Wednesday 31 October 2018

भक्तिसूत्र

नारद भक्तिसूत्र -८३~३ अंक-११२

#स्मृति_सुने_हुवे_ज्ञानकी_समृति_जिसे_रहे_वही_शुकदेवजी_हैं।।

हे प्रिय तथा मेरी प्यारी सखियों!!देव-ऋषि नारद कृत"भक्ति-सूत्र" की श्रृञ्खला के अंतरगत इसके ८३ वें सूत्र का तृतीय अंक मैं आपके ह्यदय में विद्यमान मेरे प्यारे प्रियतमजी श्री कृष्णजी के चरणों में अर्पित कर रही हूँ-

#इत्येव_वदनीति_जनजल्पनिर्भया_एकमताः #कुमारव्यासशुकशाण्डिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्यशेषोद्ध
#वारूणिबलिहनुमद्विभीषणादयो_भक्त्याचार्याः।।८३।।

तो प्यारी सखियों!! अब मैं प्रस्तुत करती हूँ" #शुकदेवजी"जी के संदर्भ में कुछ बातें-
आप भगवान श्री वेदव्यासजी के पुत्र थे!!और आप कम अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गये थे।और इनका जन्म जहाँ हुवा था वह वर्तमान समय में हरियाणा में कैथल के गाॅंव सजूमा में है!!

भगवान श्री वेदव्यासजी ने तो पुराणों और महाभारत का संकलन किया था!!किंतु उनका प्रचार-प्रसार आपके द्वारा ही सम्भव हुवा था!!
हे प्रिय!!आपने "#विदेहराजाजनक" का शिष्यत्व प्राप्त कर भक्ति, योग और ज्ञान की अलौकिक गंगा प्रवाहित की थी!! कहते हैं न कि "नैमीषारण्य में अट्ठासी हजार ऋषियों के समक्ष शुकदेवजी बोले!!"

मैं प्रथम एक बात स्पष्ट करना उचित समझती हूँ कि #अट्ठासी_हजार_ऋषियों"से तात्पर्य भी अत्यंत ही गूढ और रहस्यमयी दृष्टाँत्मक है!!
ये जो आपकी #अट्ठासी_हजार_नाड़ियाँ हैं न!!!
वे सभी जब ऐकाग्र -चित्त से-"#नैमीषारण्य"में एकत्र होती हैं!!निमिष "छण"को कहते हैं!!

जब आप जैसे महान भक्तों तथा कृष्ण प्रिया-सखियों की सभी नाड़ियाँ"भगवत्त प्रेम"रूपी सुँदर"अरण्य"में निमिष मात्र अथवा कुछ निमिषों के लिये ही सही एकाग्र हो जाती हैं--

तभी"शुकदेवजी"आपको कथामृत का दिब्य पान करा सकते हैं!!लेकिन ऐसा होगा कुछ पलों के लिये ही,क्यों कि "शुकदेवजी अल्पायु जो ठहरे!!"लेकिन फिर भी--
"#एक_घड़ी_आधी_घड़ी_आधी_में_पुनि_आधि।
#सँगत_हरि_गूरु_संत_की_मिटहिं_कोटि_अपराध।।

अब आपको और भी एक भेद की बात बताती हूँ!! अधिकाँशतः मेरे साथ ऐसा होता है कि मैं आगे पढती जाती हूँ,और पीछे का पाठ भूलती जाती हूँ!!
भक्ति या किसी भी आध्यात्मिक मार्ग की ये सबसे बड़ी बाधा भी हो सकती है!!

"ज्ञान मार्ग का अवलम्बन लेने हेतु आपको तीव्र-स्मृतिवान"बनना ही होगा!! अर्थात तोता!!
आपको तो पता ही है तोते को #शुक कहते भी हैं,और उसका कारण तो और भी गंभीर है--

जब महाकाल शिवजी ने पार्वतीजी को"अमर-कथा (दिव्य-ज्ञान) सुना रहे थे,ध्यान दें यही "#श्रुति_है!!
तो पार्वतीजी को नींद आ गयी!!
और ऐसा ही होता भी है,जब भी आप सत्संगमें जायेंगे तो आपकी शक्ति, बाह्य-चेतना,भौतिकीय रूप से आलस्य से भर जायेगी!!

तब ऐसा हुवा कि वहाँ-पर"#शुकदेवजी"थे!! मतलब "#स्मृति"सुने हुवे ज्ञान की स्मृति जिसे रहे,वही "#शुकदेवजी"हैं!!
हे प्रिय!! मैं यहाँ पर तीन तथ्यात्मक बिंदुओं को आपसे समझना चाहती हूँ-

{१}~भगवान वेदव्यासजी तो मात्र समाधिस्थ अवस्था में बोलते गये-गणेशजी ने उसे लीपि-बद्ध किया!!
बुद्ध बोलते गये-आनंद ने संगृह किया!!
महावीर स्वामी बोलते गये- अग्निभूत,इन्द्रभूत तथा वायुभूत उसे आगम के रूप में लिखते गये!!

