Tuesday 11 September 2018

पितृसूक्त

पितृ-सूक्त मंत्र-३ अंक~५

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में तृतीय ऋचा का अंक मैं प्रस्तुत करती हूँ-

#आहं_पितृन्_त्सुविदत्रां_अवित्सि_नपातं_च_विक्रमणं_च_विष्णोः।
#बहिर्षदो_ये_स्धया_सुतस्य_भजन्त_पित्वस्त_इहागमिष्ठाः।ऋषि कहते हैं कि-उत्तम ज्ञान से युक्त पितरों को तथा अपानपात् और विष्णु के विक्रमण को मैंने अपने अनुकूल बना लिया है!!कुशाशनपर बैठने के अधिकारी पितर अपनी इच्छाके अनुसार हमारे द्वारा अर्पित हवि और सोमरस को ग्रहण करें!!

हे प्रिय!! ऋचा के भाव को समझने हेतु मेरे विचारसे कुछ बिन्दुओं पर मैं चर्चा करना आवस्यक समझती हूँ-
(१)= कुशासन,हवि तथा सोमरस की महत्ता।
(२)= विष्णु विक्रमण तथा अपानपात्।
श्राद्ध पद्धतियों की वैज्ञानिकीय गवेषणाओं को न समझने के कारण ही आज हमारे पौरोहित्य वर्गों का अपमान होते तथा सनातन संस्कृति की सत्यतादि पर भी मैं उंगली उठते देखती हूँ!!

वैसे मैं आपको कुशा तथा दूर्वा के संदर्भ में अथर्ववेद •१९•३२•१~१० की पूरी विशिष्ट गुणों को बताने वाले #कुशसूक्त को देखने की सलाह अवस्य ही दूँगी जिसमें कहते हैं कि-
#इरावती_धेनुमति_हि_भूत_सूयवसिनी_मनेवदशस्या।
#व्यस्यकभ्नारोदसि_विष्णवे_ते_दाधर्थ_पृथिवीमभितोमयूखैः #स्वाहा। #इदं_विष्णवे_इदं_न_मम।।

हे प्रिय!!कुशा,ऊशीर तथा दूर्वा ये तीनों ही औषधियाँ असंक्रामक अर्थात Non Contacted हैं!! यहाँ तक कि आज विश्व की प्रख्यात दवा निर्माता कंपनियों नें इन तीनों ही औषधियों का पेटेंट ले लिया है!! और अब जाकर इस्काॅन ने इसके विरुद्ध उनपर कानूनी कार्यवाही की है!!मैं ज्यादा तो नहीं जानती किन्तु १२५० से कहीं ज्यादा #एंटीबायोटिक दवाओं में इनके ७५ %तक घटकों का प्रयोग हो रहा है!!

और वैसे भी आयुर्वेद की औषधियों में मूत्राघात, अश्मरी, मधुमेह,कष्टार्तव,विशूचिका,अम्लपित्त, शीतपित्त,कुष्ठ,अर्बुद, कर्कट अर्थात कैंसर,राजयक्ष्मा आदि अनेकानेक व्याधियों में प्राचीनकाल से ही इनका उपयोग चरक,भाव-प्रकाश, रसराज तरंगिणी, निघण्टु आदि अनेकानेक गृन्थों में आपको इनके हजारों प्रयोग मिल जायेंगे!!

हे प्रिय!! ऐंटीबॉयोटिक का काम मेरे विचार से ये होता है कि वो आपके अंतर्यन्त्रों तथा रस-रक्तादि के मध्य एक अभेद्य परत बनाकर रस,मूत्र तथा मलके द्वारा संक्रमित कीटाणुओं को निष्कासित कर देती है!! अर्थात आप ध्यान से समझें कि इस कुशा,ऊशीर तथा दुर्वा,तिल-यव,मृग-व्याघ्र चर्म की ये विशेषता होती है कि ये आप और भूमि के मध्य एक ऐसी परत का काम करते हैं कि आपकी ऊर्जा अथवा भूमि की ऊर्जा का परस्पर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है!!तभी तो..

#लोमभ्य_स्वाहा_त्वचे_स्वाहा_लोहिताय_स्वाहा_मेदोभ्य_स्वाहा #मांसेभ्य_स्वाहा_स्नावभ्य_स्वाहा_मज्जभ्य_स्वाहा_रेतसे_स्वाहा_आयासाय_स्वाहा कहते हुवे इन द्रव्यों की प्रशंशान्तर्गत यही स्पष्ट किया गया है कि उपरोक्त आसनों पर बैठने से शरीर के रोमकूप,त्वचा,रक्त,शोणित,मेदा, मज्जा, मांस,स्नायु,रेतस तथा शूक्र इत्यादि १२+७=१९ तत्व!!

ये सभी के सभी एक दूसरे से परस्पर बारम्बार सम्बन्ध-विच्छेद होते हुवे आपके भीतर एक ऐसा आंदोलन कर देते हैं कि भूमि आकर्षण अथवा अंत्र-यंत्रों के मध्य एक अद्वितीय शोधन प्रक्रिया प्रारंभ होकर आपको व्याधि-मुक्त करने में सहायक होती है!!

और हे प्रिय!! प्रकरणान्तर्गत सोमरस पर भी मैं आपसे संक्षिप्त में चर्चा करती हूँ-"अष्टक-वर्ग,सोमवल्ली,दशमूल, तथा मधु के साथ- अब एक प्रचलित विशेष भ्रान्ति मैं मिटाना चाहती हूँ कि सोमरस #मद्य है!!इस हेतु मैं आपको अथर्ववेद •२१•३• को दिखाना परमावश्यक समझतीहूँ..

