Tuesday 11 September 2018

जैन-मत

जैन मत के १४ सूत्र--१
#ये_मंत्र_वेद_शास्त्र_बीजक_आगम_धम्मपद_उनसे_हैं_उनके_लिये_हैं!!

हे प्रिय!!जैसी कि मेरी प्रतिज्ञा तथा मान्यता है कि भारतीय ज्ञानमयि संस्कृति के अंतर्गत विश्व के सम्पूर्ण #जीवनमुक्त महापुरुषों के शब्दों में भिन्नता होते हुवे भी"मतैक्यता-परमार्थ "ही है!! मैं"आज से जैन-मत के #कैवल्य_पद_प्राप्ति विशय पर कुछ निबंध प्रस्तुत कर रही हूँ!!यह एक मेरी बहूत समय पूर्व में लिखित श्रृखलात्मक प्रस्तुति है,जिसका पुनर्षंशोधित्  संस्करण मैं अपने प्रिय श्री माधवजी के श्री चरणों में निवेदित कर रही हूँ--

कैवल्य अर्थात #विशुद्ध_ज्ञान_देहाय मुनि-वर्ग कहतेहैं कि- #मोहनीय_दर्षनावरण_ज्ञानावरण_तथा_अंतराय का भेद मिटते ही "कैवल्य"की उपलब्धि होती है----

हे प्रिय- (१) #मिथ्या_दृष्टि (२) #सासादन
(३) #सम्यक्_दृष्टि (४) #मिश्र_दृष्टि (५) #अविरत #सम्यक्_दृष्टि (६) #देश_विरत (७) #प्रमत्त_सम्यक् (८) #अप्रमत्त_सम्यक् (९) #अपूर्वकरण (१०) #अनिवृतिकरण (११) #सूक्ष्म_साम्पराय, (१२) #उपशान्तमोह (१३) #क्षीणमोह (१४) #सयोगकेवली-_योग_सहित_केवल_ज्ञान।

इन गुणस्थानों में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त आत्मशक्ति प्राप्त हो जाती है,और अयोगकेवली - योग रहित केवल ज्ञान---ये चौदह सूत्र हैं "जैन मत"के।आज मैं आपके साथ इन पर विचार करती हूँ----

प्यारी सखी!!"प्रथम सूत्र "मेरे आपके परमार्थ का सबसे प्रथम आवरण ही #मिथ्या_दृष्टि है!!"मिथ्या दृष्टि"अर्थात मैं अपने आपको #सुतपा नामधारी संज्ञा वाली और एक #स्त्री ही समझ बैठी हूँ!!

अपने भोतिक शरीर,समबन्ध,स्थान,सामग्री,विचारों आदि को ही सत्य मान बैठी हूँ,बारम्बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते अपने स्वजनों और नष्ट होते पदार्थों को देखती हूँ ,फिर भी नहीं जागती!!

काश् यह मिथ्या दृष्टि अगर मेरी मिट सकती!! इस चरण का प्रतीक ही #सकल_अज्ञान है!!अगर मैं ,अपने आपको इस स्तर से उठाने का प्रयास करूँ तो!!मैं किसी भी मत-मतान्तर के द्वारा!!सद्गुरु के द्वारा जागृत होने को यदि तत्पर होती हूँ तो इसका अर्थ ही यह होता है कि मैं #स्वरूप_चिन्तन हेतु कृत संकल्पा हूँ।

हे प्रिय!! यदि सद्भाग्य से ऐसा होता है!!तो यह भी साथ ही साथ होगा!!एक घटना सी घटित होगी!!
आपमें कुछ अस्थायी #उर्जा ईश्वर प्रदत्त अंतः प्रेरणा"विकसित होगी ही।

आवस्यक नहीं है कि आप किस गुरू के शिष्य हैं!!
यह भी जरूरी नहीं है कि आप जैनी हैं या बौद्ध!!
आपका ईश्वर आगम और धम्मपद में नहीं है!!आपके "साहिब"बीजक में नहीं हैं!!मेरे "साँवरे"जी कागज की बनी किताबों और स्याही से लिखे मंत्रों में नहीं हैं!

