Sunday 16 September 2018

पितृसूक्त-१०~२

पितृ-सूक्त मंत्र-१०~२ अंक~२२

#बिना_जली_समिधा_उसे_रूद्रांश_कहते_हैं_इसी_कारण_रूद्र_देवता_को_भूताधिपति_भी_कहते_हैं!!

            ।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में दसवीं ऋचा के द्वितीय अंक को समर्पित करती हूँ!!

#ये_सत्यासो_हविरदोहविष्पा_इन्द्रेणदेवैः #सरथं_दघानां।
#आग्नेयाहिसहस्त्रंदेववन्दैशरैः #पूर्वैः #पितृभिर्धर्मसभ्दिः।।

हे प्रिय!! अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-देववन्दै शरैः पूर्वैः पितृभिर्धर्मस"" अर्थात देवोंकी वन्दना करने वाले,धर्म नामक हविके समीप बैठने वालेजो हमारे पूर्वज और पितर हैं, मैं आपको इस संदर्भ में ऋग्वेदोक्त यमसूक्त•१०•१४• ९• की यह ऋचा दिखाना चाहूँगी!!

इस ऋचा का पाठ संसारके श्रेष्ठतम यज्ञ #अंत्येष्टि_संस्कार के अवसर पर किया जाता है-
#अपेत_वित_वि_च_सर्पतातो_ऽस्मा_एतंपितरोलोकमक्रन।
#अहोभिरभ्दिरक्तुभिव्र्यक्तं_यमो_ददात्यवसानमस्मै।।
अर्थात हे भूत,पिशाच,सर्पादि आप यहाँ से दूर चले जायें!!यह स्थान इस मृत-जीवके लिये निश्चित है!!यह स्थान इसे यम ने चारों ओर से जल से युक्त करके दिया है।।

और इस पितृसूक्त की ऋचा में कहते हैं कि-"पितृभि र्धर्मसभ्दिः अर्थात धर्म नामक हविके समीप बैठनेवाले जो हमारे पूर्वज हैं!! ये वाक्य भी विचारणीय है!!हविष्य तो देव-दानव तथा असुर सभी चाहते हैं!! किन्तु जब आप अग्नि में किसी भी द्रव्य की आहुति देते हैं तो सार-तत्व तो धूम्र के साथ ऊर्ध्वगामी हो जाता है!! किन्तु #कार्बन अर्थात #राख अवशेष रह जाती है!! आप इसे राक्षस भी कह सकते हैं!!

जैसे कि ये ऋचा आप देखें-
#अग्ने_यं_यज्ञमध्वरं_विश्वतः _स_इद्देवेषु_गच्छति।।
हे प्रिय!!जब आप की आहुति अग्नि मध्य में जाती है!! तो देवताओं को मिलती है!!क्योंकि अग्नि की लपटें तिरछी नहीं हुवा करतीं!! किन्तु जो #वायु है अर्थात मरूद्गण ये दशो-दिशाओं से अग्नि पर प्रहार करते हैं!!

और इनके प्रहारों से कुछेक लपटें आड़ी-तिरछी हो जाती हैं!!उनसे उठी हुयी धूम पितरों को मिल-जाती है!! किन्तु जो राख रह गयी!! अथवा कि बिना जली समिधा!! उसे रूद्रांश कहते हैं!! इसी कारण रूद्र-देवता को भूताधिपति भी कहते हैं!!

अतः हे प्रिय!!ऋचा कहती है कि-"आग्नेयाहि"धर्म नामक हविके समीप बैठने वाले,अग्निको दशो दिशाओं से देवता-पितर और राक्षस घेर कर बैठे हैं!!जैसे ही #स्वाहा की ध्वनि होती है!!वैसे ही सभी उत्कण्ठित होकर उसे लेने हेतु तत्पर हो जाते हैं!! किन्तु तभी #मारीचि_ताड़का_और_सुबाहू का भी आक्रमण होता है!!

