Thursday 13 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~२

#जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
          #विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
#धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट_पट्टपावके
           #किशोरचंद्रशेखरे_रतिः #प्रतिक्षणं#ममं ॥

अब पुनः कहते हैं कि- "भ्रमन्निलिंपनिर्झरी"
अत्यंत वेग से गंगा की चञ्चल तरंगें "जटाकटाह संभ्रम" जिनकी जटाओं में निरन्त किसी स्वचलित ○ वृत्त की तरह भ्रमण कर रही है!!वैसे मैं आपको एक बात कहूँ!!ये जो आपका मस्तिष्क है न!!इसमें नाना विचारों के प्रवाह सतत और तीव्र गति से चलते ही रहते हैं!!निरन्तर आप कुछ न कुछ सोचते ही रहते हैं!!

और हे प्रिय!!ये विचार भी किन्ही उलझी हुयी जटाओं में आपको और भी उलझा देते हैं!!षट-शास्त्रों और चतुर्वेदोंके प्रकाण्ड विद्वान और प्रखर शिवभक्त के ये वचन हैं!!और भी एक बात मैं आपको कहूँगी-
#मन_गया_तो_सो_गया_गहिकर_राख_शरीर।
#बिना_चढाये_कामठी_क्यूँ_कर_लागै_तीर।।
ये विचार अच्छे हैं अथवा बुरे ये आप एक बार बस इनको देखो!! इन्हें पढो!!क्रियान्वित होने ही न दो!!

और यदि ऐसा हो जाता है तो एक अद्भुत घटना घटेगी!!जरूर घटेगी!!किंतु देर हो सकती है!!बहूत देर हो सकती है!!परन्तु घटेगी जरूर!!और वह घटना ऐसी होगी!!कि आपका अपना विवेक जाग्रत हो जायेगा!!सत्याऽसत्य,शोभन-अशोभन,अच्छे-बुरे का निर्णय आप या तो स्वयम ही कर लोगे!!

अथवा किसी अपने ऐसे निर्णय पर आप पहुँच जाओगे कि आप न जाने कितने संस्काजन्य उत्पन्न घृणित विचारों को आप अपने ही संस्कारजन्य अच्छे विचारों के द्वारा उन्हे नष्ट कर दोगे!!आप पतीत-पावनी गंगाके सदृश्य ही विचारों में प्रवाहित होते रहोगे!!

और हे प्रिय-" विलोलवीचिवल्लरी"ये अद्भुत सूत्र है!!शिवदर्शपट्टारिका में कहते हैं कि-
#अन्यथा_गृह्णतः #स्वप्नो_निद्रा_तत्त्वमजानतः  ।
#विपर्यासे_तयोः #क्षीणे_तुरीयं_पदमश्नुते  ॥
शब्द या तो सहस्रार से उठते हैं या तो मूलाधार से!!अर्थात नाभिकीय उर्जा से!!

आप इस स्तोत्र की विवेचनान्तर्गत यह स्मरण रखें कि दशानन वेदोक्त तीनों ही मार्गों के विद्वान थे!!और ऐसे मूर्धन्य विद्यावान वेदान्ती और तपोमूर्ति यदि साकार स्वरूप की स्तुति करते हैं तो वे किन्ही आद्याचार्य शंकराचार्यजी से कमतर नहीं ही होंगे!!

"विलोलवीचिवल्लरी"जब कोई विद्यावान विचारात्मक प्रवाहों के मध्य तुरीय-निद्रा में लवलीन हो जाता है!!अहो!अद्धभुत स्थिति होगी वो!!मुझे स्मरण है कि एक बार भगवान अवधूतरामजी के समक्ष एक गलित-कुष्ठ रोगी को लाया गया!!उसके सभी अंगों से असह्य दुर्गंध आ रही थी!!

उसके अंग-अंग सड़कर गिरते जा रहे थे!!पीब और कीड़ों से वो मानों एक साक्षात वैतरणी जैसा प्रतीत हो रहा था!उसके घरवालों ने उसे पड़ाव पर लाकर छोड़ दिया था!! और तभी भगवानजी के शिष्य कैलाशजी उन्हें लेकर आये थे!!