{२}~वेदव्यासजी,बुद्ध,महावीर-महाभारत,पुराण,ब्रम्हसूत्र,धम्मपद,आगमादि गृंथों के रचयिता नहीं उनके साक्षी,दृष्टा-अवतरण,प्राकट्य के संसाधन मात्र हैं!!
आप इसे #श्रुति कह सकते हैं!!
{३}~लेखक तो गणेशजी,आनंद तथा अग्निभूतादि हैं!! आप इन्हे #स्मृति_कार कह सकते हैं!!
यहाँ तक #व्यासपीठ की तो कोई आवस्यकता थी ही नहीं!!

{४}~किंतु अब इन श्रुतियों के आधार पर संगृहित स्मृतियों को पढकर!!किसी तोते की तरह याद कर किंतु तोता भी कैसा हो वो #शुकदेव_अर्थात्_दिव्य_तोता_हो!!
मेरी तरह रट्टू तोता नहीं!!

हे प्रिय!!अब वो तोता है कि तोती ये आप जानों!! क्यों कि तोतों का न तो यज्ञोपवीत होता है!! और न ही उनमें #रजस्वलादि अंतः प्रक्रियाओं पर अधिकार -अनाधिकार की गंभीर चर्चा!!

हे प्रिय!!आप साधना तभी कर सकती हैं जब आपको प्राप्त हुयी दिक्षा का आप सही प्रकार से उपयोग कर सकें,उसे भूलें नहीं!!
एक बात मैं कहना चाहती हूँ!! कोई ज्यादा समय नहीं हुवा है,कोई दो-तीन सौ सालों से"व्यास-गद्दी"पर अधिकार-अनाधिकार"की व्यर्थ चर्चा प्रारम्भ हो गयी है!!

इसपर यदि आप विचार करें तो ये बिल्कुल ही व्यर्थ है!!
क्योंकि व्यासजी तो कथा"#स्मृतिकेअनुसार बोलते-हैं"करते नहीं"!!
वो-तो बस ही बोलते रहते हैं और कोई "बिरला" #एकदन्त_गणेशजी उसे अपने"मानस-पटल"पर लिखते रहते हैं!!

व्यासपीठ पर"गुरू-गद्दी पर, बैठते तो हैं #वेदव्यास जी लेकिन उनके श्रीमुख से #शुकदेवजी" ही आपको दीक्षा देते हैं!! किन्तु उन्हें आपको अपनी #अट्ठासी_हजार_नाड़ियों को निमिष मात्र के लिये भी इधर-उधर भटकने न देकर"ऐकाग्र- चित्त"से सुनना ही होगा!!तभी आपका कल्याण सम्भव हो सकता है!!

इसी संदर्भ में एक बात और कहना चाहूँगी- "शुकदेवजी"ने #राजा_परीक्षित को परम-पावन भागवत् कथा सुनाकर सात दिनों में उनका उद्धार कर दिया था!!
ये"परीक्षित"अर्थात-"पर+इच्छित"जो दूसरे कि इच्छा पर निर्भर हो!!
जिसका जीवन और मृत्यू पराधीन हो,जिसे हमेशा" #मृत्यूरूपी_तक्षक"का भय सता रहा हो!!

जिसने यह अभिशाप ही अपने पूर्वज ऋषियों से पा लिया हो-कि जा!!तुझे सोमवार से लेकर रवीवार तक किसी न किसी एक दिन मरना ही है!!
जा तूँ जन्म से लेकर मृत्यु तक "मरने की आशंका"में घुट-घुट कर,तिल-तिल"हमेशा ही मरते रहना!!

और हे प्रिय!! एक यक्ष प्रश्न मैं आपसे पूछती हूँ ?
कि क्या आप जनमेजय हो ?
क्या आप "#तक्षक_सर्प_यज्ञ"करने हेतु तत्पर हो ?
क्यों कि तभी तो #आस्तिक_ऋषित्व_का_प्रादुर्भाव" सम्भव होगा!!

तो ऐसी मुझ सरीखी अज्ञानी मूर्खाओं को जिन्होंने "अमरत्व"का भागवत् पाठ पढा कर अमर बनने का उपाय बता दिया हो-ऐसे परम भक्ति के आचार्य हैं"शुकदेवजी"

यही तो सूत्र का एक अद्भुत भाव है!!किंतु अभी इस सूत्र का भावानुबोधन अधूरा है प्रिय!!शेष अगले अंक में प्रस्तुत करती हूँ!! #सुतपा"