Saturday 15 September 2018

विज्ञान भैरव तंत्र सूत्र~१४ अंक~१२

#स्वयं_में_ही_स्वयम्_का_अन्वेषण_परमार्थ_है!
           
अब विज्ञान भैरव तंत्र  यह चौदहवाँ श्लोक मैं  आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ, #श्री_भैरव_उवाच--
#दिक्कालकलनोन्मुक्ता_देशोद्देशाविशेषिणी।
#व्यपद्देष्टुमशक्यासावकथ्या _परमार्थतः।।१४।।

हे प्रिय !!अब मेर प्रियतम भैरवजी अपनी सूरता  रूपी शिवा से कहते हैं कि--"दिक्कालकलनोन्मुक्ता" हे भैरवी!! तेरी कोई भी #दिशा नहीं है!! पूर्व पश्चिमादि किन्हीं भी दिशाओं में किन्हीं भी बाह्य अथवा अंतः तीर्थों में जब-तक मैं भृमण करती हूँ-तबतक भटकती ही रहूँगी!
इसी कारणसिद्धांत मुक्तावली में मेरे पियाजी ने कहा भी है कि---
अहौ वा हारै वा कुशुमशयने वा दृषदि वा।
       मणौ वा लोष्टे वा बलवति रिपौ वा सुह्रदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा समदृशो यान्तु दिवसाः।
         कदा पुण्येऽरण्ये शिवशिवशिवेति प्रलापतः।।

मैं अभी कल अपने kitchen  में तवे पर  चीले बना रही थी,तो तवा गर्म है या नहीं यह देखने हेतु उसपर कुछ जल की बूँदें डाल दी!!अहो अद्भुत!!जल जहाँ था वहीं पर "वाष्पीकृत" होकर अदृश्य हो गया!! किसी भी दिशा या गति को उसने प्राप्त नहीं किया, जहाँ और जैसा वास्तविक रूपेण था,वैसा ही और उसी स्वरूप को वो प्राप्त हो गया!!हे प्रिय!!इसी लिये वे कहते हैं कि-  #हे_भैरवी!! तूँ कालातीत है,काल का बंधन तुझे स्पर्श भी नहीं कर सकता!!

काल अर्थात समय-युग,शताब्दि,वर्ष,मास,दिन,घंटे, मिनट,सेकेंड ही क्या पल का हजारवाँ भाग भी मुझे प्रभावित नहीं कर सकता-यदि मैं"भैरवित्व"में स्थापित हूँ तो!और उसका भी कारण है-मेरे प्यारेजी! कहीं मुझसे दूर तो हैं नहीं कि मैं उन्हें ढूँढने वन-वन भटकती फिरूँ!और तो और-वे मेरे समीप भी नहीं हैं!
क्यों कि यदि मेरे समीप होंगे,तो समीप होने के लिये भी तो उनकी सत्ता मुझसे पृथक ही हो जायेगी न!!
#व्यपद्देष्टुमशक्यासावकथ्या" हे भैरवी!!मैं तुझमें व्याप्त हूँ-तूँ मुझमें व्याप्त है!!

हे प्रिय!! मैं आपको एक अलौकिक आनंद रस से सराबोर कर देने वाले गीत की याद दिलाती हूँ--
#दूरी_न_रहे_कोई_आज_इतने_करीब_आओ।
#मैं_तुझमें_समा_जाऊँ_तुम_मुझमें_समा_जाओ।।
ऐसा सर्वव्यापकता का अनुपम संदेश देते हैं भैरव अपनी प्रिया को कि-हे भैरवी!!तूँ मुझसे पृथक नहीं है-मैं तुझसे पृथक नहीं हूँ!!

और इस प्रकार इस श्लोक के उपसंहार में यही स्पष्ट होता है कि--- #परमार्थतः" जो परमतम सिद्धांत "तत्व-दर्शन"के तात्पर्य से है, अर्थ से है, वह स्वयंमें ही स्वयम् के अन्वेषण में ही निहित है!! स्वयंमें ही स्वयम् का अन्वेषण ही परमार्थ है .... सुतपा!!

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