आप स्मरण रखें कि- #मंत्राधीन_देवता_पितरोश्चाऽसुराः।। मंत्र तो सभीके पृथक-पृथक हैं!!आपके पुरोहितों पर निर्भर करता है कि उनकी मंत्रों पर पकड़ कितनी है!! मैं तो अज्ञानी हूँ!! मैं तो यहाँ पर आचार्यों में ये भी देखी हूँ कि काली-पूजन कराते हैं,और मंत्र लक्ष्मी का पढते हैं!! और यजमान संस्कृत जानते नहीं!! तो परिणाम ?

अतः हे प्रिय!!इस सिद्धांत को मानना ही चाहिये कि आप यजमान तथा पुरोहितों दोनों को ही आध्यात्मिक विधाओं का ज्ञान आवश्यक है!!अन्यथा आपके द्वारा श्रद्धा से दी हुयी आहुतियों को कुपात्र पाकर पुष्ट होंगे,तथा देव और पितर निर्बल होंगे!!

ऋषि कहते हैं कि-"सहस्त्रं देववन्दै शरैः- अर्थातसहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव!! आप यहाँ पधारें!! अब इन यज्ञों में जिनकी बहूलता होगी!! हाँ!!बिलकुल आप विश्वास करें कि #यज्ञों_में_विघ्न_आयेंगे_ही!! हवन करते ही हाँथों के जलने की संभावना ज्यादा होती है!!इस देव-पितर तथा असुरों के संग्राम में आपके पूर्वज ही आप की सुरक्षा अपने दिये गये अनुभवों से कर सकते सैं!! आप उन्हे ज्यादा से ज्यादा पढें,समझें और उनका अनुकरण करें!!

क्यों कि प्रतिसञ्चरण क्रमानुसार ही आपकी प्रथम पाँच आहुतियों से पुरूष का अर्थात #पुरोडाष का एक आभा मण्डल बनता है!!और हे प्रिय!! इसी आभा मण्डल से आप और आपके देवता और आपके पितर, देवयान अथवा पितृयान को प्राप्त होते हैं!!

और इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की १० वीं ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!..... #सुतपा!!

पितृसूक्त-१०~१

पितृ-सूक्त मंत्र-१०~१ अंक~२१

#आधुनिक_शिक्षित_समाज_के_योगदान_को_मैं_आध्यामिक_योगदानों_से_जरा_सा_भी_कम_नहीं_आँकती!!

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में दसवीं ऋचा के प्रथम अंक को समर्पित करती हूँ!!

#ये_सत्यासो_हविरदोहविष्पा_इन्द्रेणदेवैः #सरथं_दघानां।
#आग्नेयाहिसहस्त्रंदेववन्दैशरैः #पूर्वैः #पितृभिर्धर्मसभ्दिः।।

अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हवि का भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करने वाले, इन्द्रादि देवताओं के साथ एक ही रथ में बैठकर प्रयाण करने वाले,देवोंकी वन्दना करने वाले,धर्म नामक हविके समीप बैठनेवालेजो हमारे पूर्वज और पितर हैं,उन्हे सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव!! यहाँ पधारें।।

हे प्रिय!! आप ऋग्वेदोक•१•९४•४•का इस संदर्भ में अवस्य ही स्मरण करें- #अग्ने_सख्ये_मा_रिषामा_वयं_तव।। अर्थात हे अग्नि!!हम तेरे मित्र भाव में दुःखी और नष्ट न हों!!वस्तुतः मै समझती हूँ कि मैं आर्य हूँ और मेरे पूर्वज आर्य थे!! आर्य अर्थात अग्नियों के उपासक अथवा नैसर्गिक प्रकृति की उपासना करने वाले!!और प्रकृति अथवा जो अग्नि के उपासक होंगे!! उनका दृष्टिकोण- व्यापक, वैज्ञानिकीय,सार्वभौमिकीय ही नहीं ब्रम्हाण्डात्मक भी होग!!

ऋचा में कहते हैं कि-"ये सत्यासो हविरदोहविष्पा-कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हविका भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करनेवाले जो अग्नि देव हैं!! आप ये याद रखें कि ये शोषल-मीडिया की जो दुनिया है!!ये बहुआयामी है!!आधुनिक शिक्षित समाज के योगदान को मैं आध्यामिक योगदानों से जरा सा भी कम नहीं आँकती!!