ये मंत्र,वेद,शास्त्र,बीजक,आगम,धम्मपद "उनसे हैं,उनके लिये हैं"!!मेरी और आपकी एक समस्या है!!
आप जैसे ही भगवद् मार्ग पर चलेंगे आपके आगे -पीछे के आपके ही सहयात्री आपको पीछे घकेलना!!
आपको भृमित करना!!आपके पथ को गलत शिद्ध करना प्रारंभ कर देंगे!!

इसे ही आगम में जैन मुनी कहते हैं- दर्शनमोहनिय कर्म की पहली तीन ऊर्जा - जो सही विश्वास को रौकती हैं!!मैं आपको एक बात बता दूँ!!#मैं आपकी बहन सुतपा"अज्ञानी हो सकती हूँ!!व्याकरणादि से अनभिज्ञ हो सकती हूँ!!किंतु नकलची नहीं हूँ!!गूगल की आश्रिता नहीं हूँ!!

काॅपी पेस्ट के द्वारा आपको किसी की जूठन अपने नाम से नहीं परोसूँगी!!महापुरुषों द्वारा प्रकट किये गये शास्त्र उपनिषद बीजक आगम और धम्मपद जैसे सद्गगृंथों के आश्रय में ही आपके समक्ष अपने विचार प्रकट करूँगी।

#जिन_मत यह स्पष्ट करता है कि- #अनंतनुबंधि  अनंत प्रकार के क्रोध, अभिमान, छल और लालच का कारण "मिथ्या दृष्टि" ही है!!और ऐसा ही हमारी वैदिक संस्कृति भी कहती है!!और इसके शमन का उपाय है--
(२) सासादन सम्यक्-दृष्टि" जो कि द्वितीय सूत्र है---

हे प्रिय!! जब मुझे #अनंतनुबंधि' के कारण अनेक विधाओं से नाना प्रकार के क्रोध, अभिमान, छल और लालच सताने लगते हैं!! #आगम के चौदह सूत्रांतर्गत दूसरा सूत्र यही कहता है कि- #सासादन_सम्यक्_दृष्टि
अत्यंत ही मनोरम सूत्र है यह-

जिन मत का यह सूत्र कहता है कि-"सासादन"यह गुणस्थान मेरी आपकी मानसिक स्थिति को दर्शाता है जब मैं सम्यक् दर्शन से डिग रही होउँ। इसका अर्थ है मेरे #समयक्त्व का विनाश!!

#आत्मवत्_सर्वभूतेषु मुझे जैसा ब्यवहार अपने लिये अच्छा लगता है,वैसा ही ब्यवहार तो सभी को पसंद होगा न!! यदि मुझे मीठी भाषा ,सहयोग आदि अच्छे लगते हैं,तो हम दूसरों के साथ भी वैसा ही करें!!
अब एक बात और!!गहनता से विचार करें!!

यदि मैं आपका आदर न करूँ,और आपसे आदर की अपेक्षा करूँ तो यह उचित होगा ?
मैं सबका आदर करूँ!!यह मेरा कर्तब्य है,और मेरे वश में भी है!!और आप मेरे साथ कैसा ब्यवहार करते हो,यह आपकी ईच्छा और आपके वशमें है!!
लेकिन मैं तो सम्यक-दृश्टि का पालन कर सकती हूँ न!!

तिर्थंड़्कर कहते हैं कि-
#आसन_से_मत_डोल_री_तुझे_पिया_मिलेंगे"
मैं आपको यह स्पष्ट कर दूँ कि #तीर्थ॔कर अर्थात जिन्होंने "आत्म गंगा"में स्नान कर लिया!!"निवृत्त" हो गये जो परमार्थ से!!वही तो स्नान की विधी भी बतला सकते हैं न!!

