Tuesday 11 September 2018

आगमोक्त जैनसूक्त

आगमोक्त जैन मत के १४ सूत्र-अंक-३

#संयमादि_साधनों_से_अविद्या_का_विद्या_से_सम्पर्क_सेतु_पुल_टूट_कर_छिन्न_भिन्न_हो_जाता_है!!
हे प्रिय तथा प्यारी सखियों!!अब आगे "तेरहवें-सूत्र" पर मैं आपके साथ पुनः इस सूत्र के द्वितीय भागको प्रस्तुत कर इसे समझने का प्रयास करती हूँ,"तेरहवाँ-सूत्र"अर्थात--

#सयोगकेवली (योग के साथ कैवल्य ज्ञान) इस गुणस्थान में आत्मा की स्वाभाविक गुण- अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त आत्मशक्ति प्रकट हो जाती हैं!!जैसे कि"मैं मार्ग में जा रही हूँ,सामने एक सुँदर से कामदेवके सदृश्य पुरुष को देखती हूँ!!मैं तत्काल अपनी आँखों को झुका लेती हूँ!!आप भी मार्ग से जा रहे होते हैं-सामने से एक सुँदर नवयौवना आ रही होती है!तो आप भी अपनी आँखों को नीचे झुका लेते हैं!!आचार्य_तरूण_सागरजी_की_पावन_स्मृति_में_एक_भावपुष्प!!

#ताहे_पडिस्सुत्तं_तो_णवरं_अच्छामिजती_अप्पच्छंदेण _भोयणादकिरियं_करेमि_ताहे_समत्थितं।।

मेरे प्रिय सखा तथा मेरी प्रिय आध्यात्मिक पथ सहचरी सखियों!!मैं अचानक अवाक् तथा मानसिक रूप से अत्यंत ही विचलित हो गयी हूँ!!मेरे आपके आदर्श पुरूष आचार्य #तरुण_सागरजी महाराज के इस असामयिक निधन ने मुझे अंदर से झकझोर कर रख दिया है!!उपरोक्त आगम के मंत्र को जिन्होने समझा और हम सभी को समझाया!!

अपनी कठोर किन्तु निर्मल,निश्छल वाणी के लिये प्रसिद्ध इन महापुरुष ने मात्र ५१ वर्ष की आयु में ही इस संसार से विदा ले ली!!मैं सुनी हूँ कि इनका जन्म २६~६~१९६७ में  ग्राम गुहजी नामक ग्राम में, दमोह- मध्य प्रदेश में हुआ था!!

आज उनकी वाणी,और उनके प्रवचनों की मात्र स्मृति शेष है!!मैं जानती हूँ कि हम लोगों ने उन्हे बहूत ही मानसिक पीड़ा दी है!!उन्हे सनातन का विरोधी कहा!! किन्तु वे तो एक महान विद्रोही संत थे!! जिन्होंने आजीवन कट्टरता का विरोध किया!!

मैं मानती हूँ कि उन्होने कबीर की तरह मेरे सनातन में भीतर तक पैठ बना-चुकी आडम्बरात्मक तथाकथित मिथ्या कर्मकांडों का विरोध जरूर किया!! और तो और जैन समाज में फैले लालच, मिथ्याचारों और अवैज्ञानिकीय विधाओं की भी मुक्त-कण्ठ से आलोचना कि!!उन्होंने अनेकानेक लोगों को सत्पथ पर आरूढ किया!! और जब कोई ऐसे संतों का सानिध्य आपको मिलता है!!

तो हे प्रिय!!आपके सद्भाग्य से ऐसा कभी कभी होता है!!तो यह भी साथ ही साथ होगा!!एक घटना सी घटित होगी!!आपमें कुछ अस्थायी #उर्जा ईश्वर प्रदत्त अंतः प्रेरणा"विकसित होती है।और ये आवस्यक नहीं है कि आप किस गुरू के शिष्य हैं!!आप जैनी हैं या बौद्ध!!आपके भगवान आगम और धम्मपद में नहीं है!!आपके "साहिब"बीजक,गुरू-गृंथ साहिब में नहीं हैं!!मेरे "साँवरे"जी कागज की बनी किताबों और स्याही से लिखे मंत्रों में नहीं हैं!!