अग्नियों को जैसे अध्यात्म जगत् पंञ्चाग्नियों में विभक्त कर देखता है!!वैसा ही दृष्टिकोण विज्ञान का भी है!! ये भेद तो आधे-अधूरे ज्ञान के कारण मुझ जैसी मूर्खाओं को दृष्टिगोचर होता है!! फिर भी मेरा उद्देश्य तो यज्ञाग्नि के भेदों पर आप का ध्यान आकर्षित कराने का है!!

हे प्रिय मैं सुनी हूँ कि महर्षि भारद्वाज ने समस्त गृंथों के अध्ययन का संकल्प लिया और उन्हें पढते -पढते हजारों हजार वर्ष व्यतीत हो गये!! अंततः उनके समक्ष महेन्द्र ने उपस्थित होकर एक मुट्ठि भर मिट्टी रख दी और सामने स्थित दो विशाल-पर्वतों को ईंगित करते हुवे उन्हे कहा कि हे ऋषि-राज!!ये जो आप आप ने अभी तक अध्ययन किया है वो इस एक मुट्ठी के बराबर है!! और वो जो सामने दो पहाड़ दिख रहे हैं,उतना अध्ययन आपका अभी शेष है- #यत्सारभूतंतदूपासितव्यम।।

हे प्रिय!!आप लोग मुझसे नाराज मत होजाना!!मैं स्त्री हूँ, स्वभाव से ही अल्पज्ञानी,एक बात कहती हूँ-जैसे कि आज मैंराम,अग्नि,कृष्ण,शिव,सूर्य,ब्रम्हा,दुर्गा,चन्द्र,भैरव प्रजापति, हनुमानजी,गणेश,इन्द्र,वरूण आदि-आदि देवी-देवताओं की उपासना करती हूँ, इसे आप एक काॅकटेल कह सकते हो!! इसके लिये अंग्रेजी में एक बहूत ही अच्छा शब्द है- #Anthropomorphism भी कह सकते हैं!!

मैंने अपनी-आपकी शारीरिक संरचना के आधार पर उन देवों को गढ लिया!! हमने अपने मुक्त ऐतिहासिक परमार्थपदावलीन विभूतियों तथा वैदिक वैज्ञानिकीय तत्त्वों के प्रतीक गूढतम रहस्यात्मक भेदों को आपस में उलझा कर रख दिया!!परिणाम स्वरूप ब्रम्हाण्ड की श्रेष्ठतम विचारधारा पर #अंधश्रद्धालू होने की अभिशाप मयी तलवार आज लटक रही है!!

हे प्रिय!!मैं समझती हूँ कि #अग्निही संकल्प है!!आप अग्नि अर्थात #उर्जा को पाकर ही किसी भी वस्तु का निर्माण करते हैं!! और यह अग्नि, उर्जा #सोम अर्थात मन की आहुति से ही वृद्धि को प्राप्त होती है!!जैसे कि अग्नियों में डाला हुवा कोई भी ठोस अथवा द्रव पदार्थ किसी न किसी तापक्रम पर सूक्ष्म होकर ऊर्ध्वगामी हो जाते हैं- #वाचश्चित्तस्योत्तरोत्तरिक्रमो_यद्यज्ञ इसे ही #यज्ञ कहते हैं!!

इसे ही इस ऋचा में ऋषि ने कहा है कि-"ये सत्यासो हविरदोहविष्पा- अर्थात कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हविका भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करने वाले" और उन आहुतियों से अग्नि और भी प्रज्वलित होती है!!अतः पदार्थ ही सोम हैं और अग्नि ही सूर्य है!!

हे प्रिय!!जैसे-जैसे आपकी बाह्यदृष्टि बढती जाती है!! वैसे-वैसे ही आपमें इक्षायें,वासनायें अर्थात अग्नियाँ बढती जाती हैं!! अर्थात आपकी अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का कमतर होता जाना ही चन्द्रमा अर्थात मन के भटकाव का मुख्य कारण है!! अभी एक बात और भी है- प्रकाश-अंधकार, जीवन-मृत्यु,स्थिति-गति,स्त्री-पुरूष ये दोनों ही साथ-साथ रहते हैं!!