#गावो_भगो_गाव_इन्द्रो_म_इच्छाद्गावः #सोमस्य_प्रथमस्य_भक्ष्यः।
अर्थात गोवें हमारा मुख्य धन हैं,इन्द्र हमें गोधन दें! जिससे कि हम सोमरस के साथ गो-दुग्धको प्रधान वस्तु के रूप में मिश्रित कर देवताओं के लिये मुख्य नैवेद्य का निर्माण कर सकें!!

अब आप स्वयम अपने विवेक से विचार करें कि किसी शराबी को आपने शराब में सोडावाॅटर अथवा जल मिला कर तो पीते देखा होगा किन्तु शराब और दूध का तो "३६" का आंकङा विश्व-विख्यात है!! अतः हे प्रिय!! मद्यपान और सोमरस-पान को मिलाकर दैखना अति घृणास्पद विचार तथा प्रचार है!!

अब मैं हविष्य अर्थात #पिण्ड_सामग्री पर भी कुछ चर्चा करना आवश्यक समझती हूँ!!तिल,यव,धृत,मधु तथा गो दुग्ध से पिण्ड-निर्माण की प्रक्रिया की जाती है!! ये जो कुछ लोगों ने #मास का अर्थ मांस से कर रखा है वे जानबूझकर उणद को मास कहते हैं!!इस बात को छुपा लेते हैं! और पिण्डों में वैसे तो उणद -चूर्ण का मिश्रण करने का कहीं भी विधान नहीं मिलता किन्तु फिर भी पिण्ड में माँस मिश्रित कर  करती हूँ!!
हे प्रिय इस संदर्भ में मैं आपको ऋग्वेदोक्त विष्णु-सूक्त की पञ्चम ऋचा को दिखाना चाहूँगी-
#तदस्य_प्रियमभि_पाथो_अश्यां_नरो_यत्र_देवयवो_मदन्ति
#उरूक्रमस्य_स_हि_बन्धुरित्था_विष्णोः #पदे_परमे_मध्व_उत्सः।।
और इसी श्लोक में "विष्णु-विचक्रमण" का रहस्य छुपा हुवा है!!

मैं आपसे बारम्बार कहूँगी कि मंत्रों को पढना आवश्यक है किन्तु समझना!!उससे कहीं ज्यादा आवश्यक है! विष्णु की नाभी से-ब्रम्हा, ब्रम्हा से मरीचि और मरीचि से कश्यप, कश्यप से सूर्य तथा सूर्य से मनु अर्थात मानव अर्थात मेरी आपकी इस चैतन्य मयी सृष्टि की संरचना होती है! और आप यह स्मरण रखें कि वेदों के जितने भी मंत्र हैं वे प्रकारान्तर से सूर्य को केन्द्र में रखकर ही परिभाषित होते हैं!!

मरीचि अर्थात वो पात्र जिससे सूर्य ढँका हुवा है!! आप उसे ज्ञान कह लो अथवा अज्ञान कह लें!!बात एक ही है! और कश्यप ऋषि तो हैं ही किन्तु जैसे कि यदि किसी का नाम -राम रख दें तो वो "राम"नहीं हो जाते!! उसी प्रकार कश्यप नामधारी ऋषि और ऋचोक्त कश्यप में भेद है!!

सभी गोत्र जिनसे उत्पन्न होते हैं!!और जिनका कोई गोत्र ज्ञात नहीं होता उन सभी को!! ब्राहम्ण,क्षत्रिय,वैश्य हों अथवा शुद्र और तो और मैं तो ये भी कहूँगी कि जो सूर्य के भी पिता हैं!! वे कश्यप हैं!!वे तो जड-चैतन्य,पशू पक्षी सभी के पूर्वज अर्थात इस ब्रम्हाण्ड का गोत्र ही "कश्यप" है और कश्यप अर्थात #विष्णु ऐसा वेद कहते हैं कि-

#अग्निर्जागार__तमृच_कामयन्ते_अग्निर्जागार_तमुसामानि।
जब अग्नि जागती है!!जब विष्णु जागते हैं तो ऋचायें अपने आप प्रकट होने लगती हैं,सूर्य किरणें बिखेर देता है!! प्राण स्पन्दित होने लगते हैं!!और शब्द रूपी ब्रम्हा वाग्देवी सरस्वती अर्थात अपनी कन्या रूपी भार्या के साथ जाकर निवेदन करते हैं कि आप हमें सृष्टि निर्माण की आज्ञा दो !!

और हे प्रिय!!मैं आपसे एक बात और भी कहूँगी!आप गंभीरतापूर्वक सोचना!! मेरी तीन संतानें हों!!चलो मान लेती हूँ कि दो नालायक हों तो क्या मैं उनकी माँ नहीं हूँ ?
हो सकता है कि वे मुझे माँ न मानें,डायन मान लें!!किंतु मैं तो उनकी माँ थी, हूँ और रहूँगी भी!!

मेरे पूर्वजों में कुछेक माँसाहारी थे,कुछ शाकाहारी!! कुछ शालीन थे,कुछ निन्दनीय!! कुछ संत थे कुछ असंत!! कुछ मुस्लिम हो गये थे कुछ इसाई!! किंतु थे और हैं सभी के सभी सूर्य-पुत्र ही!!उनके मानने न मानने से होता क्या है ?

आखिर एक माँ ही तो किसीके पिता को जानती है!! हाँ!!मेरी वैदिक संस्कृति समूचे ब्रम्हाण्ड की जननी है!! मेरे पूर्वजों में धर्मच्यूत हो चुके #मुहम्मद_और_जीसस भी हैं!!मैं तो पितृपक्ष में उनका भी श्राद्ध करना चाहूँगी!!