उन्होने कभी महावीर स्वामीजी के इन वचनों-
#निक्खमणमहाभिसेगे_अप्फासुगेणं_ण्हाणितो_ण_य_बंधवेहिवि अतिणेहं_कतवं।
के संदर्भ में अपने प्रवचनों में कहा था कि,आपका बंधु,आपके सहचर आप स्वयम ही हो!!आपको अपने भीतर जाना होगा!!आपका हित अंतःकरण की यात्रा में है!! वे बारम्बार कहते थे कि- #णमो_अरिहंताणं जिसने अपने भीतर बैठे #अरि का हनन कर दिया!! वही नमस्कार के योग्य है!!

आपकी माता-पिता का नाम श्रीमती शांतिबाई जैन और प्रताप चन्द्र जैन था!!मुनित्व धारण करने के पूर्व आपका नाम #पवन_कुमार_जैन था!!और मैं जहाँ तक समझती हूँ तो वे वास्तव में आज के संदर्भों में #जिन धर्म के आधार स्तंभ सदृश्य थे!!

मैं आज उनके पतीतपावन श्रीचरणों में ये अश्रुसभर कुछ भाव-पुष्पों को चढा रही हूँ!!और मेरे अपने समूचे #जैन_समाज की ही नहीं बल्कि इसे तो एक अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक आंदोलन की क्षत्ति मानते हुवे किंकर्तव्य-विमूढता से भ्रमित हो गयी हूँ!!

हे प्रिय!! मेरी अंगुलियों तथा आँखों की पीड़ा के कारण यह निबंध मेरे एक मित्र द्वारा बोल कर लिखवा रही हूँ!!अन्यथा और भी कुछ उनके संदर्भ में आपसे कहने का प्रयत्न करती!!
हे प्रिय!!यह श्रृंञ्खला अब इसी दुःख और आनंदमय  भाव के साथ यहाँ पर उपसंहार को प्राप्त होती है!!मैं आप सभी को ह्रदय से नमन करती हूँ!!
#आपकी_आध्यात्मिक_दीदी_सुतपा"

अर्थात यह जो संस्कारी होने का दिखावा है न-यही हमारे"मुनित्व"के पद को प्राप्त न हो पाने का सबसे बड़ा प्रमाण भी है!!मुनी तो"सयोग कैवल्य"होते हैं! उनके लिये "स्त्री-पुरुष" का भेद!! सुंदरता असुँदरता का भेद!!कुछ भी नही होता!!तभी तो वो"दिगाम्बर या श्वेताम्बर" अर्थात"कषायाम्बर होते हैं!! हे प्रिय!! मेरा मन अशांत हुवा होगा तभी तो मैं "धर्म-पथ"की ओर झुकी होऊँगी ?

और ईधर ऊधर,कभी इस मत में कभी किसी और मत में झाँकने का प्रयास करती होऊँगी!! और अपने संस्कार एवम् पर-छिद्रान्वेषण,और अज्ञान तथा अधूरे- पन के कारण एक-दूसरे में दोष ढूँढने का प्रयास भी करती होऊँगी!!लेकिन जो मुनित्व को प्राप्त हो जाते हैं!!

जो "सयोग-कैवल्य"को प्राप्त हो जाते हैं!!
"वे न जैन होते हैं"न ही वे"बौद्ध, वैदिक,सूफी,सेंट,या वैष्णव और शैब्य या शाक्त ही होते हैं"वे "कैवल्य" होते हैं! #वे_कैवल्य_होते_हैं_वे_कैवल्य_होते_हैं!!

हे प्रिय!!अब आगे "चौदहवें-सूत्र"पर मैं आपके साथ पुनः इस विशयको समझने का प्रयास करती हूँ, "चौदहवाँ-सूत्र"अर्थात- #अयोग_कैवल्य"

यह मोक्ष मार्ग का अंतिम चरण है!! जिसमें महात्मा चारों ही अघातिया कर्मों का विनाश कर देता है। आत्मा इस गुणस्थान के पश्चात् सिद्ध बन जाती है। यही आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है-"अयोग कैवल्य"

#सामयिकविशुद्धात्मा_सर्वथा_घातिकर्मणः।
#क्षयात्केवलमाप्नोति_लोकालोकप्रकाशकम्।।
मैं आपको एक बात बताती हूँ!!मेरे प्रिय-प्रियतमजी!! द्वारा श्रीमद्भग्वद्गीताजी में भी यही कहा गया है कि!!
प्रालब्ध,संचित,और क्रियामण के द्वारा नूतन संस्कार और वासनाओं का बंधन होता है!!