देवता और पितर साथ-साथ रहते हैं!! एक ही रथ पर रहते हैं!!और वह रथ है,अग्नि-"इन्द्रेणदेवैः सरथं दघानां" ऋचा यह कहना चाहती है कि- इन्द्रादि सभी देवताओं को पितरों केसाथ अग्नि ही #यमअर्थात #काल_स्थिति_संयोगानुसार प्रज्वलित उष्ण अग्नि लेकर जाती है!! तथा पुनश्च शीतल-अग्नि अर्थात वर्षा रूपी रथ पर चढकर ये देवता और पितर पुनश्च आ जाते हैं!!

इसी के साथ ऋचाके इस अंक को यहाँ विश्राम देती हूँ और शीघ्र ही इसके अगले अंक के साथ उपस्थित होती हूँ--- #सुतपा!!

Saturday 15 September 2018

पितृसूक्त~१०~१

पितृ-सूक्त मंत्र-१०~१ अंक~२१

#आधुनिक_शिक्षित_समाज_के_योगदान_को_मैं_आध्यामिक_योगदानों_से_जरा_सा_भी_कम_नहीं_आँकती!!

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में दसवीं ऋचा के प्रथम अंक को समर्पित करती हूँ!!

#ये_सत्यासो_हविरदोहविष्पा_इन्द्रेणदेवैः #सरथं_दघानां।
#आग्नेयाहिसहस्त्रंदेववन्दैशरैः #पूर्वैः #पितृभिर्धर्मसभ्दिः।।

अब पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हवि का भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करने वाले, इन्द्रादि देवताओं के साथ एक ही रथ में बैठकर प्रयाण करने वाले,देवोंकी वन्दना करने वाले,धर्म नामक हविके समीप बैठनेवालेजो हमारे पूर्वज और पितर हैं,उन्हे सहस्त्रों की संख्या में लेकर हे अग्निदेव!! यहाँ पधारें।।

हे प्रिय!! आप ऋग्वेदोक•१•९४•४•का इस संदर्भ में अवस्य ही स्मरण करें- #अग्ने_सख्ये_मा_रिषामा_वयं_तव।। अर्थात हे अग्नि!!हम तेरे मित्र भाव में दुःखी और नष्ट न हों!!वस्तुतः मै समझती हूँ कि मैं आर्य हूँ और मेरे पूर्वज आर्य थे!! आर्य अर्थात अग्नियों के उपासक अथवा नैसर्गिक प्रकृति की उपासना करने वाले!!और प्रकृति अथवा जो अग्नि के उपासक होंगे!! उनका दृष्टिकोण- व्यापक, वैज्ञानिकीय,सार्वभौमिकीय ही नहीं ब्रम्हाण्डात्मक भी होग!!

ऋचा में कहते हैं कि-"ये सत्यासो हविरदोहविष्पा-कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हविका भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करनेवाले जो अग्नि देव हैं!! आप ये याद रखें कि ये शोषल-मीडिया की जो दुनिया है!!ये बहुआयामी है!!आधुनिक शिक्षित समाज के योगदान को मैं आध्यामिक योगदानों से जरा सा भी कम नहीं आँकती!!

अग्नियों को जैसे अध्यात्म जगत् पंञ्चाग्नियों में विभक्त कर देखता है!!वैसा ही दृष्टिकोण विज्ञान का भी है!! ये भेद तो आधे-अधूरे ज्ञान के कारण मुझ जैसी मूर्खाओं को दृष्टिगोचर होता है!! फिर भी मेरा उद्देश्य तो यज्ञाग्नि के भेदों पर आप का ध्यान आकर्षित कराने का है!!