किन्तु हे प्रिय!!अभी तो एक समस्या और भी है!! उसका समाधान कैसे होगा ?
"आहं पितृन् त्सुविदत्रां अवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः" लोगों की सोच है कि हम यदि श्राद्धकर्म करते हैं!!अपने पूर्वजों कों आमंत्रित करते हैं तो उनमें जो निशाचर प्रवृति के होंगे!!वे भी आ जायेंगे!!अब इसका भी मैं समाधान करती हूँ!!

मैं बंगाली हूँ!!ये तो आप सब जानते ही हो!! और मेरे पती काशी के ब्राह्मण हैं!! हम दोनों शाकाहारी हैं!! मेरा पूरा खानदान माँसाहारी है!! अब जब किसी के यहाँ भोज होता है तो निमंत्रण तो मिलता ही है!! और भोजन में मांस, मछली अंण्डे ही होते हैं!! तो हम बिचारे अपना मन मसोस कर दावत लेने से हमेशा चूक जाते हैं किन्तु कभी कदाप किसी के यहाँ शाकाहारी या विधवा के लिये भोजन पक गया तो हम लोग भी खा कर #तर जाते हैं!!

हे प्रिय!! बिलकुल वैसी ही स्थिति "विष्णु-विचक्रमण" की भी है!!भला विष्णु लोकों, स्वर्गादि में गये हमारे पूर्वज ये मधु-तिल और धृत के पिण्ड लेने क्यूँ आयेंगे ?
वहाँ तो मधु के सरोवर ही बह रहे हैं!! किन्तु क्या करें वे.. मुक्त ऋषि गण जिन्हे अपनी संस्कृति और संस्कारों से प्यार है!!वे तो मुक्त-पुरूष आपकी श्रद्धा के वशीभूत हुवे प्रेम की डोरी से बंधे खिंचे चले आते हैं!!

और ये भी आप स्मरण रखें कि मर्त्यलोकों में जिन्होंने मृत्योपरांत जन्म ले लिया है!! और कहीं भी ले लिया है!!किन्ही भी योनियों में ले लिया है!!अथवा वे स्वर्गादि लोकों में हैं!! अर्थात वे आदित्य से नीचले लोकों में हैं!तो उनका भी प्रवेश आपकी श्राद्ध-भूमि में किसी न किसी रूपों में होगा ही!!

किन्तु समस्या तो है हमारे उन दुष्ट पूर्वजों की जिनका आना निषिद्ध है!!किन्तु आवस्यकता तो उन्हे ही सबसे ज्यादा इन पिण्डों और सोमरस की है!!अब भला ये तो सच्चाई है ही कि #बंदर_क्या_जाने_अदरख_का_स्वाद जिन्हे अभक्ष्य भक्ष्य ही प्रिय है!!वे भला इस धृत-मधु मिश्रित पिण्ड और गो दुग्ध से निर्मित सोमरस का पान क्यूँ करेंगे ?

तो लो मैं अपनी ही बताती हूँ!!मेरे लिये तो माँसाहारी रसोई घर और पात्रों में बने भोजन अग्राह्य हैं किन्तु मेरे पात्रों में बने भोज्य पदार्थों को गृहण करने में उन्हे कोई आपत्ति नहीं हुवा करती!! अर्थात वे मांसाहारी भी शाकाहार की श्रेष्ठता को अंतःकरण से स्वीकार करते हैं!!अर्थात वे हविष्य तथा सोमरस भी पान करने के इच्छुक तो हैं किन्तु उन्हे इसमें कई बाधायें भी आयेंगी!!

हे प्रिय!!कुछ वर्षों!!हाँ!!आप विश्वास नहीं कर सकते, तो न करें!!किन्तु कुछ सौ वर्षों पूर्व की घटना की एक स्मृति मेरे सुसुप्त मस्तिष्क में विद्यमान है!!वो मैं थी अथवा कोई अन्य ये कहना उचित नहीं समझती किन्तु स्मृति ये है कि किसी योग्यतम तांत्रिक साधक ने अपनी साधनान्तर्गत एक अनोखा कृत्य किया था!! श्मशान के समीप स्थित एक पर्ण-कुटी में ११ दिनों की साधनोपरान्त अपने शिष्यों के द्वारा #भैरवी का मस्तक-विच्छिन्न कर यज्ञ-कुण्ड में स्वाहा कर दिया था!!

और अभी कुछ दशकों पूर्व मैं एक पहाडी पे स्थित किसी स्थान में रहती थी!! पास में एक जल-प्रपात था!!मेरी छोटी कुटिर के बगल से ही हो कर उस तक जाने का पहाङी उबङ-खाबङ मार्ग था!!मैं मध्यरात्रि ३~३० पे उठ जाती थी तो किसी की #खङाँऊं पहेन कर #खट_खट चढे और उतरने की ध्वनि नित्य सुना करती थी!!एक बार साहस जुटाकर बाहर निकल कर देखी तो एक कोई सात फुट के अति-वृद्ध सशक्त और ओजस्वी साधू थे जो एक वस्त्र धारण किये,त्रिपुँड तथा त्रिशूल धारी ऊपर से नीचे ऊतर रहे थे!!

