद करती हैं!!

और उस निनाद से दशो दिशायें गूंज उठती हैं!!
हे प्रिय!!मैं आपको वात्स्यायन का•सू•अ•२•७१३•वें सूत्र को इस संदर्भ में दिखाना चाहूगी-
#तत्र_हिंकारादीनामनियमेनाभ्यासेन।।
जब भैरवी हो अथवा आपकी प्रेयसी!! जब वे अंक में विराजमान होती हैं तो "हूं हूं हूंकार"करती ही हैं!!
और रमणी के इस मीठे हुंकार से!!दशो दिशायें गूँज उठती हैं!!

हो सकता है कि मेरे इस भावानुबोधन से किन्ही लोगों को जिगुप्सा-जनित भावों की दुर्गंध आ रही हो!! उनकी अंधश्रद्धा पर चोट लग रही हो!! पर ये तो आपकी शय्या की, अथवा कुलाचारान्तर्गत चक्रात्मक विधा की सामान्य तम प्रक्रिया है!!इससे आप मुख मोड़ ही नहीं सकते!!और यदि आप इस भावानुबोधन को नकारते हो,तो आपको पौराणिक रहस्यात्मक दृश्टांतों के कपोल-कल्पित होने के आरोपों को सुनना ही होगा!! और इसकी आड़ में ढोंगी लोगों की दुकानें सजती ही रहेंगी!!

और हे प्रिय!!ऋषि पुनश्च कहते हैं कि-"जं जं जं जम्भनादिनी"
आप विचार तो करें!! जब आपकी प्रिया आपका साथ चाहती हैं तो इसकी पहचान भी वेदव्यास  जी ने बतायी है-
#सामज्जनालेपदुकूलभूषणस्नग्धताम्बूलसुधाजंम्भ्रवादिभिः।
#प्रसाधितात्मोपससारमाधवंसव्रीडलीलोत्सिमतविभ्रमोक्षितैः।।

वो सजी-संवरी नायिका,सुगंधित दृव्यों का आलेप कर,मृदु-भाषिणी,मदनोन्मादिता,निद्रा आने का अभिनय करती हुयी,मृदु-हास्य करती बारम्बार जम्हाईयाँ लेती हैं!!

यह भागवतजी का ही श्लोक है!!आप काम को कृष्ण से अलग कर ही नहीं सकते!! क्यों कि गोपियाँ तो कामिनी हैं!! और कोई कामिनी दर्पहारी ही कृष्ण हो सकता है!!और यह तो शाश्वत सत्य है कि-
"भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः"

और हे प्रिय!!आपकी प्रिया हो अथवा भैरवी!!
(१)=यदि वह प्रिया है तो आपके वंश का वर्धन करने के द्वारा "भ्रां" आपके अंश को आकार देकर आपका भद्र अर्थात कल्याण करती है!!
(२)=और यदि वह सामान्य रति की ईच्छुक है,तो वह आपकी "भ्रीं" सामान्य और सहज प्राकृतिक भोगेच्छाओं से आपको संतृप्त करके आपको आह्लादित कर देती हैं!! इसमें भी आपका भद्र अर्थात छणिक कल्याण ही है!! अन्यथा आप भटक जायेंगे!!

(३)=और यदि वह कोई #भैरवी हैं तब तो वो साक्षात भवानी ही हैं!!वो तो आपकी कल्याणी हैं!!आपको आपके योग और अपनी कला से आपके ऊर्ध्वगमनार्थ ही प्राप्त हुयी हैं!!और इसे आप किसी भी प्रकार से #संभोग नहीं कह सकते!! क्यों कि संभोग तो उपरोक्त (१~२) दो परिस्थितियों में आप अपनी प्रेयसी के साथ करते हो!!

और यह तो भैरवी आपकी पशु-वृत्ति का संहार कर देती हैं!!आपको वीर-गति प्राप्त करा देती हैं!! आप उनका भोग करते हो!!किंतु वे आपका भोग नहीं कर पातीं!!और हे प्रिय!!कुलाचारान्तरगत इसी कारण भैरवी के इस बलिदान को अत्यंत ही श्रद्धा की दृष्टि से देखते हुवे उन्हें #माँ कहते हैं!! ऋषि कहते हैं कि- "भवान्यै ते नमो नमः" और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!
दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~११~२ अंक~१२