हे प्रिय मैं सुनी हूँ कि महर्षि भारद्वाज ने समस्त गृंथों के अध्ययन का संकल्प लिया और उन्हें पढते -पढते हजारों हजार वर्ष व्यतीत हो गये!! अंततः उनके समक्ष महेन्द्र ने उपस्थित होकर एक मुट्ठि भर मिट्टी रख दी और सामने स्थित दो विशाल-पर्वतों को ईंगित करते हुवे उन्हे कहा कि हे ऋषि-राज!!ये जो आप आप ने अभी तक अध्ययन किया है वो इस एक मुट्ठी के बराबर है!! और वो जो सामने दो पहाड़ दिख रहे हैं,उतना अध्ययन आपका अभी शेष है- #यत्सारभूतंतदूपासितव्यम।।

हे प्रिय!!आप लोग मुझसे नाराज मत होजाना!!मैं स्त्री हूँ, स्वभाव से ही अल्पज्ञानी,एक बात कहती हूँ-जैसे कि आज मैंराम,अग्नि,कृष्ण,शिव,सूर्य,ब्रम्हा,दुर्गा,चन्द्र,भैरव प्रजापति, हनुमानजी,गणेश,इन्द्र,वरूण आदि-आदि देवी-देवताओं की उपासना करती हूँ, इसे आप एक काॅकटेल कह सकते हो!! इसके लिये अंग्रेजी में एक बहूत ही अच्छा शब्द है- #Anthropomorphism भी कह सकते हैं!!

मैंने अपनी-आपकी शारीरिक संरचना के आधार पर उन देवों को गढ लिया!! हमने अपने मुक्त ऐतिहासिक परमार्थपदावलीन विभूतियों तथा वैदिक वैज्ञानिकीय तत्त्वों के प्रतीक गूढतम रहस्यात्मक भेदों को आपस में उलझा कर रख दिया!!परिणाम स्वरूप ब्रम्हाण्ड की श्रेष्ठतम विचारधारा पर #अंधश्रद्धालू होने की अभिशाप मयी तलवार आज लटक रही है!!

हे प्रिय!!मैं समझती हूँ कि #अग्निही संकल्प है!!आप अग्नि अर्थात #उर्जा को पाकर ही किसी भी वस्तु का निर्माण करते हैं!! और यह अग्नि, उर्जा #सोम अर्थात मन की आहुति से ही वृद्धि को प्राप्त होती है!!जैसे कि अग्नियों में डाला हुवा कोई भी ठोस अथवा द्रव पदार्थ किसी न किसी तापक्रम पर सूक्ष्म होकर ऊर्ध्वगामी हो जाते हैं- #वाचश्चित्तस्योत्तरोत्तरिक्रमो_यद्यज्ञ इसे ही #यज्ञ कहते हैं!!

इसे ही इस ऋचा में ऋषि ने कहा है कि-"ये सत्यासो हविरदोहविष्पा- अर्थात कभी न बिछुड़नेवाले ठोस हविका भक्षण करने वाले,द्रव हविका पान करने वाले" और उन आहुतियों से अग्नि और भी प्रज्वलित होती है!!अतः पदार्थ ही सोम हैं और अग्नि ही सूर्य है!!

हे प्रिय!!जैसे-जैसे आपकी बाह्यदृष्टि बढती जाती है!! वैसे-वैसे ही आपमें इक्षायें,वासनायें अर्थात अग्नियाँ बढती जाती हैं!! अर्थात आपकी अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का कमतर होता जाना ही चन्द्रमा अर्थात मन के भटकाव का मुख्य कारण है!! अभी एक बात और भी है- प्रकाश-अंधकार, जीवन-मृत्यु,स्थिति-गति,स्त्री-पुरूष ये दोनों ही साथ-साथ रहते हैं!!

देवता और पितर साथ-साथ रहते हैं!! एक ही रथ पर रहते हैं!!और वह रथ है,अग्नि-"इन्द्रेणदेवैः सरथं दघानां" ऋचा यह कहना चाहती है कि- इन्द्रादि सभी देवताओं को पितरों केसाथ अग्नि ही #यमअर्थात #काल_स्थिति_संयोगानुसार प्रज्वलित उष्ण अग्नि लेकर जाती है!! तथा पुनश्च शीतल-अग्नि अर्थात वर्षा रूपी रथ पर चढकर ये देवता और पितर पुनश्च आ जाते हैं!!