मैं तत्काल नीचे से उन्हें स्त्रियोचित मुद्रा से प्रणाम की!! वे आकर मेरे पास रुक गये!! और बोले कि मैं जानता था कि कभी न कभी तूं मुझे देखेगी!! मेरा एक कार्य कर देगी ?
मैं तत्काल बोली कि सौभाग्य होगा मेरा आदरणीय!!
तो वे बोले कि मैं तेरे पास आज से १८ दिन तक नित्य रात्रि में बैठूँगा !! तूं मुझे प्रतिदिन श्रीमद्भग्वद्गीताजी का एक अध्याय प्रतिदिन सुनाना!!मैं तत्काल ही हाँ कह दी!!

अठारहवें दिन उन्होंने मुझे बताया कि तूं जिस कुटिया में रहती है!!उसी में मैं सदियों पूर्व रहता था!!और एक दिन ऊपर से फिसलने के कारण मेरी मृत्यु हो गयी थी!! और तबसे मैं तेरी प्रतिक्षा कर रहा था!! मेरा पुनर्जन्म तेरे से गीताजी सुनने के बाद ही होना था!! और वे चले गये!! इसके पश्चात उन्हें मैं फिर कभी नहीं देखी!!

अतः हे प्रिय!!जैसे कि किसी की असामयिक मृत्यु होती है,दुर्घटना, आत्महत्या, हत्या,कष्टदायी व्याधियों से मृत्यु होती है!! ठीक है,मैं मानती हूँ कि ये उनका प्रारब्ध हो सकता है!!जैसे धुन्धुकारी के ही प्रकरण का मैं आपको स्मरण दिलाती हूँ!! कालान्तर में #गोकर्ण ने उनकी मुक्ति हेतु प्रयास तो किया!! हाँ प्रिय!! धुन्धुकारी अर्थात अपने निशाचर पूर्वजों के भी कल्याण का मैं पक्ष रखना चाहती हूँ!!

कुछ दिनों पूर्व मेरे ज्येष्ठ भ्राता वो दिल्ली में रहते थे,पुलिस विभाग में थे उनका कैंसर से असामयिक तथा अत्यंत ही कष्टदायी निधन हुवा था!! उनका अंतिम संस्कार इत्यादि कराने और वर्षान्तो परान्त मेरी भाभी और उनके बच्चों को ले जाकर हम दोनों उनकी अस्थियों को लेकर प्रयाग गये !!अस्थि प्रवाह के पश्चात गया में श्राद्धादि कर्म किये!!

मैं वहाँ पर अपने पति तथा भाभी और भतीजों के साथ सबसे पहले #प्रेत_शिला पे गयी!! वो गया के समीप एक दुर्गम मार्ग है!! मैं जब वहाँ गयी तो स्पष्ट रूप से ये महसूस की कि अनेक लोग मानों चीख- चीख कर आर्तनाद कर रहे हों!! एक भयानक तथा शरीर को थर्रा देनी वाली नीरव शान्ति वहाँ व्याप्त थी!!कदाचित् शास्त्रीय पद्धतियों तथा श्रद्धा से उन #प्रेतों को वहाँ स्थापित न किये जाने के परिणाम स्वरूप वो नारकीय पीडा भोगने को अभिशप्त हैं!!

#ये_रूपाणि_प्रतिभुञ्चमाना_असुरा_सन्त_स्वधयाचरन्ति।
#परा_पुरो_निपुरो_ये_भरन्त्यग्निष्टांल्लोकात्_प्रणुदात्वस्मात्
हे प्रिय!!मैं यह नहीं कहना चाहती कि श्राद्धादि कर्मों से वे अपने प्रारब्ध से मुक्त हो जायेंगे!! किन्तु आप स्मरण रखें कि इन कर्मों को न करने से आपकी सन्ताने #कालसर्प_योग_अर्थात_पितृदोष से पीढीयों दर पीढीयों तक दुःखी तो रहेंगे ही!!

गया जाकर हम दोनों को अत्यंत ही मानसिक क्षोभ हुवा!!रेलवे स्टेशन से ही तीर्थ-पुरोहितों के झुण्ड यात्रियों को किसी पशुओं की तरह फुसलाते हैं!! श्राद्ध सामग्री हेतू वे दुकान पे ले जाते हैं और एक ही पूजन सामग्रि जो सैकणों बार बिक चुकी उसे ही पुनश्च बिकवा देते हैं!!और श्राद्ध प्रक्रियान्तर्गत घी के दीपक के स्थान पर मोमबत्ती जलाते हैं!!

ये #मैं #गया की क्या कहूँ ये कुप्रथा मेरे अपने समूचे पूर्वोत्तर में व्याप्त हो चुकी है!! कदाचित् ये चर्चो और बौद्ध स्तूपों का प्रभाव तथा यहाँ व्याप्त गाय-भैंसों की कमी, गरीबी तथा योग्य ब्राम्हण वर्ग का विरोध न करना हो!!

हे प्रिय!!मैं समझती हूँ कि पुरोहितजी द्वारा की गयी पद्धतियों से मैं और मेरे पती पूर्णतया संतुष्ट थे!!अर्थात वे शास्त्रज्ञ तो थे!!कुशल शास्त्रज्ञ किन्तु व्यावसायिक शास्त्रज्ञ!!तदो परान्त जब #विष्णुपाद_शिला में हमने पिण्ड को अपने हांथों प्यार से सहलाते हुवे उसका लेपन कर दिया तो जो अनुभूति उस काल की थी!! मानों ऊपर नक्षत्रों से आ रही कोई रश्मि हमें अंतःआह्लाद से सराबोर कर रही थी!!