यही कर्म-गति है!!यही दुख-सुखमें हेतु भी है!!यही तो नाना जन्मों का हेतु और अन-सुलझा रहस्य भी है!!इससे मुक्ति भला कैसे हो!!

तो सखियों!!यह भी सत्य ही है कि-देवादि दिब्य अथवा श्रेष्ठ ज्ञान सम्पन्न,श्रेष्ठ कुलमें जन्म लेने का कारण-
(१)="आसक्ति के क्षिण न होने से ऐसा होता है!!
(२)=अपने द्वारा कृत पूर्व संयमादि अधूरे प्रयत्नों से ऐसा होता है!!
(३)=अपने द्वारा कृत तपादि कृत्यों से ऐसा होता है!!
(४)=और कर्म-फलों के शेष रहने से ऐसा ही होता है!!

अतः हे मेरे प्रिय!!महापुरुषों के वचनों पर चलते हुवे "साधना-उपासना"करने से सत्य श्रवण करने से, सत्य जानने को मिलता है!!सत्य किंचित्त् मात्र भी जानने से साधना करने की ईच्छा होती है!!

साधना से ज्ञानकी प्राप्ती होती है!! परिणामतः "विज्ञान" अर्थात सूक्ष्म संस्कारों,वासनाओं ,जैसे सूक्ष्मतम् बंधनों का सत्याऽसत्य विवेक प्राप्त हो जाता है!!और प्यारी सखी!!परिणामतः"अविद्या से विद्या का"अनात्म से आत्मा का पृथक् करण हो ही जाता है!!

और तभी तो"संयम"का रहस्य जानकर हम आप संयम करेंगे!!और "संयमादि"साधनों से अविद्या का विद्या से "सम्पर्क-सेतु ",पुल"टूट कर छिन्न भिन्न हो जाता है!!

और तभी तो मुझमें-आपमें"तप करने की क्षमता विकसित होगी न!!और "तप"करने से चारों ही प्रकार के #अघात_कर्मों"का विनाश हो जाता है!!और मन-बुद्धि की "चंचलता"एकाग्रता में परिवर्तित हो जाती है!! #और_सिद्धि_की_प्राप्ति_हो_जाती_है"

#णमो_आंणमो_अरिहंताणं।। #णमो_सिद्धाणं।।
णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं।।णमो लोए सव्व साहूणं। एसोपंचणमोक्कारो,सव्वपावप्पणासणो ।।यह-णमोकार महामंत्र।। मंगला णं च सव्वेसिं, पडमम हवई मंगलंतथा सब मंगलो मे प्रथम मंगल है।

मेरे प्रियसखा तथा प्यारी सखियों!!हिंदू-धर्म के ही एक अभिन्न घटक जैन घर्म के परमपरमाचार्य महावीर स्वामी जी के संदर्भ में!!मैं उनके प्रति अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने यह निबंध प्रस्तुत कर रही हूँ

जैसा कि मेरी प्रतिज्ञा है मैं किसी की नकल नहीं करती!!अपने स्वविवेक से लिखती हूँ। तो ज्ञानीजन मेरी त्रुटियों को छमा करेंगे।

मगध प्रांत के पाटलीपुत्र में एक सराय थी। जिस सराय में अगल बगल के दो कमरों में दो महापुरुष आकर रुके थे। दोनों ही भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ तम व्यक्तित्व की गणना में गिने जाते हैं।

इन दोनों के ही उपासक आज लाखों नहीं करोडों की संख्या में सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। किन्तु बडे आश्चर्य की बात है कि वे दोनों ही संत अगल-बगल के कमरों में थे पर एक दूसरे से अपरिचित थे -
एक थे महात्मा बुद्ध और दूसरे महावीर स्वामी।

महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी - समकालीन हैं !!
और दोनों का जन्म, मृत्यु एक ही दिन हुआ। इस बात को कोई भी बुद्ध अथवा महावीर स्वामी का अनुयायी स्वीकार करने को कभी भी तैयार नहीं होंगे !!
क्योंकि दोनों ही महापुरुषों के अनुयायियों ने अपने सम्प्रदायाचार्य की वाणी एवं उपदेशों को आत्मसात् करने की अपेक्षा दूसरों को उपदेशित करना ज्यादा उचित समझा।