और वहाँ उपस्थित सभी लोग अपनी नाक को ढांककर दूर चले गये!!मैं भी दूर खड़ी हो गयी थी!! किन्तु मेरे भगवान तो साक्षात रामावतार ही तो थे न!! उन्होनें बड़े ही स्नेह से उसके पीब बहते घावों को सहलाया और मानों वो समाधिस्थ से हो गये!!और उनके नेत्रों से अश्रु-प्रवाहित होने लगे!!हम सभी आश्चर्यचकित होकर देख रहे दे कि उस रोगी के घाव जैसे तत्काल मुर्झाने से लगे!!और कुछ ही दिनों में आश्रमकी देख-रेख में वो विकलांग किसी महर्षि-च्यवन की तरह देदीप्यमान हो गया!!

और मैं ऐसा समझती हूँ कि जिन्होंने ऐसी तूरीय- निद्राऽवस्था को जाना उनके लिये ये एक आसान सी बात है!!हे प्रिय ये "विलोलवीचिवल्लरी" कुछ ऐसी ही अद्भुत गंगा होती है!!जो सीधे आपके सहस्रार से प्रवाहित होती है!!किन्तु इसकी पहली शर्त है-आपका "भ्रमन्निलिंपनिर्झरी" होना!! आपके विचारों में गंगाके समान पवित्रता होना!!

आगे दशानन कहते हैं कि- "विराजमानमूर्धनि" मूर्धनि अर्थात आपका मस्तिष्क मूल!!शिखा-स्थान!! जैसे कि #ऐंटिनाॅ न जाने कितनी दूर से प्रसारित हो रहे चित्रों और समाचारों को संगृहित करता है और आपके #संयन्त्रों पर भेज देता है!! जैसे कि नेट के द्वारा प्रक्षेपित आप इन निबंधों को पढ रहे हो!!

हे प्रिय!!यह शिखा गंगा का मूर्धन्य स्थान है!! ये गोमुख है!!प्राचीन कालमें और अभी भी यहाँ के केशों को एकत्रित कर गाँठ लगाने की जो परम्परा है!! अथवा जो हम स्त्रीयाँ भी यहीं पर कसकर जूड़ा बाँधती हैं!!इसके शास्त्रीय महत्व को तो आप छोड़ो बस वैज्ञानिकीय रहस्यों को ही आप देख लो!!मूर्धन्य ही वह स्थान है,जिसके ठीक नीचे दक्षिण नेत्र की तरफ बड़ा मस्तिष्क बाँयी ओर छोटा मस्तिष्क तथा ठीक नीचे एक रंगहीन गाढे से द्रव से भरी नेत्राकार गृन्थि!!

और हे प्रिय!!इसी गृन्थि में तो आकर दोनों मस्तिस्कों के तार जुड़े हैं!!और दोनों मस्तिष्क पूरी काया से जुड़े हैं!!और जितनी यह गृन्थि कसी हुयी होगी उतनी ही स्फुर्तिवान होगी!!और यह अद्भुत रहस्यमय  गृन्थि है-
"विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि"

और अब पुनश्च इस श्लोकके में मैं आपसे "धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके"-को समझना चाहूँगी!!इसी श्लोक की पिछली पंक्ति में दशानन ने कहा था कि- "विराजमानमूर्धनि" अर्थात मूर्धनि स्थल की,शिखा स्थल की,अमृत-कलश स्थली की चर्चा की थी और अब वो "ललाट"की विवेचना करते हैं!!

इसके पूर्व मैं एक श्लोक उद्धरित करना चाहूँगी- #अहिल्या_द्रौपदी_तारा_कुन्ती_मन्दोदरी_तथा।
#पंञ्चनाम_स्मरै_नित्यै_नित्यैताःमोक्षदायिकाः।।
(१)=अहिल्या-गौतम-और-ईन्द्र के वृत्तान्त को आपने सुना ही होगा!!
(२)=द्रौपदी के पाँच पती थे!!
(३)=तारा के प्रथम पती बाली और फिर सुग्रीव थे!!
(४)=कुन्ती के पुत्र विवाह पूर्व सूर्य थे!!
(५)=और मन्दोदरी रावण की पत्नी थीं और बाद में विभीषण की भी!!
और इन्हे पंच-कन्या अर्थात अक्षत-कन्या ऋषियों ने कहा है!!

हे प्रिय!!एक ज्वलन्त प्रश्न है कि हमारे ऋषियों को गार्गी,मैत्रेयी,मृदालसा, लोपामुद्रा,अश्वघोषा जैसी ऋषिकाओं के नाम क्या नहीं आते थे जो उन्होंने इन्ही पंच नामों को सर्वोच्च स्थान दिया ?