आप स्मरण रखें कि यदि श्रद्धा से आपने श्राद्ध किया तो-
#ऊँ_विष्णु_शिव_यम_सोमराज_हव्यवाहन_कव्यवाहन_मृत्यु_रूद्र_तत्पुरूषाणां_यद्_दत्तमन्नपानादिकं_तदुपतिष्ठतामये जो जीव के निकल जाने पर पञ्च तत्वात्मक मृतक शरीर शेष रहता है!!वो जलाये जाने के पूर्व तक #प्रेत कहा जाता है!!

और मृतक जीव #देहाध्यास के कारण उस शरीर में प्रविष्ट होने का बारम्बार असफल प्रयास करता ही है!! और असफल हो जाने पर!! वो यदि आपमें मनोबल की कमी होगी तो आपमें आवेशित होता ही है!!आपको प्रभावित करता है!!

हे प्रिय!!किसी भी जड अथवा चैतन्य के निर्माण अथवा प्राकट्य को #ऋक कहते हैं!!वह जहाँ से जहाँ तक स्थिर रहता है उसे #जू अर्थात "ऋक+जू अर्थात #यजु कहते हैं!!और इन दोनों के सम्मिलित होने पर ही #सामगान होता है जिससे अग्नियों से उत्पन्न ऊर्जा प्रस्वेद अर्थात जिसे अथर्ववेद कहते हैं!! यही चारों वेदों के नामकरण का तात्पर्य है!!

आप यह ध्यान रखें कि आप पहले अकेले थे अथवा मैं अकेली थी!!हममें संतानोत्पत्ति की ऐषणा आती है! तो हमारे संसर्ग से हम एक से अनेक हो जाते हैं!! यह सांसारिक दृष्टि तथा वेदान्त दोनों ही दृष्टियों से समान सिद्धांत है!!तभी तो कहते हैं कि #अग्निषोमात्मकं_जगत।अब जब संतान अर्थात सृष्टि होगी तो वो प्रथम कैसे होगी ?

जब आप नितांत अकेले होते हैं तो शांत रहते हैं!और अपनी शाति से ऊबकर मुझे पुकारते हैं!!अर्थात ब्रम्ह अर्थात विष्णु ही #नाद के रूप में प्रकट हुवे प्रथम!! और नाद के प्रवाहित होने हेतु #पवन प्रवाहित हुवा!! अर्थात पवन ही सूक्ष्म शरीरी है आपका!! अर्थात जितने भी जीव हैं!! वे यहाँ हों अथवा अन्यत्र हों वे सभी के सभी #प्राण अर्थात वायु स्वरूप हैं!! तभी तो पितरों को #वायव्येतिश्च ऐसा सामवेद कहता है!!

"नपातं च"आपको इन पितरों को अनपात अर्थात सामान्य अर्थों में कहूँ तो एक #अनुपात में समान रूप से संतुष्ट करने का प्रयत्न करना ही होगा!!ये निश्चित है कि जो श्रेष्ठ पूर्वज हैं उनकी अपेक्षा निर्कृष्ट तथा दुःखी पितरों के दुःखों की निवृत्ति हेतु प्रयास आपको करना ही होगा!!

हे प्रिय!!मैं ये कहना चाहती हूँ कि आप नाद हो!! मैं ध्वनि हूँ!! और हमारी संतानें "पवन"के बुलबुले हैं!! ये बुलबुले क्षीरसागर में भी हैं और कुम्भीपाक नर्कों में भी हैं!! किन्तु ये सभी के सभी हमारे पितर,पीढियाँ या संताने ही हैं!!जो क्षीरसायि विष्णु लोक में हैं!!वे अपने यज्ञों में तो आयेंगे ही किन्तु वैतरणी की यातना भुगत रहे अपने पितरों के लिये भी सोचना आपका कर्तव्य है!!

तभी तो जीवों की चार गति कही गयी है-"स्वर्ग- मर्त्य-नर्क और चौथी विष्णु लोकों में!! और इसी कारण आप जब कर्मकाण्डात्मक #क्षेत्रपाल का चतुर्मुखी दीपक प्रज्वलित करते हो-
#भूतायं_त्वा_नारातये_स्वरभि_विर_व्येषंद_हन्ता_दुर्याः।
#पृथिव्या_मुर्वन्तरिक्षमन्वेमि।
#पृथिव्यास्त्वा_नामौ_सादयाम्य_दित्या_उपस्थेऽग्नेहव्यरक्ष।

अर्थात मैं ऐसा समझती हूँ कि यदि आपमें इच्छाशक्ति होगी!! तो आप अपने नर्कगामी अर्थात अधोगामी पूर्वजों का भी हित-संशाधित कर सकते हैं!! और हे प्रिय!!मेरे प्रियतम जी ने गीता में स्पष्ट रूप से आज्ञा दी है कि योग भ्रष्ट पुरूषों का पुनर्जन्म होता है और वे पुनश्च अपनी अधूरी साधना को पूर्ण कर ऊर्ध्वगामी होते हैं!!

तो मैं आपसे पूछती हूँ कि यदि उन श्रेष्ठ जनों का जन्म होता है!!तो इन निर्कृष्ट जनों का तो पुनर्जन्म होगा ही!!अब यदि आपने श्रद्धानुसार उनका श्राद्ध कर दिया तो उनकी मति में परिवर्तन क्यूँ नहीं होगा ?

प्रेम से तो पत्थर भी पिघल सकते हैं!!मैं आपको एक गूढ रहस्य की बात कहती हूँ!! इसी शोषल मीडिया पे मेरे अनेक ऐसे सखा हैं जिन्होंने मुझसे मित्रता मात्र मुझे एक स्त्री जानकर मनोरंजन हेतु की थी!! कभी कदाप कुछ संदेश भी भेजे थे किन्तु आज उनमें से ९० % मुझे अपनी सगी माँ की तरह प्यार करते हैं!!