इसी के साथ ऋचाके इस अंक को यहाँ विश्राम देती हूँ और शीघ्र ही इसके अगले अंक के साथ उपस्थित होती हूँ--- #सुतपा!!

पितृसूक्त ९~२

पितृ-सूक्त मंत्र-९~२ अंक~२०

#अग्नि_देवता_ही_आप_और_देवताओं_तथा_आप_और_आपके_पितरों_के_मध्य_एक_सेतु_हैं

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में ९ वीं ऋचा के द्वितीय अंक को समर्पित करती हूँ!!

#ये_तातृषुर्देवत्रा_जेहमानाहोत्राविदः #स्तोमतष्टासो_अर्कैः।#आग्नेयाहिसुविदत्रेभिरर्वाङ्सत्यैःकव्यैःपितृभिर्धर्मसभ्दिः।।

हे प्रिय!!पुनश्च इस ऋचा के द्वितीय अंक में मैं आपसे-" सत्यैःकव्यैःपितृभिर्धर्मसभ्दिः"पर चर्चा करती हूँ!!ऋषि कहते हैं कि-"ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासू और धर्म-नामक हविके पास बैठनेवाले"कव्य" नामक हमारे पितर देवलोकों में स्वाँस लेने तक की अवधि में व्याकुल हो गये हैं!!

अब मैं इसे आपसे समझती हूँ!!आप ज्योतिषीय अथवा शास्त्रीय किसी भी विधि से समझें,आप किसी भी मत-मतान्त, की दृष्टियों से देखें!! आपकी आत्मा ये स्वीकार करेगी कि आपके पूर्वज आपसे संतुष्ट हैं अथवा असंतोष के कारण आपसे रूष्ट हैं!!जब किसी अपने आश्रित अथवा अपने शुभचिंतक की आप अवहेलना करोगे,तो भला उसे शाँति कैसे मिलेगी और यदि वो अशांत होंगे तो आपको या मुझे शाँति कैसे मिलेगी ?

अभी कुछ दिनों पूर्व मेरी पडोस में किसी का त्रयोदशाह था!!इस हेतु आचार्यों ने शय्यादानादि के संदर्भ में स्पष्ट कह दिया कि आप १५००० ₹ दे देना!!हम लोग पूरी सामग्री ले आयेंगे!! हमारी दक्षिणा आप पृथक से देना!! अब ये सामग्रियों उनके सामाजिक स्तरानुसार कम से कम ४०००० ₹ की थीं!!तो यजमान सहर्ष सहमत हो गये!!

(१)=और त्रयोदशाह पर पुरोहितों ने पुरानी शय्या,पात्र, आसन, वस्त्र, कलश,नारियल तक लाकर उन्हीं से पूरी विधि सम्पन्न करा दी!!न जाने कितने लोगों की शय्यादान से लेकर अन्यान्य कर्मकाण्डों में इन्ही एक सामग्रियों का उपयोग किया जाता रहा और आगे भी होता रहेगा!!

(२)=मैं देखती हूँ कि जब भी मैं कभी किसी आध्यात्मिक उद्देश्यों से किसी वस्त्र तथा पात्रादि जिन्हे आचार्यों को दान देना हो!!अथवा कि मंदिरों में चढाना हो!!तो सस्ते और बिल्कुल घटिया स्तर की सामग्रियों का ही मैं चयन करती हूँ!!

(३)=जब भी मैं अपने लिये चावल-दाल सब्जी बनाती हूँ तो बैठकर चश्मा लगाकर कायदे से उनमें से कंकड़-पत्थर बिनकर धोकर तब पकाती हूँ,किन्तु यज्ञों हेतु तिल,जौ आदि सामग्रियों के साथ ऐसा तो नहीं करती ?

(४)=आचार्य गण भी अपनी मन मर्जी से दक्षिणा पहले ही नियत कर लेते हैं!! और यदि वे ऐसा नहीं करते तब तो मैं उनके अथक परिश्रमों को नजरअंदाज करती हुयी उन्हे कम से कम दक्षिणा देने का घृणित प्रयास करती हूँ!!