सूत्र कहता है कि"सासादन"अब यहाँपर एक बात कहूँगी-जैन गृंथों में सनातन के विरूद्ध आग उगली गयी है!!सनातन के राम कृष्णादि के प्रति घृणिततम् शब्दों का प्रयोग किया गया है!!भगवती सीता के चरित्र को अत्यंत ही घृणास्पद चित्रित किया गया है!!
राम कृष्णादि को नर्क गामी कहा गया!!उनके शाषन काल में अनेक मंदिरों को तोड़ दिया गया!!

हमारे भी कुछ आचार्यों ने प्रतिकार करते हुवे कहा है कि- अगर तुम्हारे पीछे पागल हाथी तुम्हे कुचलने को दौड़ रहा हो!!तुम्हारे दाहिनी तरफ खंदक हो!!और बाँयी तरफ #जैन_देरासर" तो हाथी के पाँव तले कुचल जाना!!खाई में कूद जाना!!पर बचने के लिये जैन देरासर में मत जाना!!

इतनी गहेरी "शत्रुता"है हममें और उनमें!!ईशापूर्व ८७० वर्ष पूर्व  आचार्य प्रवर पार्श्वनाथ जी ने इस खाई को पाटने के लिये यह सूत्र कहा था!!किंतु किसी ने भी इस सूत्र को समझने का प्रयास नहीं किया!!

मैं तो आपसे इतना जरूर कहूँगी कि-जो शराबी हैं,हिंसक हैं,असामाजिक हैं,जिन्हें अध्यात्मादि में रुचि नहीं है!!वे तो इस सूत्र को कदाचित न समझें!!किंतु जो "मुनी"हैं ,उन्हे तो समझना ही होगा!!कल तक किसने समझा न समझा!!छोड़ दें इन सब बातों को!!

भूल जायें!!कि कुछेक "जिनाचार्यों "ने  हमारे सनातन को जैन मत से खण्डित करने हेयु यह सब प्रक्षेपित "दुष्ट-दष्टांत"भर दिये।ज्ञानी बदला नहीं लेते,आग में ईंधन नहीं डालते!! #गंगाजल डालते हैं!
आज भी एक प्रशिद्ध जैन-मुनी सनातन के विरुद्ध आग उगलते हैं!!

आप देखना !!शायद फेसबुक पर ही जैन मत के कोई विरोधी मेरे निबंध पर भी नकारात्मक विचार रख सकते हैं!!किन्तु क्या यह उचित होगा ?
सासादन-हम आप अपनी सम्यक दृष्टि से डिग रहे हैं! यह सूत्र हमें सावधान करता है!!

हे प्रिय!!अब तीसरा सूत्र कहता है कि- #मिश्र_दृष्टि"
मिश्र अर्थात मिश्रित!!इस कक्षा में हम-आप समयक्त्व पर थोड़ा विश्वास और थोड़ा-थोड़ा संदेह भी करते है। मैं आप पर थोड़ा सा विश्वास करती हूँ!!
अपने ऋषि,मुनियों,संतों,शास्त्रों,गुरुवचनों आदि पर कुछ-कुछ विस्वास करती हूँ!!

लेकिन पूरी तरह से, नहीं कर पाती!!और उसका भी कारण है!!पूरब और पश्चिम का भेद है!!जमीन और आसमान का अंतर है इसमें!!

भोगवादी विचार धारा #आत्मत्तव को ही नकार देती है !! और #आत्मवादिता संसार को ही नकार देती है!!विद्वान कहते हैं!!संसार मिथ्या है!!छोड़ दो!!
बुद्धिवादी कहते हैं"यह सब ढोंग है"छोण दो।बस इसी मिश्रित बुद्धि के कारण भ्रमित हो जाती हूँ मैं!!