#अं_कं_चं_टं_तं_पं_यं_शं_वीं_दुं_ऐं_वीं_हं_क्षं।।
हे प्रिय!!पुनश्च आगे अब शिव-सदृश्य ऋषि कहते हैं कि- "शिवा-"ये बीजाक्षर हैं!! मैं आपको एक बात कहूँ!!लोगों ने समझ रखा है कि आप कुछ भी "उल्टा-सीधा" बड़बड़ा दो और उसी को मंत्र के नाम से घोषित कर दो!!किन्तु आप स्वयं ही विचार करें कि इतनी उत्कृष्टतम हमारी आर्य-वैदिक संस्कृति जो कि पूर्णतया वैज्ञानिकीय कसौटियों पर खरी उतरती हो उसमें दिये गये मंत्र भला सामान्य होंगे  ?

वैसे एक बात और भी कहूँगी-पौरोहित्य कर्म प्रकाष, प्रतिष्ठा-महोदधि,यज्ञमंत्र-संग्रह,विष्णुयाग पद्यति, सर्वदेव-प्रतिष्ठा प्रकाश आदि आदि किन्हीं भी देव- प्रतिष्ठा अथवा यज्ञादि कर्मों की कर्मकाण्डात्मक विधाओं को आप देखें-

हे प्रिय!!मात्र कुछेक अक्षरों के आगे पीछे,या कम होने का भेद होगा!!किन्तु जब पुरोहित किसी देवता की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं,तो इन्ही-" अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं" अक्षरों का उच्चारण करते हैं!!अतः चलिये मैं आपसे इन मंत्राक्षरों को समझने का प्रयास करती हूँ-

(१)=आप ध्यान देंगे तो स्पष्ट पायेंगे कि बावन अक्षरों के वर्गों के क्रमानुसार ही इनकी व्यवस्था यहाँ पर की गयी है।
(२)=जेसे कि-"अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः"के वर्ग अर्थात अ-वर्ग से "अं"को गृहण किया गया!! और उसी प्रकार "क-वर्ग से क" तथा क्रमशः च,ट,त तथा प-वर्ग को गृहण किया गया!!

(३)=और हे प्रिय!! य से ष पर्यन्त के लिये य-वर्ग और इनके उपरांत " वीं दुं ऐं वीं हं क्षं" इन्हे बिल्कुल ही इनसे भिन्न कर दिया गया!!

और हे प्रिय!!मैं आपको यह अवस्य ही कहूंगी कि-
इन व्याकरणात्मक गृंथों की रचना मनुष्यों की बुद्धि के आधार पर ऋषियों द्वारा की गयी है । जिनमें  काश्कृत्सन् , पाणीनि, कश्यप पतंजलि औपनमनव्य, उल्लूक, आपिशल, चन्द्रायण, गर्ग, ब्रह्मा, आग्रगायण, शाकल्य, आदि अनेक मुनियों के नाम प्रसिद्ध हैं!!

किन्तु म्लेक्ष आक्रमणकारियों तथा कुछेक पथभ्रष्ट जैन,बौद्धिष्टों के द्वारा इन्हे नष्ट कर दिये जाने के कारण आज मात्र  प्राचीनतम व्याकरण के नामपर पाणीनीय  ही उपलब्ध है!!

और इनके  पूर्व इन्द्र का व्याकरण प्रचलित था,इसी कारण बौद्ध तथा जैनियों ने अपने ग्रंथों में भी ईन्द्र को महत्व भी दिया!! और इसे ही आप अष्टाध्यायी कहते हैं!! जिनमें पाणिनीय सूत्रों अर्थात भाषाके संक्षिप्त नियमों को आप सूत्र कहते हैं !!

तथा आठ अध्यायों की पुस्तक को अष्टाध्यायी कहते हैं!!अब आप देखें-ये भी आठ ही हैं!!और इनमें- "३९८०"सूत्र हैं!! और सूत्रों से शब्दों और वाक्यों को आपस में नियमबद्ध किया जाता है जिससे कि भाषा का मन्तव्य स्पष्ट होता है।

और हे प्रिय!!धातुपाठ आदि सभी अष्टाध्यायी के सहायक ग्रंथ हैं । जिनसे धातुरूप, प्रत्यय आदि के द्वारा शब्द बनाए जाते हैं!! शब्दों और वाक्यों को नियमबद्ध कर पंञ्च उपदेश  अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिकोष, लिङ्गानुशासनम्-की व्यवस्था की गयी ।और इसे ही महाभाष्य कहते हैं!!जिनसे शब्दों का दार्शनिक, वैज्ञानिक तथा साहित्यिक सार्थक पक्ष स्पष्ट होता है।