आप स्मरण रखें कि जबतक इन रहस्यमयी कथाओं के मर्म को हम-आप नहीं समझेंगे तबतक न तो हमारे नेत्र खुलेंगे और न ही विश्व का तथाकथित शिक्षित समाज हमारी संस्कृति को समझ ही पायेगा!!आओ आप जरा इस ललाट-पट्ट को भी तो देखो-
#ऊल्टा_कूंवा_गगन_में_जिसमें_जलै_चिराग।
#जिसमें_जलै_चिराग_बिना_रोगन_बिनु_बाती।
#छह_ऋतु_बारह_मास_रहै_जरतै_दिन_राती।।

आपके मूर्धनि-स्थलि पर ऊल्टा रखा वह अमृत-कलश!! जिसकीं बूंदे सिधे कुण्डिलिनि के मुख में टपकती हैं!!जैसे स्वाती की ओस के तीन कार्य हैं-
(१)=पपीहा की प्यास बुझाती है।
(२)=बाँस में गिरती है तो #बंशलोचन बन जाती है।
(३)=और सीप में गिरी तो अमूल्य #मुक्ता।

हे प्रिय!!द्वादश वर्षों में एक बार और वो भी कुछ घड़ियों के लिये ही "गंगा-यमुना-सरस्वती के"संगम -प्रयाग में कोई ईन्द्र का पुत्र #जयंत ही अमृत की बूंदे टपका सकता है!!और ध्यान दें!!यह वही जयंत है जिसे मेरे राम ने #रामबाण मारा था!!

अब यदि कुण्डलिनी का मुख ऊर्ध्वमुखी होगा तो अमृत की बूंदों के रथ-पर वह आरूढ होकर स्पन्दनों के प्रहार से ऊर्ध्वगमन करेगा!! #अमृत हो जायेगा!!
अन्यथा इस अमृत का हलाहल विष तो बनना निश्चित ही है!!

हे प्रिय!!बारह वर्षों तक अर्थात प्रगाढतम एकाग्रता के साथ जो सतत प्रयत्नशील हैं!!वे ही कभी अनायास ऊर्ध्वीकरणात्मक प्रक्रिया को सम्पन्न कर लेते हैं!! और यदि ऐसा होता है!!आप गंभीरतापूर्वक ध्यान दें!!आपका मूलाधार तो एक ही है!!और ह्यदय तथा ग्रीवा भी एक ही है!!

किंतु क्रमशः एक एक चक्रों का भेदन होते हूवे जब आप सरस्वती चक्र पर आते हैं तो यहाँ पर ऊपर से आ रही अनंत अमृतमयी ऊर्जा और आपकी यह नीचे से आ रही उर्ध्वगामी उर्जा के अंतः स्पर्श जनित महा विष्फोट से आप ब्रह्मा,कार्तिकेय, दशानन,विष्णु अथवा विराट्-पुरूष अनंत शिरों,अनंत मूर्धनि और अनंत सहस्रार पुरुष बन जाते हैं!!

और भी जब आपकी प्राण-अपान और समान रूपी त्रिवेणी,प्रयाग,काशी का शिव-त्रिशूल अर्थात " "लल्ललाटपट्टपावके" में ढँकी पड़ी अखण्ड ज्योति पर रखा आवरण हटजाता है तो-
"धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके"
देदीप्यमान ललाट धधक उठता है!!

और हे प्रिय!!जब यह ललाटपट्ट प्रज्वलित हो जाता है!!धधक उठता है तो दशानन कहते हैं कि-" किशोरचंद्रशेखरे" ऐसे किशोर अर्थात जो न तो शिशु हैं,और न ही युवा!!वो तो पौरूषेय शक्ति-सम्पन्न ब्रम्हचर्यात्मकीय उर्जा से युक्त और चन्द्रमा के समान शीतल ऋतसोमात्मकीय उर्जाओं को लेकर ऊपर आये हैं!!

और जो ऐसी अद्भुत रति क्रियाओं के विज्ञाता विशिष्ट योगी जनों- "रतिः प्रतिक्षणं ममं"की सदैव ही स्तुति दशानन जी करते हैं!!हाँ प्रिय!! यह "पृथिवी-सूर्य और चन्द्रमा" के संयोग की अद्भुत और अद्वितीय कथा है!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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