आप यह याद रखें कि "पितृ-दोष" अर्थात ये एक ऐसा दोष है जो कि जैसे"मधुमेह,फाइलेरिया,स्वेत स्वित्रादि" आनुवंशिक हो सकती हैं वैसे ही यह भी Genetic हुवा करती हैं!! बुरी गति में गये पितर आपको भी घसीट सकते हैं और यदि आप सबल हुवे!! उनके संबल बने तो आप उनको भी नर्कों की आग से घसीट कर सोमरस पान करा सकते हैं!!

और वैसे भी श्राद्धादि के नियम हैं कि-
#एकैकं_विबुधेषु_चर्षिसु_तथा_द्वौ_द्वौ_कृतावञ्जली।
#त्रिस्त्रीश्चेत्पितृणा_स्त्रिया_अपि_परं_त्वेकैकमेवं_विधिः।।
श्राद्ध में देवताओं को एक बार ही आप प्रणाम कर लो, वे प्रशन्न हो जायेंगे!!ऋषियों को दो बार तथा हम स्त्रीयों और अधोगामी पूर्वजों को तीन बार,बारम्बार प्रणाम करना पडता है!!

हे प्रिय!!पितर क्या हैं!! आपकी #छाया!! और राहू केतू भी तो छाया ही हैं न!!और इन दोनों के मध्य आप फंस गये तो बस कालसर्प योग बन गया!!राहू अर्थात मेरे गंदे और धृणास्पद विचार तथा केतू अर्थात उन विचारों के कारण कीं-कर्तव्य विमूढ़ता की मेरी मनो-स्थिति!!किंतु अब मुझे यदि अपना कल्याण करना है तो हमें अपने सभी पितरों को भी #कुशाशन पर बैठने का अधिकारी बनाना ही होगा!! इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!-
पितृ-सूक्त मंत्र-४~१ अंक~९
#बहिर्षदःपितरऊत्यर्वागिमा_वो_हव्या_चकृमा_जुषध्वम।
#त_आ_गतावसा_शंतमेनाऽथा_नः #शं_योररपो_दधात।।

कुशाशनों पे विराजमान हे पितरों!!आप कृपा कर हमारी ओर आयें,यह हविष्य आपके लिये ही निर्मित की गयी है, इसे प्रेम से स्वीकार करें!!और अपने प्रेम सभर आशीष के साथ आप आयें और हमें भी क्लेशों से रहित सुख तथा कल्याण प्राप्त होने का आशीष दें।।

हे प्रिय!!आपयह स्मरण रखेंकि इस सूक्तके अधिष्ठाता देवता #पितर ही महर्षि #शञ्ख_यामायन ने निर्देशित किया है!!अर्थात सूक्त के देवता पितर होना इस तथ्य के द्योतक हैं कि वेदों ने पितरों को दैवीय सत्ता के समकक्ष माना है!!क्यों कि यदि ऐसा न होता तो वेदों में कोई ना कोई तो #आसुर_सूक्त होते ही!!

यहाँ कहते हैं कि-"वो हव्या चकृमा जुषध्वम"ये हवि हमने आपके लिये ही निर्मित की है!! ये अद्वितीय भाव हैं ऋषि के!! ये आप स्मरण रखें कि हविस्य का का निर्माण हो अथवा मेरी पाक शाला में भोजन का निर्माण!! पवित्रता तथा उनकी पौष्टिकता के साथ- साथ भावना की प्रधानता निः संदेह होती है!!मैं तो यहाँतक कहूँगी कि मेरे #ठाकुरजी के निमित्त बन रहे प्रसाद में थोङी अनीयमितता तो शायद वे छमा-सिंधु सहन कर लें किन्तु पितरों के निमित्त बनते हविष्य में प्रमाद बिलकुल ही अक्षम्य होगा!!

मैं अक्सर देखती हूँ कि जब भी किसी यज्ञ-अनुष्ठान समिधा की सूचि बनायी जाती है!! तो यव,तिल,धृत,शर्करा, पंचमेवा अक्षतादि की सवाया आदि इकाईयों पर विशेष बल दिया जाता है!!और वैसे ही- #जप_तद_दशांग_हवन_तद_दशांग_तर्पण_तद_दशांग_मार्जन किन्तु एक तथ्य को अनदेखा कर दिया जाता है कि इन सामग्रियों तथा भावनाओं के पवित्रता की!!

लोग कहते हैं कि त्रयोदशाह आदि मृतक-भोजों को बंदकर देना चाहिये!!इसमें व्यर्थ-व्यय होता है!!ये उपदेश देने वालों से मैं पूछना चाहती हूँ कि मैं अपनी #किट्टी_पार्टी_होटलों के व्यय पर अंकुश क्यूँ नहीं लगाती ?

मैं मानती हूँ कि अधिकांश लोगों की श्राद्धादि करने की आर्थिक दृष्टिकोण से क्षमता नहीं होती!! किन्तु इसके मूल में आर्थिक क्षमता का कम सामाजिक दिखावे का दोष कहीं ज्यादा होता है!!

और वैसे भी- #सत्यस्य_नावः #सुकृतमपीपरान। सत्यकी नौका उसके सत्कर्मों से पार तो लगती ही है! ऋग्वेद•१०• १४•२• अर्थात यमसूक्त की ये ऋचा मैं नित्य पढने का प्रयत्न करती हूँ-
#यमो_नो_गातुं_प्रथमो_विवेद_नैषा_गव्यूतिरपभर्तवा_उ।मेरे पाप-पुण्यों के ज्ञाता यम के मार्ग को कोई बदल नहीं सकता!!उसी मार्ग से अपने-अपने कर्मानुसार सबको जाना है!!

