Thursday 13 September 2018

शिवताण्डवस्तोत्रम्

दशानन कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~१~१ अंक~१

#हम_आप_सभी_में_एक_दशकन्धर_विद्यमान_है_अधमातिऽधम_और_परम_पावन!!

मेरे प्रियसखा तथा प्यारी सखियों!!अनेकानेक लोगों के आग्रह तथा अंतःप्रेरणा के वशीभूत होकर मैं अपने गुरुदेव #भगवान_अवधूतरामजी के श्रीचरणों में अर्पित करती हुयी इस स्तोत्र की भाव-प्रबोधिनी का प्रथम पुष्प निवेदत करती हूँ-

#जटाटवीगलज्जल_प्रवाहपावितस्थले
#गलेऽवलम्ब्य_लम्बितां_भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
#डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
#चकार_चंडतांडवं_तनोतु_नः #शिवः #शिवम ॥

शैव्यमत की पराकाष्ठा को प्राप्त हुवे शिखर पर स्थित कोई योगात्मा ही ऐसी अद्भुत कल्पनात्मक स्तुति के द्वारा शिव के विराट स्वरूप को वाक्य-तूलिका में उकेर सकता है!!स्तोत्र में #दशानन कहते हैं कि-
आपकी जटाओं रूपी घनघोर वनों के मध्य से निकली जटाटवीगलज्जल"

" प्रवाहपावितस्थले"पतीत पावनी गंगाजल में "स्नान-पान"कर पवित्र हुवे अनेकानेक विषधर आपके अंग-प्रत्याड़गों के अलंकार बने हुवे हैं- "गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्"

हे प्रिय!!इस स्तोत्र को समझने हेतु अथवा शिव-स्वरूप को समझने हेतु अथवा "दशानन"को समझने हेतु उपर्युक्त दो पंक्तियाँ भी काफी कुछ कह जाती हैं!!वस्तुतः हम-आप सभी में "एक दशकन्धर" विद्यमान है!!अधमातिऽधम और परम-पावन"ये दोनों की दोनों मानसिक चित्त-वृत्तियों के अन्तर्जाल में उलझे हम-आप कभी ज्ञान के शिखरों पर विराजमान होते से दिखते हैं और कभी इन्ही वृत्तियों के अधः पतन से भी हम अपने आपको प्रभावित कर बैठते हैं!

हे प्रिय!!एक परम्परा सी रही है कि #वट_दुग्ध से भिंगोकर वितरागी जन अपनी जटाओं की लटायें सी गूंथ लेते हैं!!इसे ही #अटवी कहते हैं!! और "शैब्य दर्शनानुसार" इन लटाओं में १००८ सूक्ष्मातिसूक्ष्म #रूद्राक्षों को गूँथने की परम्परा भी है!!और जबतक हम आप"रूद्र-अक्ष"को न समझें तबतक शैब्य दर्शन के इस मूर्धन्य स्तोत्र को समझना कुछ कठिन ही होगा!!

ये तो आप जानते ही हैं कि-
#दधत्यन्तस्तत्त्वं_किमपि_यमिनस्तत्_किल_भवान् बाह्य-भेष,वस्त्र,तिलक,छाप और हीरे अर्थात तुलसी अथवा रुद्राक्ष के मनके सब के सब प्रतीकात्मक और अंतःब्याप्त चिन्हों की छाया-मात्र हैं!!ये जो आपकी दशों इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुवा जीवत्व है!! #प्राण है जिसके इस शरीर से जाते ही सब रुदन करने लगते हैं!!इसे ही #रूद्र कहते हैं!!और इस रूद्र की आँखें ही-रूद्राक्ष हैं!!

अर्थात इन्द्रियों के विषयादि वनों में भटकता यह जीव,प्राण- ही #शिव है!! हम यह भूल जाते हैं कि इन्ही विषयों और सघन अच्छे-बुरे संस्कार-जन्य अनेकानेक जन्मों के विचारों और कर्मों की घनघोर उलझी पड़ी जटाओं की लटाओं!! जरा इसे भी मैं आपसे समझने का प्रयत्न करती हूँ!!

किसी एक अटवी में हजारों केश वट-दुग्ध से गूँथे होते हैं!!हजारों हजार जन्मों के संस्कारों की छाप आपकी एक अटवी में विद्यमान है!!और ऐसी सैकड़ों-हजारों अटवी को इस"रुद्र-अक्ष" ने चारों ओर से किसी चित्त-वृत्तियों की तरह घेर रखा है!!इनमें यदि बुरे संस्कार हैं,तो अच्छे संस्कार भी तो होंगे ही न ?