ऐतिहासिक तथ्य यह है कि विश्व के श्रेष्ठ इतिहासकार एवं साहित्यकार इस सत्य पर ज्यादा विश्वास रखते हैं कि बुद्ध और जिन् दोनों एक ही हैं। णमो अरिहंताणं -
अर्थात हमारा सबसे बडा शत्रु कौन है ?
हे प्रिय!!हमारे बुरे विचार, आचार, प्रवृत्तियाँ, संवेदनहीनता, अभक्ष्य भोजन यही तो हमारे सबसे बडे शत्रु हैं।

क्रोध, काम, लोभ, मोह, माया, मत्सर, अहंकार क्या इनसे ब‹डा कोई शत्रु हो सकता है, और जिसने अपने इन महाशत्रुओं का वध कर दिया,वह अरिहन्त स्वामी के नाम से!!महावीर स्वामी के नाम से प्रसिद्ध होता है।

महात्मा बुद्ध या महावीर स्वामी दोनों ने ही कहा कि णमो अरिहंताणं। अपने शत्रु का वध करो!! अर्थात् अपने मन में बैठी हुई शत्रुता को मार दो। प्रेम से भर जाओ। ऐसे अरिहन्त भगवान महावीर को मैं णमो अर्थात् नमस्कार करती हूँ।"णमो सिद्धाणं "-

जिसने अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों का वध कर दिया, जिस प्रकार कच्चे अन्न को खाया नहीं जा सकता। उसे तो आपको पकाना ही पडेगा।
कच्चे अन्न को तो काटा भी नहीं जाता। किसान भी उसके पकने की  प्रतीक्षा करता है।
और पकने का अर्थ है अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त करना -

वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न पिबत नीर,।
परमारथ के कारणैं, साधुन धरा शरीर।

- जो अपने लिये नहीं जीता,!!
जो अपने लिये नहीं खाता,!!
जो अपने लिये नहीं  पीता,!!
जो अपने लिए नहीं चलता,!!
वह जो जो करता है, दूसरों के लिए करता है -

पूजातेविषयोपभोगरचना, निद्रा समाधिस्थिति!!
यावत कर्म करोमि तद् अखिलं शंभोः तवाराधनम्।

जो दूसरों के लिए जीता है, और मरता भी दूसरों के लिए, जिसके सभी कर्म अकर्म "पक" चुके हैं, समाप्त हो चुके हैं -
ऐसा महापुरुष सिद्ध होता है। ऐसे भगवान महावीर स्वामी -
णमो सिद्धाणं को मैं प्रणाम करती हूँ।
हे प्रिय!!प्यारी सखियों!! दुनिया के किसी भी क्षेत्र के हमारे अथवा किसी के शुभचिंतक माता-पिता चाहते हैं कि हमारा बेटा डॉक्टर, इंजीनियर,वकील, प्रोफेसर, वैज्ञानिक बन जाय।
नंही तो टीचर, ग्रामसेवक, लेखपाल या चपरासी ही बन जाय!!
भले ही नेता, चोर, बदमाश, डाकु, लुटेरा ही सही बने पर मेरा बेटा एक पैसे कमाने वाला इंसान बने,!!

एक साधु बने, ? एक संत बने, ?क्या ऐसा कभी किसी के माता पिता ने चाहा? किसी संस्कृति ने चाहा ?

हां चाहा हमारी भारतीय संस्कृति तो कहती ही है कि #मनुर्भवः - तुम मनुष्य बन। क्योंकि तू मनुष्य था, मानव के रुप में ही तेरा जन्म हुआ - डाक्टर, इंजीनियर, चपरासी, नेता तो तूं बन गया।

आ लौट चल मानवता की तरफ। जो था वही बन जा। वहीं रह!! आर्य बन-
कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - आर्य अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्यत्व को कहते हैं।

भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि अपने शत्रुओं का (आयरि) वध कर आर्य बन। मैं ऐसे श्रेष्ठ आर्य भगवान अरिहन्त को नमस्कार करती हूँ।

