Wednesday 12 September 2018

पितृसूक्त अंक~१२

पितृ-सूक्त मंत्र-६~१ अंक~१२

#मैं_जानती_और_समझती_हूँ_कि_मेरा_यह_अंक_अनेक_भ्रान्तियों_को_उत्पन्न_कर_सकता_है!!

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में षष्टम ऋचा में १२ वाँ अंक मैं प्रस्तुत करती हूँ-

#आच्या_जानु_दक्षिणतो_निषद्येमं_यज्ञमभि_गृणीत_विश्वे।#मा_हिंसिष्ट_पितरः #केनचिन्नोयद्व_आग_पुरुषताकराम।।

अर्थात हे पितरों!!बाँये घुटने मोड़कर वेदी के नीचे दक्षिण दिशा में नीचे बैठकर आप सभी हमारे इस यज्ञकी प्रशंसा करें!!मानवीय स्वभावानुसार हमने आपका कभी कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें हमें दण्ड न दें!!

हे प्रिय!! मैं जब भी अपने पती के साथ किसी यज्ञानुष्ठान में बैठती हूँ तो उनके बाँयें अंग में बैठती हूँ!!और वे मेरे दाहिने अंग की शोभा बनते हैं!! और वैसे भी स्त्री-उर्जा का प्रभाव #वाम_अर्थात_नकारात्मक पुरुष उर्जा का प्रवाह तथा याम अर्थात सकारात्मकीय कहा और देखा भी गया है!! अब आप कल्पना करें कि जब मैं अपने बाँयें पाँव को मोड़ कर बैठूँगी और वे अपने दाहिने पाँव को मोड़ कर बैठेंगे!!

तो उनकी मुद्रा #वीरासन तथा मेरी मुद्रा #रूद्धासन की होगी!! और मेरे बाँयें घुटने से सटा हुवा उनका दायाँ घुटना अनायास ही नकारात्मक तथा सकारात्मक उर्जाओं के संयोग का साक्षी उनके तथा मेरे दोनों के लिये ही होगा!!
और बिल्कुल ऐसी ही प्रक्रिया साष्टांग दण्डवत तथा संसर्ग जन्य परिस्थितियों में भी होती है!! इसका भेद प्रथम तो यही है और द्वितीय एक भेद और भी है!!

सामवेद में कहते हैं कि- #व्यञ्जनं_चार्धमात्रकं और कुछ ऐसा ही सप्तशती कहती है कि- #त्वमेव_संध्या_सावित्री अतः यह वैज्ञानिकीय सत्य है कि #संध्या_पितृप्रसूः संध्या से ही पितरों का जन्म भी हुवा है!! और यह भी आप ध्यान दें कि वेदमाता गायत्री का द्वितीय #भुवः लोक ही पितृ-लोक कहा गया है!!

जैसे कि आप यह भी देखें ऐसा आग्रह करूँगी-
#पुरू_व्यवस्यन्_पुरूधास्यति_स्वतस्ततः #स_उक्तः #पुरूषश्च_पितरः!!

जो सम्पूर्ण पाप अर्थात मन और प्राणों के भोग्य-भावों को जला देते है,संतृप्त भी कर देते हैं,वे पितर हैं!!और इसमें एक भेद और भी हैआप उसे अपनी #पत्नी भी कह सकते हैं!! थोड़ी कठिन बात है यह!! मैं कहना यह चाहती हूँ कि इसे समझने हेतु आपको लिंगात्मकीय भेद से ऊपर उठना होगा!!

हे प्रिय!!जो आपकी प्रशंसा करते हैं!! वे कौन हैं!!यदि वे आपके गुण-अवगुणों को जानकर सार निकालकर प्रशंसा करते हैं अथवा निन्दा करते हैं!!उससे ही आपकी #पत् बनती अथवा नष्ट होती है!!एक विचित्र प्रश्न मैं आप अपने पुरूष मित्रों से पूछना चाहूँगी!! क्या आपने कभी ह्यदय से अपनी पत्नी से अपने किसी अपराध हेतु छमा माँगी ?

आपका उत्तर यदि हाँ !! में होता है!!तो मैं आपसे पुनर्विचार करने का पुनः आग्रह करूँगी!! इसमें आपका अहंकार नहीं वरन् पुरूषत्व बाधक होता है!!और होना चाहिये भी!!किन्तु स्त्रीत्व की एक नैसर्गिक विशेषता होती है!! शिघ्रातिशिघ्र छमा माँग लेने की!! और यदि मुझमें पुरूषत्व हुवा तो फिर वो और कुछ भी हो किन्तु कम से कम भीतर से #स्त्री कदापि हो ही नहीं सकती!!

पाणिनिय सूत्र•५•२•१०१•में कहते हैं कि-#प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्यो_णः प्रज्ञा और श्रद्धा ही श्राद्ध है!! जिनमें प्रज्ञा होगी वे ही पितर भी हो सकते हैं!!और जिनमें श्रद्धा होगी वे ही श्राद्ध भी कर सकते हैं!! जैसे कि श्राद्धकर्ता कहते हैं कि-
#आब्रम्हस्तम्बपर्यन्तं_देवर्षिपितृमानवाः।
#तृप्यन्तु_पितरः #सर्वे_मातृमातामहादयः।।

विश्वेदेव तथा अग्निष्वात्तादि दिव्य पितृ गण आपके संकल्पों में कथित गोत्राधार पर आपकी हव्य-कव्य सामग्री की सुगंध तथा धूम आपपके पितरों तक पहुँचाते हैं!!यदि आपके पितर देव योनि में हैं तो अमृत के रूप में,पशु योनि में हैं तो तृण के रूप में,नाग योनि में-वायु के रूप में ,यक्ष योनि में द्रव के रूप में,पितृ लोक में स्वधा तथा अन्यान्य योनियों में भी तदनुसारेण उनतक पहुँचाने का कार्य भी इन्ही पवित्र पितरों का है!!

हे प्रिय!!और यह कैसे!!तो उसे मैं बाँयें तथा दाहिने घुटने के द्वारा बैठने की मुद्रा द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास कर चुकी हूँ!! आप स्मरण रखें कि ऋचा में आगे यह भी कहते हैं कि नीचे बैठकर तथा यज्ञ-वेदी की दक्षिण दिशामें!!अब मैं इसे भी आपसे समझने का प्रयास करती हूँ!!

मैं जानती और समझती हूँ कि मेरा यह अंक अनेक भ्रान्तियों को उत्पन्न कर सकता है!!कई यक्ष प्रश्न भी रखता है!!और उन शंकाओं का निवारण देवयान तथा पितृयान अर्थात उत्तरायण और दक्षिणायन मार्गों को समझे बिना संभव नहीं होगा!!अतः अगले अंक में उसपर भी प्रकाश डालती हूँ!! पुनश्च इसी ऋचा के द्वितीय अंक को प्रस्तुत करती हूँ!! #सुतपा........

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