और हे प्रिय!! कचड़े का चाहे जितना बड़ा भी ढेर हो कोई एक ही #चिंगारी उसे जलाकर भष्म कर-देने का सामर्थ्य रखती है,बस आवस्यकता है उस चिंगारी के मिलने की-
#चंदा_जलता_सूरज_जलता_जलती_आभ_अटारी।
#ना_जलती_ये_सिगढी_मेरी_बात_विपत_की_भारी।
#महानल_एक_तो_दे_चिंगारी।।

मेरे आपके इन लाखों लाख जन्मों और संस्कारों की घनघोर वन-वीथिकाओं के मध्य कहीं न कहीं और कोई न कोई एक पतीत-पावनी गंगा #ज्ञान-बीज के संस्कार तो होंगे न!! और यदि ये संस्कार रूपी गंगा मुझमें और आपमें न होती तो न यह लेख मैं लिखती और न ही आप ऐसे निबंधों को पढने में रूचि ही रखते!!

हे प्रिय!!गौडपादीय•कारिका•२•१७• में कहते हैं कि-
#अनिश्चिता_यथा_रज्जुरन्धकारे_विकल्पिता  ।
#सर्पधारादिभिर्भावैस्तद्वदात्मा_विकल्पितः ॥
ये संस्कार और अंधकार का बड़ा ही गहरा सम्बन्ध है!!यदि किसी प्रकार से भी एकबार इन पूर्वकृत संस्कारों पर पड़े अंधकार मय आवरणों को आप देख लेंगे!!अपने अच्छे और बुरू कर्मों को आप चिन्हित कर लेंगे!! तो बस!!हो गया पटाक्षेप!!

तब आप बुरे कर्म कर ही नहीं सकते!!आप श्रेष्ठ कर्मों की पावन गंगाको जो देख लोगे!! और इन श्रेष्ठ कर्मों की पतीत-पावनी गंगा में आपके बुरे से बुरे,विषाक्त और घृणिततम्- विचार भी "भुजंगतुंगमालिकाम्" पवित्र हो जायेंगे!!तभी तो कहते हैं कि-
#चकमक_पथरी_रहत_एक_संग_उठत_नहीं_चिंगारी।
#बिनु_गुरु_प्रेम_संजोग_बिनु_होत_नहीं_उजियारी।।

और हे प्रिय!!ऐसा होते ही आपके विषधर-विचार भी पवित्र होकर आपके अलंकार हो जायेंगे!!ऐसा नहीं है कि आपमें "काम-क्रोधादि"भावनायें नहीं होंगीं!!वो होंगी किन्तु उनके स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका होगा!!आपके सोचने की दशा और दिशा दोनों ही बदल चुकी होगी!!

अब पुनः कहते हैं कि- "डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं"
मैं अपने आचार्यों और लघु सिद्धान्त कौमुदी तथा अन्यान्य व्याकरण के गृन्थों में ऐसा पढती आयी हूँ कि "अ से लेकर ज्ञ"पर्यन्त हो अथवा "A से लेकर Z पर्यन्त"अथवा कि विश्व की किसी भी भाषा की स्वर-लीपि हो वो #डमरू जैसे वाद्य-यंत्र से ही प्रकट होती है!!आप स्वयम अपने शरीर को ही देखें जैसे कि आपकी काया का निचला हिस्सा डमरू के एक भाग और ऊपरी भाग द्वितीय भाग के समान एक दूसरे से गले जैसे पतले अंग पे आकर मिल-जाता है!!

और हे प्रिय!!इसी गले में स्थित स्वर-यंत्र रूपी दो सूत्रों से जैसे ही कोई ध्वनि प्रवाहित होती है तो प्रथम चोट इसकी आपके नाभी स्थल और द्वितीय चोट इसकी आपके मस्तिष्क मध्य पर पड़ती है!!और सतत पड़ती ही रहती है!!मैं आपको एक गंभीर बात कहना चाहूँगी!! एक सुई भी यदि गिरती है!!तो इसके गिरने की ध्वनि आपके कान भले ही न सुनते हों किन्तु उसके गिरने से हुयी ध्वनि और कंपन से उसका स्पन्दन समूचे ब्रम्हाण्ड को प्रभावित कर देता है!!