हविष्यान्न,समिधा तथा सोमरस की विशेषता होती है कि वे पक्वान्न नहीं होते!! कच्चे अन्न तथा धृतादि का उपयोग जितना महत्व रखता है उससे कहीं ज्यादा महत्व उनकी न्यायोपार्जिता पर होता है!!हे प्रिय!! मेरा अभिप्राय है कि श्राद्ध-सामग्रियों का सञ्चय सदैव ही न्यायोपार्जिता धन से ही होना चाहिये!!

तथा उनका निर्माण भी श्रद्धा से हो! आप यह स्मरण रखें कि जिस श्राद्ध सामग्री को गृहण करने आपके घर पे अतिथि आते हैं उन अतिथियों में न जाने किस रूप में आपके पूर्वज,पिता,पितामह,मातामही,कोई ऋषि ही क्या साक्षात नारायण भी आ सकते हैं!!

यहाँ तक कि कुशा से लेकर समिधादि में उपस्थित कृमि भी आपके पूर्वज हो सकते हैं!! आप उन्हें जला दो अथवा सावधानी से उन्हे पृथक कर अपनी सुचिता का परिचय देकर इस श्राद्ध सामग्री को उनके योग्य निर्मित होने दें!!सूक्त में कहते हैं कि-"बहिर्षदः पितर ऊत्यर्वागिमा"अर्थात कुशाशनों पे विराजमान हे पितरों आप हमारी ओर आयें!!

ये सामान्य वाक्य नहीं है!!जैसे कि सामान्यतया इन कर्मों में आपने अनेक स्थानों पर कुशाओं को विचित्र प्रकारों से रखने का विधान देखा होगा!! किसी का अग्र भाग सीधा किसी का उल्टा,उनके मध्य दूरियाँ!! इनका भी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय रहस्य है !!संक्षेप में इतना ही कहूँगी कि जिस-प्रकार स्थूल शरीर का आसन भी स्थूल होता है वैसे ही सूक्ष्म शरीरों का आसन भी सूक्ष्म ही होगा!!

अब इनपर आमंत्रित पितरों को अपनी ओर आकर्षित करना-"ऊत्यर्वागिमा"वे आपकी ओर आकर्षित होंगे कैसे ?
#ऊँ_गणपतये_इहा_गच्छ_इह_तिष्ठः कहते तो सभी हैं किन्तु मन से उस आसन पे ईष्ट बैठे कि नहीं बैठे, इस पर ध्यान देना तो प्राथमिकता होनी चाहिए न!! शिव-लिंग के मस्तक पर चढे नैवेद्य को चूहे द्वारा खाये जाने पर सगुणोपासना का परित्याग कर नूतन पथ का अन्वेषण करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि वो #मूषक शिव भी तो हो सकते हैं ?

आप उन आसनों पे बैठे,अथवा घर में आमंत्रित अतिथियों, औषधियों,अन्नादि में पितरों को देखें तो!!और आपको पुरोहित में साक्षात ब्रम्हा के होने की श्रद्दा भी तो हो!! आप विश्वास रखें कि यदि ऐसा होता है तो आपके पूर्वज आपके द्वार पे आयेंगे ही!! #पत्रं_पुष्पम_फलं_तोयं आपके पास जो उपलब्ध है आप श्रद्धा से उन्हे निवेदित करो!!

हे प्रिय!!उन्हे ये विश्वास होना चाहिये!! वे सूक्ष्म शरीर से, अपनी अंतर्चक्षु से आपके भीतर झांक कर देखने में सक्षम हैं कि आपने उन्हे "क्या-कैसे-क्यूँ और किस भावना"से अर्पित किया है!!पितृ-सूक्त मंत्र-४~२,५~१ अंक~१०

हे प्रिय!!पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-"त आ गतावसा शंतमेनाऽथा" हे पितृ वृन्द!!इस हविष्य को प्रेम से स्वीकार करें!!और अपने प्रेम सभर आशीष के साथ आप आयें!! अभी कुछ दिनों पूर्व की दो घटनायें मैं आपको बताती हूँ!!दो पारिवारिक उत्सवों में मैं इनके साथ गयी थी!!

एक बहूत ही धनाढ्य हैं उन्होंने अपने पोते का दष्टोन किया था!! कई लाख रुपये व्यय किये थे!! सैकणों खाने पीने के स्टाॅल,बैठने की आलीशान व्यवस्था, किसी पिक्चर की शुटिंग जैसी सजावट,आर्केस्ट्रा और कई दरबान द्वार पे!! और कुल २५० के आस-पास अतिथि आये होंगे!! और घर के लोग किसी से बोल नहीं रहे थे!!बस सज-धज कर बैठे थे!!जिसे आना हो आओ!!खाना हो खाओ!!और जब जाना हो चले जाओ!!

अचानक एक गरीब किशोर द्वारपालों की निगाहों से छुपकर अंदर आकर प्लेट में कुछ लेकर खाने लगा!! और गृहस्वामी की दृष्टि उस पे पड-गयी!! वे दौङ कर गये उसकी पिटायी की!! और द्वारपालों से बुरी तरह पिटवा कर बाहर फिंकवा दिया!!सच कहती हूँ!!उस फंञ्क्सन में हम दोनों ने एक ग्लास पानी भी नहीं पिया!! बाहर आ गये!! उस बच्चे को इन्होने उठाकर अपनी स्कूटी पे बिठाकर मेरे साथ ही गये!!एक ढाबे पे हम तीनों ने दाल-फ्राई,मिक्स-वेज,तंदूरी-रोटी खा ली!!