लेकिन प्रिय!!ज्ञानी संत जन कहते हैं कि -
#संसार_में_जागो_मत_विशयों_से_भागो_मत संसार ही तुमसे दूर हो जायेगा!विशय ही तुमसे भाग जायेंगे!
#मुनीर्भवः अपनी गायों को अपनी ईच्छा और अपनी निगरानी में ही वनों में "चरने दो"नहीं तो फिर"गयी भैंस पानीमे"

वे कहते हैं कि" मिश्र दृष्टि"रक्खो!!जल और गंगाजल को मिश्रित कर दो!!दीपक के प्रकाश को सूर्य के प्रकाशमें मिला दो!!मतांतर नहीं मतैक्यता का सूत्रपात करो!!मैं आपकी अच्छी बातों को सुनूँ!!आप मेरी सुनो!! मैं अपनी बुराईयों को छोड़ दूँ!!आप अपनी छोड़ दो!!शत्रुता के इतिहास के कुछ पन्नों को मैं जला दूँ!!कुछ पन्नों को आप जलाकर खाक कर दो!!

हे प्रिय!!इस संदर्भ में मैं आपको आयारो▪९▪१▪११▪१६ दिखाना चाहूँगी-
#अदु_थावरा_तसत्ताए_तसजीवा_य_थावरत्ताए।
#अदु_सवज्जोणिया_सत्ता_कम्मुणा_कप्पिया_पुढो_बाला ।।
इन भगवान महावीर स्वामीजी के वाक्यों को तो आप नकार नहीं सकते न!! ये आपकी सत्ता और मेरी सत्ता क्था पृथक्-पृथक् हो सकती है!!

हे प्रिय!!मैं कुछ दिनों पूर्व गुजरात तथा माऊंट-आबू गयी थी!! आज भी गुजरात के ७५% ग्रामीण क्षेत्रों में भी जैन देरासर हैं,माउंटआबू के देरासर तो विश्व प्रशिद्ध हैं!! और मेरी ही नहीं ९९.९९%प्रतिशत हिंदू धर्मके सभी घटक समुदाय आज भी इन देरासरों को उतना ही सम्मान देते हैं जितना कि किसी #शिवालय को!!

मैं तो स्पष्ट रूप से उद्घोस कर सकती हूँ कि भले ही #नव_बौद्धिष्टों अथवा कुछेक भटके हुवे ....समाजियों नें सनातन हिंदू संस्कृति को चोट पहुँचायी हो!!बाँटने का प्रयास किया हो!!किंतु हिंदू जन-सामान्य की दृष्टि में नानक,गुरू गोविंद सिंह,कबीर,महावीर,बुद्ध से न कोई दूरियाँ थीं और न ही कभी रहेंगी भी!!

हे प्रिय!!जब कभी मैं बीजक,गुरू ग्रंथ साहिब, आगम,धम्मपदादि ग्रंथों और वेद,उपनिषद,गीताजी आदि के उपदेशों और मंत्रों को देखती हूँ,तो मुझे तो कहीं भी और कोई भी भेद दृष्टि-गोचर नहीं होता किंतु जब इन्हीं ग्रंथों के कुछेक भटके हुवे अनुयायी अथवा तथाकथित संतों के वितृष्णा भरे विचार पढती हूँ तो आश्चर्य चकित सी रह जाती हूँ!!

मेरे कहने का तात्पर्य मात्र यही है कि- मेरी आर्यावर्तीय संस्कृति में पनपी कोई भी विचारधारा #....स्लाम की तरह कभी भी आतंकवाद की समर्थक नहीं हो सकती!!हम हिंदुओं के रक्त में #सहनाववतौ_सहनो_भुनक्तुः #सहवीर्यम्_करवावहे की समन्वयात्मकीय विचार-धारा सदैव ही रहेगी ही!!