(५)=योग्य आचार्यों को मैं मँहगे होंगे ये सोचकर मंत्र, उच्चारण, विधियों से अनभिज्ञ लोगों से कर्मकाण्डादि कराती हूँ!!तो वो तो अधूरी होगी ही!!

हे प्रिय!!भूखे हैं आपके पूर्वज!!आपके देवता निर्बल होते जा रहे हैं!!यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म अपनी शास्त्रीय विधाओं की दयनीय स्थिति पर!!आपके ऋषि अश्रुपात कर रहे हैं!! न जाने कब से आपकी अँजली उन्हें नही मिली!!वे धर्म-वेदी पर बैठकर आपकी राह देख रहे हैं!!

और ऐसी स्थिति में निःसंदेह उनका श्राप हमको लगेगा ही!! वे अतृप्त आत्मायें हमें भी चैन से जीने नहीं देंगी!!तो इस हेतु हम-आप क्या कर सकते हैं,एक यक्ष प्रश्न है!!और इसका उत्तर मैं आपके साथ मिलकर ढूंढने की कोशिश करती हूँ!!और जहाँ तक मैं समझती हूँ तो इनका उत्तर यह पित्तसूक्त ही अपनी अगली ऋचाओं के माध्यम से हमें देगा!! क्योंकि त्रिकालदर्शी हमारे ऋषियों को प्रथम ही इन संभावनाओं का आभास हो चुका था!!

हे प्रिय!! आगे पुनश्च ऋषि कहते हैं कि-"आग्नेयाहि सुविदत्रेभिरर्वाङ् सत्यैःकव्यैःपितृभिर्धर्मसभ्दिः"अर्थात उन पितरों को साथ लेकर हे अग्नि देव!! आप यहाँ उपस्थित हों!!अर्थात अग्नि देवता ही आप और देवताओं तथा आप और आपके पितरों के मध्य एक सेतु हैं!!

ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविदः स्तोम तष्टासो अर्कैः।आग्नेयाहि सुविदत्रेभिरर्वाङ् सत्यैःकव्यैःपितृभिर्धर्मसभ्दिः।।
अनेक प्रकार के हवि-द्रव्योंके ज्ञानी अर्कों से स्तोमोंकी सहायता से जिनका निर्माण किया है,ऐसे उत्तम ज्ञानी, विश्वासू और धर्म-नामक हविके पास बैठनेवाले"कव्य" नामक हमारे पितर देवलोकों में स्वाँस लेने तक की अवधि में व्याकुल हो गये हैं!!उनको साथ लेकर हे अग्नि देव!! आप यहाँ उपस्थित हों!!

और इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की १० वीं ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!..... #सुतपा!!

विज्ञान भैरव तंत्र सूत्र~२० अंक~१८


#ये_वे_पल_हैं_जब_शिव_शिवा_में_प्रविष्ट_होकर_तादात्म्यहो_जाते_हैं
       
अब विज्ञान भैरव तंत्र  यह बीसवाँ श्लोक मैं  आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ, #श्री_भैरव_उवाच--
#शक्त्यवस्थाप्रविष्टस्य_निर्विभागेन_भावना।
#तदासौ_शिवरूपी_स्यात्_शैवी_मुखमिहोच्यते।।

हे प्रिय !!अब मेर प्रियतम भैरवजी अपनी सूरता  रूपी शिवा से कहते हैं कि-"शक्त्यवस्थाप्रविष्टस्य" वस्तुतः इस श्लोकमें "शिव-तत्व तथा शक्ति"की अभेद्यता प्रस्तुत की गयी है, वस्तुतः"शैव्य-दर्शन"की मुख्य आधार शिला ही यह श्लोक  है!!
मैं प्रथम तो आपके समक्ष "भैरव"की वैयाकरणीय व्याख्या रखती हूँ---"भा+ऐ+र+व" अर्थात #अकार अनुत्तरित है, #इकार उसी की ईच्छा अर्थात "अनुत्तर में ही विश्राम"है-और यही तो परमानंद है न प्रिय !!