और कुछ दिनों पूर्व यहीं पास के एक चाय-बागान में एक गरीब मजदूर की बच्ची के विवाह में हम दोनों गये थे!! पूरे बागान के मजदूर-मैनेजर सब आये थे!! १००० से कम लोग नहीं होंगे!! पती-पत्नी दोनों बिल्कुल द्वार पे खडे थे!! सबके गले लग कर-पाँव छूकर स्वागत कर रहे थे!! भोजन में बस खिचणी- आलू-भाजा और रसगुल्ले!!केले के पत्तों पे रखकर हम सभी जमीन पे बैठकर इतना प्यार से खा रहे थे कि उस #खिचणी के समक्ष मैं #अमृत को भी व्यर्थ समझती हूँ!!

हे प्रिय!!ऋषि कहते हैं कि हे पितरों!!आप मेरे पास प्रेम-पूर्वक आयें!!मेरे द्वारा प्रदत्त हविष्य को स्वीकार करें!!और अपने आशीष लेकर आयें!! और हमें सुख मय कल्याण प्राप्ति का आशीष दें!!और पुनश्च अब अगली पाँचवीं ऋचा को प्रस्तुत करती हूँ-

#उपहूताः #पितरः #सोम्यासो_बहिर्ष्येषु_निधिषु_प्रियेषु।
#त_आ_गमन्तु_त_इह_श्रुवन्त्वधि_ब्रुवन्तुतेऽवन्त्वस्मान।।
ऋषि पुनश्च कहते हैं कि-पितरों को प्रिय लगने वाली सोम रूपी निधियोंकी स्थापना के बाद हमने पितरों का आवाहन किया है,वे यहाँ आ जायें,हमारी प्रार्थना सुनें!!वे हमारी सुरक्षा करने के साथ ही हमारी संस्तुति देवों के समक्ष करें।।

हे प्रिय!!हमारे पूर्वज,हमारे पितर!!हमारे और देवताओं के मध्य एक #सेतु के सदृश्य संदेश-वाहक भी हैं!!अभी कुछ ही दिनों पूर्व की एक बात आपको बताती हूँ!!मेरे एक शिष्य ने पूछा कि "माँ मैं नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहता हूँ!!मैंने आपसे दिक्षा ली है!!तो मुझे करना चाहिये अथवा नहीं ?

ऐसे प्रश्नों से मैं भयभीत तथा प्रायः दुःखी हो जाया करती हूँ!! इसमें प्रश्नकर्त्ता का कोई भी दोष नहीं है!! #सर्वधर्मान_पारित्यज्य_मामेकं_शरणं_व्रजः।
की आड लेकर कतिपय लोगों ने #अपने शिष्यों को एक भेंण-बकरियों के बाणे में कैद करके रख दिया है!! उन्हे #लुप्तपिण्डोदकक्रिया के मंत्रकी याद नहीं क्यूँ नहीं आती!!

मैं देखी हूँ कि कई एक आचार्य दिक्षा देने के उपरान्त देवी-देवताओं,राम-कृष्ण,कुल देवी-देवताओं के चित्र तक फिंकवा देते हैं!!और कहते हैं कि इस स्थान पर तुम मेरे चित्र को लगाओ!!मेरी पूजा करो!! हे प्रिय!! वे यह भूल जाते हैं कि जिन शिष्यों से उन्होंने आज पीढीयों से उनके घर में श्रद्धा से पूजे जा रहे देवी देवताओं के चित्र फिंकवा दिये!!

कल को वे कुल देवी-कुल-देवता को छोङ देंगे!!फिर वो अपने पूर्वजों को भूल जायेंगे!!अपनी संस्कृति तथा संस्कारों को छोड देंगे!! पुनश्च वे अन्य पथावलम्बी आचार्यों और साधकों की निन्दा करेंगे!! उनसे द्वेष करना सीखेंगे!!

फिर वे अपने माँ-बाबा को भी आपकी अंध-श्रद्धा के चश्मे से देखने के कारण उनके द्वारा की जा रही अर्चनाओं को उनकी मूर्खता समझते-समझते उनसे भी घृणा करने लगेंगे!! परिणामस्वरूप वे कल को आप गुरुजनों को भी धक्के मार कर नीचे फेंक देंगे!! और आपके स्थान पे बैठ जायेंगे!! आप #कालनेमि मत बनो!!आप असंस्कारी भीड-तंत्र को एकत्रित मत करो!!

हे प्रिय!!मैं मानती हूँ कि कई एक संतों ने मंदिर मस्जिद की निंदा की!! किन्तु परिणामस्वरूप आज उनके अनुयाइयों ने राम-कृष्ण के स्थान पर उन आचार्यों को बैठा दिया!!मूर्ति पूजाके घोर विरोधी बुद्ध,कबीर के अनुयायियों नें बुद्ध और कबीर के मन्दिर बना डाले!!

गुरूमूर्ति और हमारे पितर एक माध्यम हैं #गुरुतत्व के!! वेद,शास्त्र उपनिषद एक माध्यम हैं गुरुतत्व के!!संत,महापुरूष,पंथ एक माध्यम हैं गुरुतत्व के!!
संस्कृति और संस्कार एक माध्यम हैं गुरुतत्व के! मन्दिर,तीर्थ,व्रत, श्रीविगृह एक माध्यम हैं गुरुतत्व के!हे प्रिय!!इन सीढियों को तोङना मत!!

अगले अंक में पुनश्च इसी ऋचा के द्वितीय अंक को प्रस्तुत करती हूँ!! #सुतपा........

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