हमारी भागवत भी कहती है कि-
#संसार_मां_सरखो_रहे_मन_राखे_म्हारे_पास"
आपका सूत्र भी कहता है कि"मिश्र-दृष्टि"रख कर ही आगे मैं चल सकती हूँ!!थोड़ा सा विस्वास मैं आप पर करती हूँ!!थोड़ा सा संदेह भी!!
#दो_कदम_हम_भी_चलें_दो_कदम_तुम_भी_चलो!!
तभी तो नया सबेरा होगा न!हे प्रिय!!तो अब पिछले सूत्र से उत्पन्न प्रश्नों का समाधान इस अगले चौथे सूत्र में बताते हैं!!चौथा सूत्र कहता है कि- #अविरत_सम्यक्_दृष्टि"जब मुझ मूर्खा #सुतपा" का संदेह मिटजाता हैं,तब मैं इस गुणस्थान में पहुँचती हूँ और सम्यक् दृष्टि (सच्चीआस्तिक)। कहलाती हूँ!!और यह संदेह ध्यान या गुरु के निर्देश के द्वारा ही हट सकता है।

अब यदि हमारे आचार्य प्रवर,शास्त्रज्ञ,गुरुजन हमें सत्याऽसत्य से परिचित कराते हैं!!यह बताते हैं कि - #कबिरा_कूँवा_एक_है_पनिहारियाँ_अनेक तभी तो मेरी "मिश्रित-बुद्धि"भी नष्ट होगी न!!सखियों!!आप मेरे अस्तित्व को मानती हैं अथवा नहीं"यह आवश्यक नहीं है!!आवश्यक यह है कि मैं आपके अस्तित्व को मानूँ!!यही #आस्तिकता है!!यही आस्तिकता है!!

"अविरत सम्यक्-दृष्टि"जैसे एक भूखा!!रोटी को अनवरत दृष्टि से देखता है!!वह किसके हाथ में है,यह नहीं देखता!!बस वैसे ही मैं"आगम"के ज्ञान को देखूँ!!वह किस सम्प्रदाय का है ,यह न देखूँ!!

मुझे तो उपनिषद और आगम में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो  वेद और बीजक में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो  धम्मपद और पुराणों में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो राम और कृष्ण में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो शैब्य और वैष्णव में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो  निर्गुण और सगुण में अंतर नहीं दिखता!!
मुझे तो  प्रिया और  प्रियतम में अंतर नहीं दिखता!!
यही सम्यक अविरत दृष्टि है!!

मैं आपसे एक बात जरूर कहूँगी!!मुझे विश्वास है आप नाराज नहीं होंगे!!यदि गुरुजन,सच्छास्त्र,अथवा मेरे प्रियतमजी हमें यह कहते हैं कि-"तूँ मेरी ही बात को मान!!मेरा ही विश्वास कर!!और सबको छोड़ दे!!तो उनका यह अभिप्राय नहीं होता है कि"दूसरे झूटे हैं"आधे अधूरे अधकचरे ज्ञानी हैं!!
उनका तो यह अभिप्राय होता है कि---
"सर्व धर्मान परित्ज्य मामेऽकं शरणं वृजः:"

हे प्रिय!! अब पँचम सूत्र कहता है कि- #देश_विरत"
देश अर्थात आंशिक रूप से सम्यक् चरित्र की प्राप्ति के लिए आंशिक व्रतों का पालन और स्थूल रूप से पँञ्च महापापों का त्याग!!अर्थात चतुर्थ सूत्रोत्पन्न शंका का उपाय इस अगले सूत्र में बताते हैं!!

वर्तमान देश"अर्थात वर्तमान परीस्थितियों में मैं जैसा भी जीवन जीवन जी रही हूँ!!उसमें आंशिक रूप से क्या परिवर्तन कर मैं सकती हूँ ? आंशिक रूप से, सम्यक् चरित्र की प्राप्ति के लिए!!सबसे सामंजस्य स्थापित करने के लिये!!वैमनस्यता की भावना से बचने के लिये!!मुझे क्या करना चाहिये!!