हाँ इतनी ही संवेदनशील यह प्रकृति होती है!!और इन स्पन्दनों के प्रचण्ड ताण्डव को कोई महान योगीजन कोई शिव के सदृश्य परम-शांत ध्यानस्थ आप जैसे महापुरुष ही सुन अथवा समझ सकते हैं!!नाभी से उठती परा-वाणी यदि वैखरी में बिखर न जाय तो यह अंततः सहस्रार से टकराकर पुनश्च नाभी पर ही जाकर आक्षेप करती है!! और यही तो #अजंपा_जाप है!!

अणु ही पशुत्व है!!और परमाणु ही "महेश" अर्थात परमाणु!! विद्युन्मालि भट्ट जी प्रत्यभिज्ञकारिका में लिखते हैं कि-
#सोऽहं_ममायं_विभव_इत्येवं_परिजानतः।
#विश्वात्मनो_विकल्पानां_प्रसरेऽपि_महेशता।।
ये जो "अ से लेकर ज्ञ"पर्यन्त के  विरुपाक्ष हैं!! यही पचास अक्षर "विश्वदेह"हैं और अ तथा ज्ञ में अ अणु है,आपके शरीर का निचला अंग है!!यही ब्रम्हा है,पशु है और ज्ञ अर्थात सहस्रार ही पारमाणविक ऊर्जा केन्द्र तथा शिव अर्थात इस शव में स्थित शिवा ही यह स्वांसोछ्वास रूपी सतत चलती परा-चैतन्य तथा अपरा महामृत्युंजयी शक्ति भी है!!

#स्पदि_किञ्चिच्चलने आपका यह शरीर एक धातु है!!यंत्र है!! और इसमें होता यह प्राणों से स्पन्दन ही तो सर्वस्व है न!! स्पन्दनकारिका में कहते हैं कि-
#सिसृक्षोः #प्रथम_स्पन्दः #शिवतत्त्वं_प्रभोः #स्मृतम्।।
और यदि आप इस स्पंदनको देखें तो यह निश्चित रूप से समझ जायेंगें कि हर साँस के साथ मैं जन्म लेती हूँ  उसी  साँस से पलती हूँ और हर एक साँस के साथ एक पलको मरती भी हूँ!!

हे प्रिय!!यदि आपने स्वासों को पढ लिया तो वेदों को पढने की आवस्यकता नहीं है!!और यदि सभी सच्छास्त्रों को पढ लिया और स्वाँसों को नहीं पढा तो सब व्यर्थ है!!मंत्र में कहते हैं कि- "निनादवड्डमर्वयं" ये स्वाँसों का जो डमरू है न!!यही तो उस नटराज के पद-संचरण की अनोखी ताल है!!

आप एक काम करके तो देखो!!और ये अत्यंत ही सरल भी है!!भारतीय भाषा-विज्ञानात्मक है!!आपकी लीपि के प्रत्येक अक्षर अपने आप में एक पूर्ण यंत्र हैं!!आप जरा #ड को ध्यान से देखें!!जैसे कि ऊपर से लहराती हुयी और नीचे को आती हुयी एक अलौकिक तरंग!!

हे प्रिय!! आपने कभी कल्पना की कि दशानन के दश मस्तक हैं!!
ब्रह्माजी के चार मस्तक हैं!!
शिवजी के पाँच मस्तक हैं!!
विष्णुजी के चार मस्तक हैं!!
कार्तिकेयजी के छे मस्तक हैं!!
और विराट पुरुष के हजारों मस्तक हैं!!
किन्तु #ग्रीवा अर्थात गला सभी का एक ही क्यूँ है!!

और इस अद्भुत विज्ञानात्मक दृष्य पर कभी कोई कुछ भी नहीं कहता!!आप सोचें!!ब्रम्हाजी अपने चारों मुख से चार-वेद पढते हैं,शेषनाग अपने हजारों मुख से एक साथ स्तुति करते हैं,और दशानन अपने दस मुखों से चार वेद-षट-षटशास्त्र एक साथ पढता है!! इसमें भी भेद है!!क्यों कि स्वरयंत्र अर्थात गला तो एक ही है न!!

हे प्रिय!!" चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम" ऐसे शिव को मैं शिवा चकोरी बनकर देखती हूँ,देखना चाहती हूँ!!और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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