णमो उवज्झायाणं -
जो हमारी उर्वरक शक्ति है,!! वह पृथ्वी की हो, !!मन की हो,!! पदार्थों की हो,!! विद्या की हो, !!भावनाओं की हो,!! उर्वरता किसी भी प्रकार की हो, !!वह हमेशा भोगवाद को प्रधानता देती है।
उपभोक्तावाद का अर्थ ही यही होता है!! कि किसी व्यक्ति को किसी पदार्थ आदि को बनाये बिना, उस पदार्थ का विक्रय संभव नहीं है।

ज्यादा से ज्यादा ३०-४० साल पहले किसी को टीवी की जरुरत नहीं थी। आज क्या मै बिना टीवी के जी पाने की कल्पना कर सकती हूँ ? 
यही है उपभोक्तावाद,!! मीडिया ने नानाप्रकार के प्रचारों के द्वारा हमारी दो रोटी की आवश्यकता को दो कोटि में भी पूरी न होने लायक बना दिया।
यह उर्वरता यदि अच्छी है !!तो बुरी भी है।
कम से कम पदार्थों से,!! धन से !! मैं अपना जीवन यापन कर सकती हूूँ!!!!
किन्तु उपभोक्ता संस्कृति के जाल में फँसकर अपनी आवश्यकताओं को दिन-प्रतिदिन बढाते हुए -

एक अत्यन्त प्रकाशित हीरा था, जो अपने प्रकाश से अंधकार को भगा रहा था, उसे कपडे में लपेटना प्रारम्भ किया, कपडे के बंधन में लिपटकर खो गया उसका प्रकाश!! गुमनामी कें अंधेरे में खो गया वो!!

जैन मुनि नग्न रहते हैं!!
हमारे साधु-महात्मा नागा होते हैं।
नग्न होते हैं। दिगम्बर होते हैं -
अर्थात् दिशायें ही जिनका अम्बर  है,!! जिनके शरीर को जीवित रखने के लिए मात्र अन्न की आवश्यकता है,!!
इतनी सीमित आवश्यकता!!
ताकि दूसरे भी जी सके - " जियो और जीने दो "

इसप्रकार उर्वरता की सीमा को निर्धारित करने वाले !!उपभोग से बचने वाले!! दूसरे के लिए ज्यादा से ज्यादा पदार्थों का त्याग करने की इच्छा रखने वाले !!भगवान महावीर स्वामी को मैं--
"णमो उवज्झायाणं"मैं प्रणाम  करती हूँ!!

णमो लोए सव्वसाहूणं -
भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन को सव्यसांची कहा है। सव्यसाची!! अर्थात् - जो शब्द भेदी बाण चलाना जानता हो।
जिसका निशाना कभी व्यर्थ नहीं जाता,!!
अन्य किसी दिन मैं आपको मत्स्यवेध के चरित्र की व्याख्या बताउंगी,!! आज तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि खौलते हुए तेल की कणाही के ऊपर!!
चलते हुए चक्र के बीच में स्थित मछली की आंख को भेदने के कारण अर्जुन को सव्यसाची कहा गया।

संत ऐसे होते हैं। भगवान ने गीता में कहा भी कि -
‘सर्वधर्मानपारित्याज्यः मामेकं शरणंब्रजः ।
माहं त्वं सर्वपापेभ्यो मोक्षयिस्यामि माशुचः। ।

जब किसी का लक्ष्य सव्यसाची की भाँति सभी विषयों को छोडकर,!! सभी इच्छाओं का त्याग कर !!एकमात्र मछली की आंख को भेदने के लिए !! परमार्थ प्राप्ति के लिए निर्धारित हो जाता है,!!
तभी वह मछली की आंख को भेदन करने में अर्थात् परमार्थ को प्राप्त करने में सक्षम हो पाता है। ऐसे
" सव्वसाहूणं "को लेने वाले,!! प्राप्त करने वाले!!

हे प्रिय!!और दूसरों को भी प्रदान करने वाले -
जो स्वयं शान्त होगा वही तो दूसरों को भी शांति दे पायेगा,!! जिसके में धैर्य होगा,!! वही तो धैर्य दे पायेगा -

तेजोऽसि तेजोमयी धेहि, वीर्यऽसि वीर्यमयी धेहि,।
ओजोऽसि ओजोमयी धेहि, बलमऽसि बलमयी धेहि।

ऐसे भगवान सव्यसाँची महावीर स्वामी को मैं कोटि कोटि प्रणाम करती हूँ।

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