Wednesday 12 September 2018

दुर्गा सप्तशती सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र

दुर्गा सप्तसती सिद्धकुञ्जिका-स्तोत्र~मंत्र~९ अंक~९

#विच्चे_चाभयदा_नित्यं_नमस्ते_मंत्ररूपिणि॥
#धां_धीं_धूं_धूर्जटेः #पत्नि_वां_वीं_वूं_वागधीश्वरी।

पुनश्च आगे अब शिव-सदृश्य ऋषि कहते हैं कि-आपने एक कथा सुनी होगी!! पहले ब्रम्हाजी को पांच मस्तक थे!! तो वेद भी तब पांच ही होंगे!!और तब ये भी चिंतनीय है कि पाँचवां वेद कौन सा होगा ?

और हे प्रिय!!जब ब्रम्हाजी अपनी कन्या सरस्वती पर मोहित हुवे!!तो शिवजी ने उनका वो पाँचवां मस्तक काट दिया!!इस मंत्रका उस दृष्टांतसे गहेरा सम्बंध है!!आप स्वयम ही देखें-
"धूर्जटेः पत्नि वां वीं वूं वागधीश्वरी"
मैं जब कभी शिवताण्डवस्तोत्रम् की व्याख्या करूंगी तो इसे और भी स्पष्ट करूंगी!!

"धां-धीं-धूं"का जरा आप उच्चारण करके देखना!! कि यह उच्चारित होता तो है-खुले मुख से!!खुले ओंठों से किंतु आपके नाभी स्थल तक को स्पन्दित कर देता है!!मैं आपको इस संदर्भ में ऋग्वेदोक्त रात्रिसूक्तका यह प्रथम श्लोक दिखाना चाहूंगी-
"#रात्री_व्यख्यदायती_पुरुत्रा_देव्य_क्षभि_विश्वा_अधि_श्रियोऽधित।।

हे प्रिय #दिव धातु से देवी शब्द बनता है!!अर्थात क्रीड़ा,विजिगीषा!!एक-दूसरे को जीतनेकी प्रतिस्पर्धा आपतो जानते ही हैं कि हम स्त्रीयाँ,देवीयाँ-व्यवहार, द्युति,स्तुति,कान्ति तथा अपनी गति से ही आपको प्रशन्न अथवा मोहित करती हैं!! अर्थात आप कामधातु के द्वारा ही स्थूल जगत से सूक्ष्म जगत में प्रवेश कर सकते हो!!

कितनी अजीब सी बात है ये कि आप सूर्य-चन्द्र और नक्षत्र तो हो किन्तु आपका प्रकाश चाहे जितनी दूर भी जाता हो उस प्रकाश के बाद तो मैं #महारात्रि घोर अंधकार स्वरूपिणी हूं ही!! आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि मैं आपकी #रयि अर्थात सूक्ष्मतम राई के दाने जैसे पूर्वकृत कर्मों के अनुसार आपकी जन्मदात्री हूँ!!

आप कभी कल्पना करके देखना!! बिना बाह्य प्रकाश के आपको कुछ नहीं दिखता!! किन्तु आपके अपने इसी शरीर के भीतर इतने सारे अंग-उपांग,रस,रक्त भरा हुवा है!! और यह सबकुछ घनघोर अंधकार में व्याप्त है!!हे प्रिय!!जब आप गर्भ में थे तो अंधेरे में ही तो थे!!

हाँ प्रिय!! यह घनघोर अंधकार स्वरूपिणी ज्ञानाऽज्ञान से अतीत बिल्कुल ही मात्र आभासिका मैं "धां" अर्थात "ध+अ+• अर्थात धां" आपकी जनमदात्री अकार स्वरूपा सरस्वती हूँ!! वागधीश्वरी हूँ!!
और पुनश्च " "ध+ई+• अर्थात धीं" आपकी भोग्या ईकार स्वरूपा लक्ष्मी हूँ!! पालन कर्त्री हूँ!! और मैं ही आपकी ऊर्ध्वगामिता में सहायिका "धूं" अर्थात "ध+उ+• अर्थात धूं" आपके पशुत्व का संहार करके उकार स्वरूपा भैरवी हूँ!! महाकाली हूँ!!

और मैं ही आपको अपने वृत्त ○ से-
"विच्चे चाभयदा नित्यं " अभय कर सकती हूँ !!मुक्त कर सकती हूँ!!और आपको मुझसे मुक्त होने का यही मंत्र है!! मैं ही आपको मंत्र-दान अर्थात मंत्रणा दे सकती हूँ!! हे प्रिय!! जिसने भैरवी के चक्रव्यूह का छेदन कर लिया!! जो मेरे मोहपाश से मुक्त हो गये!! जिन्होने मुझ को मोहित तो किया!! किन्तु स्वयम मोहित नहीं हुवे!! वे ही मुझ वागधीश्वरी से पार पा सकते हैं!!

आप इसे भी समझें-ऋषि कहते हैं कि-"वां वीं वूं" जैसे कि #य यति को तथा #र रति अर्थात रमणी को कहते हैं!!जिसे नाथ सम्प्रदाय में-"जती-सती"कहते हैं!!यती को ऊर्ध्वारूढ कर रती #सती हो जाती हैं!! अर्थात #धूमावती पति धातिनी हो जाती हैं!!

अत्यंत ही गूढ रहस्यात्मक शब्द है यह-"व+अ+• =वां"अर्थात ○ के ऊपर जो उठ गये!! योनि से ऊपर जो उठ गये!!
"व+ई+• =वीं"अर्थात ○ के ऊपर जिन्होने उसकी शक्ति से उसका ही अतिक्रमण कर दिया!! योनि का अतिक्रमण कर जो उठ गये!!
"व+ऊ+• =वूं"अर्थात ○ से जिन्होने ऊपर को गमन किया !!और जो सभी योनियों से ऊपर उठ गये!! जिन्होंने सहस्रार का भेदन कर दिया!!

अर्थात यह तंत्रात्मक विधा ही ब्रम्हा का पाँचवाँ गुप्त मस्तक रूपी वेद है!!
और हे प्रिय!! यही कुलाचार्य आनंदभैरव मुक्त पुरुषातीत आत्मस्थितित्व का मोक्ष-पथ है यह महामंत्र!!

और इसी के साथ इस मंत्र का भावानुबोधन पूर्ण करती हूँ!!

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