पितृ-सूक्त मंत्र-१०~२ अंक~२२
#बिना_जली_समिधा_उसे_रूद्रांश_कहते_हैं_इसी_कारण_रूद्र_देवता_को_भूताधिपति_भी_कहते_हैं!!
।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।
मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में दसवीं ऋचा के द्वितीय अंक को समर्पित करती हूँ!!
#ये_सत्यासो_हविरदोहविष्पा_इन्द्रेणदेवैः #सरथं_दघानां।
#आग्नेयाहिसहस्त्रंदेववन्दैशरैः #पूर्वैः #पितृभिर्धर्मसभ्दिः।।
हे प्रिय!! अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-देववन्दै शरैः पूर्वैः पितृभिर्धर्मस"" अर्थात देवोंकी वन्दना करने वाले,धर्म नामक हविके समीप बैठने वालेजो हमारे पूर्वज और पितर हैं, मैं आपको इस संदर्भ में ऋग्वेदोक्त यमसूक्त•१०•१४• ९• की यह ऋचा दिखाना चाहूँगी!!
इस ऋचा का पाठ संसारके श्रेष्ठतम यज्ञ #अंत्येष्टि_संस्कार के अवसर पर किया जाता है-
#अपेत_वित_वि_च_सर्पतातो_ऽस्मा_एतंपितरोलोकमक्रन।
#अहोभिरभ्दिरक्तुभिव्र्यक्तं_यमो_ददात्यवसानमस्मै।।
अर्थात हे भूत,पिशाच,सर्पादि आप यहाँ से दूर चले जायें!!यह स्थान इस मृत-जीवके लिये निश्चित है!!यह स्थान इसे यम ने चारों ओर से जल से युक्त करके दिया है।।
और इस पितृसूक्त की ऋचा में कहते हैं कि-"पितृभि र्धर्मसभ्दिः अर्थात धर्म नामक हविके समीप बैठनेवाले जो हमारे पूर्वज हैं!! ये वाक्य भी विचारणीय है!!हविष्य तो देव-दानव तथा असुर सभी चाहते हैं!! किन्तु जब आप अग्नि में किसी भी द्रव्य की आहुति देते हैं तो सार-तत्व तो धूम्र के साथ ऊर्ध्वगामी हो जाता है!! किन्तु #कार्बन अर्थात #राख अवशेष रह जाती है!! आप इसे राक्षस भी कह सकते हैं!!
जैसे कि ये ऋचा आप देखें-
#अग्ने_यं_यज्ञमध्वरं_विश्वतः _स_इद्देवेषु_गच्छति।।
हे प्रिय!!जब आप की आहुति अग्नि मध्य में जाती है!! तो देवताओं को मिलती है!!क्योंकि अग्नि की लपटें तिरछी नहीं हुवा करतीं!! किन्तु जो #वायु है अर्थात मरूद्गण ये दशो-दिशाओं से अग्नि पर प्रहार करते हैं!!
और इनके प्रहारों से कुछेक लपटें आड़ी-तिरछी हो जाती हैं!!उनसे उठी हुयी धूम पितरों को मिल-जाती है!! किन्तु जो राख रह गयी!! अथवा कि बिना जली समिधा!! उसे रूद्रांश कहते हैं!! इसी कारण रूद्र-देवता को भूताधिपति भी कहते हैं!!
अतः हे प्रिय!!ऋचा कहती है कि-"आग्नेयाहि"धर्म नामक हविके समीप बैठने वाले,अग्निको दशो दिशाओं से देवता-पितर और राक्षस घेर कर बैठे हैं!!जैसे ही #स्वाहा की ध्वनि होती है!!वैसे ही सभी उत्कण्ठित होकर उसे लेने हेतु तत्पर हो जाते हैं!! किन्तु तभी #मारीचि_ताड़का_और_सुबाहू का भी आक्रमण होता है!!
आप स्मरण रखें कि- #मंत्राधीन_देवता_पितरोश्चाऽसुराः।। मंत्र तो सभीके पृथक-पृथक हैं!!आपके पुरोहितों पर निर्भर करता है कि उनकी मंत्रों पर पकड़ कितनी है!! मैं तो अज्ञानी हूँ!! मैं तो यहाँ पर आचार्यों में ये भी देखी हूँ कि काली-पूजन कराते हैं,और मंत्र लक्ष्मी का पढते हैं!! और यजमान संस्कृत जानते नहीं!! तो परिणाम ?
अतः हे प्रिय!!इस सिद्धांत को मानना ही चाहिये कि आप यजमान तथा पुरोहितों दोनों को ही आध्यात्मिक विधाओं का ज्ञान आवश्यक है!!अन्यथा आपके द्वारा श्रद्धा से दी हुयी आहुतियों को कुपात्र पाकर पुष्ट होंगे,तथा देव और पितर निर्बल होंगे!!
ऋषि कहते हैं कि-"सहस्त्रं देववन्दै शरैः- अर्थातसहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव!! आप यहाँ पधारें!! अब इन यज्ञों में जिनकी बहूलता होगी!! हाँ!!बिलकुल आप विश्वास करें कि #यज्ञों_में_विघ्न_आयेंगे_ही!! हवन करते ही हाँथों के जलने की संभावना ज्यादा होती है!!इस देव-पितर तथा असुरों के संग्राम में आपके पूर्वज ही आप की सुरक्षा अपने दिये गये अनुभवों से कर सकते सैं!! आप उन्हे ज्यादा से ज्यादा पढें,समझें और उनका अनुकरण करें!!
क्यों कि प्रतिसञ्चरण क्रमानुसार ही आपकी प्रथम पाँच आहुतियों से पुरूष का अर्थात #पुरोडाष का एक आभा मण्डल बनता है!!और हे प्रिय!! इसी आभा मण्डल से आप और आपके देवता और आपके पितर, देवयान अथवा पितृयान को प्राप्त होते हैं!!
और इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की १० वीं ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!..... #सुतपा!!