और शब्दों के भ्रष्ट हो जाने से भाषा बिगड़ जाती है और अर्थ भिन्न होने लगते हैं!!इन्हीं व्यवधानों का समाधान करने के लिए व्याकरण शास्त्र की रचना की गयी है!! और आप ध्यान दें-सर्व-प्रथम वर्णोच्चारण से उच्चारण शुद्ध करने की आवस्यकता होती है और
जब आपकी जीह्वा शुद्ध और निरुक्तों को कहने योग्य हो जाती है!!तभी आप इस सिद्धकुञ्जिका के "अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं"के महत्व को समझ पायेंगे!!

#अं_कं_चं_टं_तं_पं_यं_शं_वीं_दुं_ऐं_वीं_हं_क्षं।।
हे प्रिय!!पुनश्च आगे अब शिव-सदृश्य ऋषि कहते हैं कि- "शिवा-"ये बीजाक्षर हैं!! और इन बीजाक्षरोंकी एक अद्भुत विशेषता होती है!!जैसे कि इनमें अक्षरोंके उपर अर्धचन्द्र नहीं होते!!सीधे बिन्दु ही होते हैं!! मैं आपको पुनश्च स्मरण दिलाना चाहूंगी कि सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्रमें ऋषि ने यह प्रतिज्ञा की है कि इसके पाठ मात्र से #चण्डीपाठं_फलंलभेत्!!

ऋग्वेद,पद्मपुराण तथा शांकरदिग्विजय में भी स्पष्ट है कि कुल १९२ तंत्र-शाखायें तो प्राचीनतम थीं!!और तदोपरान्त उपशाखायें तो हजारों में हैं!! इनमें भी ६४ तन्त्र #रथक्रान्त अर्थात शाक्त-वैष्णव मिश्रित अर्थात "राधा-कृष्ण,शिव-शिवा,भैरव-भैरवी,यती-सती" पर आधारित है!!

हे प्रिय!! अधूरे ज्ञान के कारण लोगों ने वैदिकीय कुलाचरण को घृणित घोषित तो कर दिया किंतु उसका दोषी भी मैं अपने कुलाचारियों को ही मानती हूँ!! ईशापूर्व १७०० वर्ष पूर्व संगृहित प्रसिद्ध ग्रंथ महानिर्वाणतन्त्र•४•७९•में तो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-

#गोपनाद्धीयते_सत्यं_न_गुप्तिरनृतं_विना।
#तस्मात्प्रकाशतः #कुय्यार्त्कौलिकः #कुलसाधनम्।
ढाँकने से तो सत्य भी विलुप्त होने लगता है!! मिथ्याचारके अतिरिक्त किसीको भी छुपायें न!! कुलाचारियो को चाहिये कि वे प्रकट रूपसे कुलसाधना करें!! इसे गुप्त-गुप्त होने का मिथ्या प्रलाप न करें!!यह मैं नहीं कहती महानिर्वाणतन्त्र कहता है!!

हे प्रिय!!#रथक्रान्त अर्थात रथ से आक्रान्त हुवे!! को समझना होगा!!इसे समझने से ही "अं कं चं टं तं पं यं शं"के पाठ अथवा सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्रके पाठ की विधि स्पष्ट हो पायेगी!! इसी पाठके कुछेक अंशों को सम्हालकर कुछ लोगों ने इस स्तोत्र से हटा दिया-
#बिन्दुराविर्भव_आविर्भव_हं_सं_लं_क्षं_मयि!!

मैं आपको इस संदर्भ में अपने जीवन के कुछ अनसुने पहेलुवों को भी आपसे बताना चाहूंगी!! मैंने अपने सौभाग्य से जैन, बौद्ध तथा वैष्णव-शाक्त, और शैव्य-शाक्त लगभग सभी चक्रचारिताओं को देखा है,तथा इनका अनुभव भी किया है!!

हे प्रिय!!यदि वास्तविक कुलाचारी होंगे तो वे अपनी अद्भुत तथा विशिष्ट साधनाओं के कारण #कामिनी_विजयी होंगे!! कामिनी तो उनके लिये एक रथ के सदृश्य है!!उनके इस पथ गमन की एक दिव्य- साधन मात्र!!सच्चाई यही है!!इससे मुख मोड़ने के कारण ही कुलाचार विकृत और बदनाम हो गया!!