हे प्रिय!!"हिंसा"से दूर रहना ही श्रेयस्कर है!!और सखियों प्राणी हिंसा जितनी ही वैचारिक हिंसा भी महापाप की श्रेणी में आती है!!यदि मैं सनातन की प्रशंसा हेतु जैन मत की निंदा करती हूँ!!या मुनी-गण जैन-मत की प्रशंषा में सनातन की निंदा करते हैं तो यह भी हिंसा ही है!!

किंतु स्वराष्ट्र-धर्म स्वाभिमान के रक्षार्थ की जाने वाली "हिंसा"अहिंसा है!यह भी मैं स्पष्ट कर देती हूँ!!

और ईसापूर्व से ही जैन मुनियों के अर्थ को यथार्थ न समझकर क्षत्रियों ने "क्षत्रिय"धर्म का योग्यता से पालन न  कर #अहिंसा शब्द का अनर्थ कर कायरता धारण कर ली!!मध्य एशिया से आये शालीवाहन के वंशज"शक"राजाओं ने "जूँवे"मारने पर भी मृत्युदण्ड की व्यवस्था थोप दी!!

#पूरे_समाज_और_राष्ट्र_को_नपुंसक_बना_दिया_जो_हमारी_अवनति_का_मूल_कारण_हुवा!!

हे प्रिय!!और दूसरा महापाप है"असत्य"भाषण!!
और तीसरा महापाप #परिग्रह"हैअपनी आवश्यकता से अधिक संचय!! मृत्यु अचानक सबकुछ आपसे मुझसे एकझटके में  छीन लेती है!!और भी-
#पूत_कपूत_तो_का_धन_संचय।
        #पूत_सपूत_तो_का_धन_संचय।।
और जैसे ही मैं आवश्यकता से अधिकके सञ्चयसे अपने को बचाने का प्रयास करती हूँ!!

तो मेरे आसपास एकत्रित बहुत ही मेरे लिये #निष्प्रयोज्य।किंतु!!दूसरों के लिये,उनकी परमावस्यक जीवन रक्षक सामग्रियाँ दिख पड़ेंगी!!
तब आप सहानुभूति से भर उठेंगे!!आप को दूसरों के कष्ट से कष्ट होगा !लेकिन यह विचार भी आता है कि वह दुःखी है,मैं सुखी क्यों!!मैं उनके सुख के लिये क्या कर सकता हूँ !!और आप #अपरिग्रही हो जायेंगे!!दानशीलता आपको शुभ्र करुणामयी भावनासे ओतप्रोत कर देगी!!

और तभी आपको अपना चौथा महापाप दिख पड़ेगा- #चौर्य "आप स्वयं ही यह महेसूस करेंगी कि आपके पास यह जो अपनी आवश्यकतासे अधिक धन वैभवादि एकत्र हुवा है!!यह दूसरो के अधिकार थे! प्रकृति ने उसे दूसरों की आवस्यकता हेतु निर्मित किया था!!

मैंने उनके अधिकारों की चोरी करली-
#अहोमत्बृहत्_पापम् मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये था!!और आप"अचौर्य"वृत में स्वयं ही दिक्षित हो जायेंगे!!

हे प्रिय!!और ऐसा मैं आपकी सहेली"सुतपा"सत्य कह रही हूँ कि ऐसा होने पर ही #विशयलोलुपता रूपी महापाप से मैं बच पाऊँगी!!
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे मैं #अचौर्य पर आपके साथ पुनः इस विशय को समझने का प्रयास करती हूँ,अचौर्य जीव मात्र के भीतर मुझे झाँकने का एक अवसर उपलब्ध कराता है!! जैन साधू-संतोंमें मैं एक अद्भुत गुण मैं देखती हूँ,वे श्वेताम्बर हों या दिगाम्बर उनमें असंचय की अद्भुत प्रवृत्ति मैं पाती हूँ!! और इसके मूलमें है"ब्रम्हचर्य"की अद्भुत अकल्पनीय वृत्ति!!

