Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी~ अंक~१३

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् बाल प्रबोधिनी~ अंक~१३

#कदा_निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरेवसन्,
        #विमुक्तदुर्मतिः #सदाशिरः #स्थमञ्जलिंवहन्।
#विलोललोललोचनोललामभाल_लग्नकः,
         #शिवेतिमंत्रमुच्चरन्_कदा_सुखी_भवाम्यहम्।।

हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-"कदा निलिम्प निर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्" मैं निलिम्प और निर्झरी अर्थात नितान्त एकान्त और माँ गंगा के पावन तट पर!!किसी वन के झुरमुट में बैठकर!! मैं कब आपकी आराधना कर पाऊंगी ?

हाँ!! प्रत्येक आप जैसे मुमूक्ष जनों की ये भावना होती ही है!! और ऐसा सम्भव हो नहीं पाता!! और आज का युग हो अथवा कि पुरातन युग रहे हों!!देश, काल,स्थान और जन्मों-जन्मों की साधना इसी लिये तो अधुरी रह गयी!!मैं देखी हूँ!!प्रत्यक्ष अनुभव की हूँ कि बाह्य एकाँत की खोज हमेशा अधूरी ही रह जाती है!! और यदि सद्भाग्य और प्रारब्ध से ऐसा ऐकाँत मिल गया तो वो और भी भयावह हो जाता है!!

मैं अपनी स्वयम की एक मूर्खता आपको बताना चाहूंगी!! जब मैं १५~१६ साल की थी तो मुझमें देवी माँ के प्रति अगाध श्रद्धा थी,स्थूल मूर्ति में श्रद्धा थी!! और कदाचित एकान्त का भी अभाव नहीं था!!देश, काल,संयोग और साहचर्य ही कुछ ऐसा था कि एकाँत ही एकाँत था!!और भावना भी थी!!

मैं दिन भर सप्तशती,गीता पढती रहती!!और भी कुछ पुस्तकें थीं मेरे पास!!एक प्लास्टर ऑफ पेरिस की देढ-फुट की महाकाली माँ की एक प्रतिमा थी!! और शाम होते ही मैं माँ को स्नान कराती,यथा सम्भव उनका श्रृंगार करती!!माला चढाती उनके ऊपर अनेक पुष्प चढाती!! धूप जलाती,आरती करती!!और अंत में-

#न_मन्त्रम्_नो_यन्त्रम_तदपि_च_न_जाने_स्तुति_महो,
#न_चाह्वाहनम्_ध्यानम_तदपि_च_न_जाने_स्तुति_कथा.....

और मैं इस स्तुति को करते-करते रुदन करने लगती!! बहूत ही ज्यादा रोती!! और एक मैं अंधविश्वास पाल बैठी थी!!शायद मेरे सुसुप्त मस्तिष्क ने एक विश्वास बना रखा था कि माँ की मूर्ति पे चढे पुष्पों में में से एक-दो पुष्प उनके चरणों में अनायास ही गिर पड़ते!! और बस इसे मैं माँ का आशीष मानकर दिन-रात अपने ह्यदय में सम्हाल कर रखती!!

किन्तु अंततः वो मेरी श्रद्धा जो बाहर भटक रही थी!! मैं आपसे सत्य कहती हूँ कि वो #एक_चौराहे पे किंकर्तव्य-विमूढ सी खड़ी थी!! हे प्रिय!!ये एक ऐसी स्थिति थी कि जो कम से कम उस वक्त मेरे लिये उचित नहीं थी!!मैं क्या हूँ!!एक अज्ञान की पोटली लेकर अपने को ज्ञानी मान बैठी हूँ  ?
मेरा पतन तो निश्चित ही है!!

वस्तुतः एक वैराग्य की अवस्था होती है!!श्मशान जनित वैराग्य!कृतिम और अस्थायी वैराग्य!!कुछेक श्रेष्ठी इन्ही भावना के आवेगों में बहकर सन्यासी, वैरागी और भिक्षुक बन जाते हैं!! किन्तु अंततः कुछ और ही घटित हो जाता है!!

हे प्रिय!!मैं अपना एक संस्मरण आपको सुनाती हूँ!! आपने #नर्मदा_परिक्रमा के संदर्भ में सुना होगा!! अत्यंत ही कठिन और श्रमसाध्य नियमबद्ध तिर्थाटन है ये!! इसमें नर्मदा माँ का लंघन किये बिना ३वर्ष ३मास और ३दिन में करने का विधान है!! इस यात्रा को करने वाले सन्यासियों का उपसास ऊड़ाना तो बहूत ही आसान है!! किन्तु एक बार मन से उन तीर्थ- पथिकों की साधना की गहेराईयों पर विचार तो करो आप !!

एक ऐसे ही बिल्कुल युवा सन्यासी मुझे काफी वर्षों पूर्व मिले थे!! जो एक अति सम्पन्न परिवार के थे!! और सन्यास लेकर काषाय धारण कर,सर्व त्यागी होकर भिक्षा-पात्र लेकर नर्मदा परिक्रमा सम्पन्न की थी!! और अभी कुछ दिनों पूर्व मैं इनके साथ उत्तराखंड की यात्रा पर गयी थी!! तो उन्हे चमोली स्थित एक छोटे से आश्रम का संचालन करते देखी!!असंतुष्ट देखी!!और नाना जंजालों में फंसकर साधना-सत्संग से दूर देखकर मन मेरा मानो घायल सा होगया!!

तभी तो मैं कहती हूँ कि आपको अपने घर को ही मन्दिर बनाना होगा!!आपके घर में ही गंगा प्रवाहित होगी!! आपका आँगन ही "निकुञ्ज-कोठरी" बन सकती है!!और जिससे घर में साधना ना हुयी!!उससे वन में भी कदापि नहीं हो सकती!! तभी तो दशानन कहते हैं कि-"विमुक्तदुर्मतिः"अपनी मति को दुष्ट तथा मायिक आवरणों से!!लोभ और वासनाओं से मुक्त करने की आवस्यकता है!!