मैं मूल विषय पर आती हूँ!! #अं_से_कं में प्रवेश करना ही सबसे कठिन है!! जिस समागम का आविष्कार विधाता ने अ-कार अर्थात सृजन हेतु किया है!!उसी के विपरीत समागम की दिशाको ही मोण देना!! उसे संहारात्मक कर देना मुश्किल तो है ही!! और वो भी पुरुष प्रधान समाज के लिये!! अतः उन्होने अपनी कामासक्ति  पर विजय प्राप्त करने में अपने को असमर्थ सा पाकर इस मार्ग की ही निंदा करनी प्रारम्भ कर दी!!

हे प्रिय!!चक्राचारान्तर्गत तो आप छोणिये सामान्य सांसारिक समागमों के अवसर पर ही आप इस विधा का उपयोग करके देखें!! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि आप की वासना से प्रारम्भ हुयी यात्रा आपको बारम्बार जगाने लगेगी!! विशेषतः पुरुष वर्ग तो इस विधा से बहुत जल्दी ही वासना पर विजय प्राप्त करने लगेंगे!!

क्यों कि स्तोत्र ही कहता है कि- "धिजाग्रं धिजाग्रं" हे प्रिय!! #धिः अर्थात बुद्धि को जगाओ!!जगाओ!! आप जागते हुवे वासना और साधना में उतरो!! सोते हुवे तो सभी साधना और वासना में उतरते हैं!! और बाद में कहते हैं कि यह वासना बुरी है!! इससे मुक्त होना चाहिये!! और या फिर यह कहते हैं कि मुझे सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र अथवा किसी भी स्तोत्र या साधना विधाओं को करते-करते इतने साल हो गये पर मिला कुछ भी नहीं  ?

मैं आपको साधना अथवा वासना में उतरने की एक अकाट्य विधि बताती हूँ!! किंतु इतना अवस्य ही कहूँगी कि ये ज्यादा तो नहीं थोडी सी कठिन है!! जब आपमें वासना का ज्वार उठता है,तो उसे रोको मत!!यहाँ तक कि यदि आपके पास आपकी संगिनी नहीं है तो भी वासना को आने दो!! और करना मात्र आपको इतना ही है कि - "अं कं चं टं तं पं यं शं" इसका पाठ करते हुवे आप वासना में उतरो!!

क्यों कि हे प्रिय!! जब भी आप वासना-संग्राम में उतरते हैं,तो आपकी कुण्डलिनि शक्ति पर ही प्रथम प्रहार होता है!! "अं" पर प्रथम प्रहार होता है!! और सोते हुवे,बिना पाठ करते हुवे!! संग्राम करने से आपकी ऊर्जा स्खलित हो जाती है!!

और यदि आप जागते हुवे!!पाठ करते हुवे!!समागम करते हो,तो आपकी वासना में अवरोध आता है!! परिणामतः आपकी ऊर्जा बारम्बार वापिस लौट जाती है!!
#अं_कं_चं_टं_तं_पं_यं_शं_वीं_दुं_ऐं_वीं_हं_क्षं।।
हे प्रिय!!पुनश्च आगे यदि आप जागते हुवे!!पाठ करते हुवे!!समागम करते हो,तो आपकी वासना में अवरोध आता है!!परिणामतः आपकी ऊर्जा बारम्बार वापिस लौट जाती है!!ध्यान रखें- इस विधा का भाव मैं पिछले अधूरे अंक से ही प्रारम्भ कर रही हूँ !!

पुरुषों की सबसे बड़ी समस्या शिध्र-पतन की होती है!!और स्त्रियों की सबसे बड़ी समस्या होती है अपने साथी से पूर्ण संतुष्टि न मिल पाने की!!और इसका विकल्प भी यही है!आप न जाने कितनी कामोद्दीपक औषधियों,शिलाजित,मुसली-पाक,वियाग्रा का सेवन करके थक चुके होंगे!! एक बार इस विधा का सेवन करके भी देख लें आप  ?