हे आदरणीय,मैं ,इसे समझने हेतु एक दृष्टांत प्रस्तुत करती हूँ- एकबार अश्वनीकुमारों ने वाग्भट् से पूछा कि- "ऐसी कौनसी औषधि"है जो आकाश या पृथ्वी पर नहीं होती,जो पथ्य है,और सभी विकारों तथा व्याधियों का शमन करती है ?
तो वाग्भट् ने कहा कि- #लंघन"

हाँ प्रिय!!चरक,शूश्रुत,बिंदुमाल्य इत्यादि भी अनेक आयुर्वेदाचार्योने प्राचीनकालसे ही अधिकांशतः व्याधियों मे "लंघन"और मिताहार-आचार की प्रधानता बतायी है।

जिन-सागर को ह्रिदय से नमन करते हुवे मैं यह समझती हूँ कि,ये पूज्य आराध्य"मुनि-गण" अधिकाँशतः लंघन और मिताहारको प्रधानता देते हैं!!
अब आप स्वयं ही देखें,महावीर स्वामी,पार्श्वनाथ स्वामी ही क्या लगभग सभी तीर्थड़्करों ने अनेकानेक बार और अनेक दिनों तक लंघन किया!!

"भिष्म पितामहने शर-शय्या पर उत्तरायण आने तक उपवास पूर्वक अपने प्राणोंको क्यों रोके रक्खा ?
क्यों कि कौरवों के पापान्न से निर्मित रक्त और माँसके
पूर्णतः नष्ट हो जाने की उन्होंने प्रतिक्षा की!!और यह लंधन का महत्व भी है!!

मैं इनकी ज्ञान-गम्यता को समझने का प्रयास करते हुवे कहती हूँ कि-अन्न अपने साथ प्राप्तकर्ता अथवा उपलब्ध कर्ता के विचारों का भी वाहक होता है!!
भगवान कृष्णने विदुरजी से स्पष्ट कहा था कि-
#पापीके_घर_का_अन्न_खान_से_बुद्धी_बिगड़_जाती_है!!

हे प्रिय!!अन्न की मात्रा को अभ्यास पूर्वक कम करते जाने से शरीर क्रमशः अपना निर्वाह प्राप्तान्न में करने में सक्षम होता जाता है!!उसकी आवश्यकतायें कमतर होती जाती हैं!!और इसी के साथ ही उसकी नाना विशयोपभोगों के प्रति रूचि और ईच्छाऐं भी स्वयमेव ही समाप्त होती जाती हैं!!

मैं अपने आप से पूछती हूँ कि मेरी सनातन संस्कृति में अनेकों व्रतादि करने का विधान इसी कारण तो है कि व्रतों के द्वारा हम अपनी आवस्यकताओं को क्रमशः संयमित करने का प्रयास करें,हम ऐसा न करें कि व्रतादि पर्वों पर अन्न न लेकर उनके स्थानों पर और भी पौष्टिक तथा स्वादिष्ट फलाहारों का सेवन क्या उचित है ?

हे प्रिय!! अचौर्य सूत्र कहता है कि यदि हम अपनी जीवनोपयोगी आवस्यकता से अधिक वस्तुओं का दूसरों के लिये त्याग कर दें,दीन-दुखियों को बाँट दें!!उनके अधिकारों की चोरी न करें!!मिथ्या तथा व्यर्थ संग्रह न करें!! तो निश्चय ही एक सभ्य,स्वस्थ, सुपोषित तथा समृद्ध राष्ट्रीय-संस्कृति के निर्माण में हम आप भी सहयोगी हो सकते हैं!!

और ऐसा होने पर आप किसी के आश्रित तो क्या निर्द्वन्द हो जाते हैं!यही तो स्वतंत्रता है!!

1 comment:

  1. सम्यक दृष्टि, अति सुंदर

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