और वो कैसे!!  हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि-" सदाशिरः स्थमञ्जलिंवहन्"मैं अपने सर पर दोनों हांथों को जोड़कर रखे हुवी स्थिति को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ!!आपको मैं एक विशिष्ट मुद्रा का स्मरण दिलाती हूँ #दण्डवत_प्रणाम अर्थात किसी दण्ड के समान आप की स्थिति हो जाये!! #काष्ठवत्!!

आप इन स्मृतियों को भी तो देखें-
जब अपने महान शूरवीर पाँच पतियों,धर्मज्ञ भीष्म,द्रोणादि के समक्ष #अबला हुयी पांञ्चाली के वस्त्रों को दुःशाषन खींच रहा था!! तो पहले तो बिचारी थी द्रौपदी!!अपनी लज्जाको बचाने का पुरजोर प्रयास किया!! कस कर अपने वस्त्रों को पकड़ ली!!किन्तु जब अपना जोर नहीं चला!! तो अपने दोनों हांथों को सर पे उठा ली!हे मुरारी...
#अग्रे_कुरूणाम्_अथ_पाण्डवानां,
               #दुशासनेनाहृत_वस्त्र_केशा।
#कृष्णा_तदाक्रोशत्_अनन्यनाथा
               #गोविन्द_दामोदर_माधवेति ।।

और हे प्रिय!!जब वन में सुतीक्ष्ण ऋषि ने मेरे राम को देखा!!तो भावातिरेक में वो पागल हो गये!अपने शरीर की सुधि खो बैठे!!दण्ड के समान भूमि पर गिर पड़े!!उद्धव,ध्रूव की स्थितियों का आप स्मरण करें!! और ये भी स्मरण करें कि निर्वस्त्र गोपियों ने सरोवर के बाहर आकर भी जब अपने कुछ अंगों को छुपाने के प्रयत्नाअन्तर्गत अपने सांसों और भुजाओं पे रखा तो मेरे प्रियतमजी ने स्पष्ट आज्ञा दी थी कि #ना अपने दोनों हांथो को बिल्कुल सर पे उठाकर दण्डवत होना होगा तुम सभी को!!

और जब गौरांग ने अपने दण्ड को भी हठात् छोड़ दिया!! दोनों हांथों को ऊठाकर नृत्य करने लगे तो मूर्छित हो गये!!मैं आपको अथर्ववेद•४•१३•६• का यह मंत्र अवस्य ही दिखलाना चाहूँगी-
#अयं_मे_हस्तः #भगवानयं_भगवत्तरः।
#अयं_मे_विश्वभेषजोऽयं_शिवाभिमर्शनः।।

हे प्रिय!!ये जो दशानन कहते हैं न कि- सदाशिरः स्थमञ्जलिंवहन्"मैं अपने दोनों हाथों को दण्डवत रूप से सर के ऊपर जोड़कर अर्थात संसार के सभी आश्रयों का त्याग कर!!मनसा-वाचा-कर्मणा एकमात्र आप पे ही मैं आश्रित होकर- "विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः"डबडबाती हुयी आँखों से रूदन करते हुवे "शिवेति मंत्रमुच्चरन्" मैं कब आपके नाम का स्मरण कर पाऊंगा!!

भाव की पराकाष्ठा को पार कर दी गयी है इस पंक्ति में!!मैं इसके पूर्व अंक में अपनी किशोरावस्था की यही भावना आपसे बता चुकी हूँ!!ये आँखें डबडबाती कब हैं!! आपकी माँ जब आपको बचपन में खिलौने देकर काम में लग जाती थीं!!और आप खिलौनों से खेलने में माँ को भूल जाते थे!!और तब कुछेक छणों -घंटों के लिये माँ भी आपको भुला देती थीं!!

हे प्रिय!!मैं कुछ दिनों एक आश्रम में थी!!वहाँ अनेक गायें थीं!! उन्हे सुबह लेकर वन में लोग जाते थे!!और उनके छोटे-छोटे बछड़े आश्रम में ही रह जाते थे!!और जब गो-धुली बेला होती थी!!जब गायें वन से लौटने लगती थीं तो बछड़े!! #उम्हाऽऽऽऽऽ कहे कर मचलने लगते थे!! और उधर गायें भी अपनी पूँछ को उठाकर सरपट "उम्हाऽऽऽऽऽऽऽ"कहती हुयी आश्रम की दिशा में दौड़ पड़ती थीं!! और आश्रम आते ही जो बछड़े #हुमक_हुमक कर अपनी माँ के स्तन से लिपट जाते थे!!और वे माँ भी कितने प्यार से उन्हें चाटने लगती थीं! वो संसार का सबसे मनोरम दृश्य होता है!!

वैसे ही दशानन कहते हैं कि आप सभी आशाओं को छोड़ दो!! मात्र और मात्र शिव को ही पुकारो!! आप सबको मत पुकारो!!और आपकी पुकार में अंतर्वेदना, अंतर्भावना की पराकाष्ठा होनी चाहिये!!हाँ मैं स्वीकार करती हूँ कि यह कठिन है!! किन्तु इतना कठिन भी तो नहीं है न!!आखिर बचपन से ही माँ को पुकारने की आदत तो है ही- #क्षुधा_तृषार्ता_जननी_स्मरन्ति!

और यदि ऐसा होता है तो!!यह भी होगा कि-"शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्"तो हे प्रिय!!पुनश्च दशकन्धर कहते हैं कि "सदा-सुखी" आप हो जाओगे!!

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