हे प्रिय!! वात्सायायन•का•सू•अधि•२•१•२६•में कहते हैं कि-
#कथमुपायवैलक्षण्यं_तु_सर्गात_कर्ता_हि_पुरूषोऽधिकरणं_युवतिः।।
यह तो प्राकृतिक तथा नैसर्गिक है कि पुरूष कर्ता है, और स्त्री अधिकरण है!!पुरूष सोचते हैं कि मैं कर्ता हूँ,देने वाला दाता हूँ!! इसीलिये अनुरक्त होते हैं!!और स्त्री समझती है कि मैं लेती हूँ!! मुझे मिलता है!! इसलिये अनुरक्त होती हैं!!

और देने वाले का #कोश भले ही रिक्त हो जाये किन्तु लेने वाले तृप्त नहीं हो पाते!!यही शाश्वत सत्य है!! और यदि देने वाला थोड़ा कंजूस हो जाये!! शनैः-शनैः दे,और लेने वाली भी थोड़ी लेने में संञ्कोच करें!! अर्थात यह-"अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं" पाठ दोनों करते रहें तो बारम्बार उनकी ऊर्जा वासना से ध्यान भंग होने के कारण बाह्य निष्क्रमित होने के स्थान पर वापिस लौट जायेगी!!

और इसका परिणाम यह होगा कि जहाँ आप मात्र पाँच-सात मिनटों में निवृत्त हो जाते थे!! और आपकी संगिनी आपसे असंतुष्ट रहती थी!!अब ऐसा नहीं होगा!! पुनः आपका ध्यान एक बार पाठ से भंग होगा!!और आप पुनः संग्राम प्रारम्भ करोगे किन्तु अभ्यास के कारण आपको पुनश्च "पाठ"की स्मृति आयेगी! आपकी ऊर्जा पुनः लौट जायेगी!!

हे प्रिय इस निबंध को कृपया अश्लील दृश्टि से देखने के पूर्व यह स्मरण रखें कि जितने भी तंत्रों का उपदेश शिव ने शिवा को दिया है वह सभी रति-अवस्था में,अपना और शिवा का ध्यान बारम्बार वासना से दूर करने हेतु ही विषयांतर करते हुवे दिया है!!
मैं आपको इसी संदर्भ में हेवज्र संहिता•६•१•वाँ मंत्र दिखाती हूँ-

#देवीं_वै_गाढमालिड़्ग्य_बोलं_कपालके।
#गाढं_कुचग्रहं_कृत्वा_संवृश्य_नरनासिकम्।।
देवी का गाढ आलिंगन कर,उनके मस्तक पर हांथ रखते हुवे,उनके स्तनों का मर्दन करते हुवे,दांतों से ओठों को आघात करते हुवे,नखक्षत और संभोग करते हूवे कहते हैं कि-हे देवी!!मैं तुम्हे उपदेश देता हूँ!! अतः देवी का ध्यान भी वासना की तरफ से भंग हो जाता है,और वो कहती हैं कि-

#अथाह_तत्र_सा_देवी_बोलकक्कोल_योगतः।
#ओष्ठं_दन्तेन_संपीड्य_कथं_भवति_बोधकम।।
हे प्रिय!!देवी भी अपने ओठों से उन्हें पीड़ित करती हुयी प्रश्न करती हैं कि बोध क्या है  ?

हे प्रिय!!अब आप ही विचार करें कि वासना के परस्पर चल रहे संग्राम में भी दोनों कितने संतुलित हैं!! और इसका परिणाम यह होता है कि आपकी समागम-अवधि बढती ही जाती है!!बारम्बार आपकी बाहर आ रही ऊर्जा भीतर लौटती है!! और इस अंतः प्रहार के कारण आपका वीर्य और ऊपर के चक्रों तक जाता है!! क्रमशः "अं के पश्चात कं और कं के पश्चात चं!!चं टं तं पं यं शं एक-एक चक्र टूटते जाते हैं!!

आप कदाचित विश्वास नहीं करेंगे किन्तु इस प्रकार दो-तीन घंटों तक आप संभोगरत रह सकते हो!! और इसका परिणाम यह होगा कि इतने लम्बे समागम से मिली संतुष्टि आपको धीरे-धीरे इससे मुक्त कर देगी!! आप एक पूर्ण पुरुष बन जाओगे!! मैं ऐसे कई किंतु गिनती के योगियों को इस कला में पारंगत देख चुकी हूँ!! हाँ प्रिय!! यही वास्तविक कुलाचरण जन्य दिव्य समागम है!! जो कि पूर्णतया वैज्ञानिकीय कसौटियों पर सिद्ध किया हुवा  है!! और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!

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