आपके उपनिषद कहते हैं कि- #तद्_सृष्ट्वा_तदेवानुप्राविशत्"और तंत्र कहता हैं कि- #तद्_सृष्ट्वा_तदेवात्म_प्राविशत्" यह भी एक गूढतम् रहस्य है --
"उन्होंने मेरा निर्माण किया-वे मेरे पिता हैं!!
"वे मुझसे ही सृष्टि का निर्माण करते हैं-वे मेरे पती हैं"
"वे स्वयम् ही मुझसे उत्पन्न भी होते हैं-वही मेरे पुत्र हैं

हे मेरे ह्रदय के प्रिय अब पुनःमैं कहती हूँ कि -- #शक्त्यवस्थाप्रविष्टस्य" मैं इसे आपसे समझने का एक असफल सा कठिन प्रयास करती हूँ!! मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस दृश्टांत पर गंभीरता से ध्यान दें-- मैं कल्पना करती हूँ कि-मैं अपने नेत्रों को अचानक बंद कर लेती हूँ--तो प्रकाश अंधकारमें विलीन हो गया!! और अचानक खोलती हूँ तो पाती हूँ कि पुनःअंधकार प्रकाशमें विलीन हो गया!!और यह सब कुछ एक छण के हजारवें हिस्से में ही हो गया!!
किंतु मेरे अद्भुत दृष्टांत का मुख्य"सिद्धांत" अब रखती हूँ--

"उन पलकों के झपकने की अवधि, वो एक छण का भी हजारवाँ भाग"आप कल्पना तो करो कि उस छणाँश को आपने स्वयम् ही देखा और महेसूस भी किया किन्तु क्या मैं मूढ-मती उस"छणाँश"में रुक सकती हूँ ?हाँ मेरे प्रिय!यह अद्भुत-अलौकिक पल ही"परमार्थ"है!!ये वही पल हैं जब "शिव-शिवा"में प्रविष्ट होकर तादात्म्य हो जाते हैं,इसे ही तो #अर्धनारिनाटकेश्वर"कहते हैं न!!

तो सखी"निर्विभागेन भावना"यह अविभाज्य सीमा- रेखा है हम दोनों की,प्रकाश-अंधकार, प्रकृति- पुरुष और"भैरव-भैरवी"की!!

तभी तो कहते हैं कि- #तदासौ_शिवरूपी_स्यात्_शैवी_मुखमिहोच्यते"
ये पलकों का खोलना वही पल हैं जब मैं"अंधकार से प्रकाशमें"प्रवेश करती हूँ-जब मैं "शिवा"शिव स्वरूप हो जाती हूँ!!और जब मैं पलकों को अचानक बंद कर लेती हूँ!! तो प्रकाश से अंधकार की यात्रा पुनः प्रारंभ हो जाती है,मैं अर्थात"शिवा"अविद्या-स्वरूपिणी महामाया हो जाती हूँ!!

तो प्रिय मैं पुनः कहती हूँ कि निर्विचारावस्थामें पलकें तो झपकती ही रहती हैं !!बस एक बार आप जागते हुवे इन पलकोंको झपका कर तो देखें!उस अवस्था में रुकने का प्रयास तो करें जिस बिंदु से प्रकाशाऽधकार का विभाजन होता है!!जो मुझ अंधकार स्वरूपिणी #भैरवी।और उन प्रकाश स्वरूप #भैरव।की मिलन रेखा है!!

और इस प्रकार इस श्लोक के उपसंहार में यही स्पष्ट होता है कि---
"तदासौ शिवरूपी स्यात् शैवी मुखमिहोच्यते"
यदि मैं"अविद्या स्वरूपा भैरवी" इस अलौकिक पल को प्राप्त कर लेती हूँ तो मैं ही-

#कैवल्य_ज्ञान_रूपिणौ_भेरव_स्वरूप_की_प्रवेश_द्वारिका_हूँ!! हे प्रिय!!इस प्रकार #शिव-तत्व के तोरण- द्वार का यह अद्भुत वर्णन मैं अपने पियाजी!!के चरणोंमें अर्पित करती हूँ.........सुतपा!!