Thursday 13 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~४ अंक~४

#जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
             #कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
#मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
         #मनो विनोदमद्भुतं_बिंभर्तु_भूतभर्तरि ॥

दशानन पुनः कहते हैं कि-'जटा भुजंग पिंगल " जिनकी जटाओं के मध्य पिंगल वर्णके असंख्यों भुजंग अठखेलियाँ ले रहे हैं!!कदाचित ऐसे ही रहस्यात्मक पंञ्क्तियों के अर्थ को न समझ-पाने के कारण हमारी भोली-भाली सखियाँ तथा भक्त समुदाय भी #शिव_रहस्य को अंधश्रद्धात्मक दृष्टियों से देखती हैं!!

हे प्रिय!!मैं इस अद्भुत श्लोकान्तर्गत यह अवस्य ही कहूँगी कि यह अंतःयात्रा के साथ-साथ अपने आप में एक #उपनिषद भी है!!आप यह स्मरण रखें कि-
कृष्ण को मीरा,गोपियाँ,राधिका ही समझ सकती हैं!!
राम को केवट,हनुमान,शबरी और जटायु ही समझ सकते हैं!!बुद्ध को आनंद और महावीर स्वामी को समझने लिये अग्निभूत बनना पड़ता है!!

अन्यथा तो आप ऐसे ही मूर्तियाँ गढते रहोगे और कल्पनाओं के लोक में विचरण करते हुवे शिव को गाँजा,भाँग और धतूरे खिलाते रहोगे!!इस संदर्भ में मैं आपको एक बात कहूँगी!!आपने #टेलोपैथी का नाम अवस्य ही सुना होगा!!

अर्थात एक ऐसी कक्षा जहाँ आप किसी के मस्तिष्क को पढ सकें!!उसके भीतर चल रही हलचलों और नाना प्रक्रियाओं को समझ सकें!!और जब हम-आप अपने भीतर ही नहीं उतर सकते तो भला राम,कृष्ण, शिवऔर कबीर को क्या समझेंगे!!

हे प्रिय!!शिवताण्डवस्तोत्र हो अथवा उपनिषद!!यहाँ तक कि मैं तो यही समझती हूँ  कि अनन्य #समाधि में डूबकर ही मैं यह लिख सकती हूँ और आप इसे पढ भी सकते हो!!अन्यथा तो कोरे कागजों पे सभी लिखते और पढते ही हैं!! हाँ!!मैं बिल्कुल यही कहना चाहती हूँ कि आपको शिवताण्डवस्तोत्र पढना है!!तो दो बातें हो सकती हैं-या तो आप तोते की तरह पढ लो!! और या तो आपको "दशानन"बनना होगा!!

और दशानन आप तभी बन सकते हो!!जब आप शिव के समीप बैठो!!शिव के समीप बैठना और अपने समीप बैठना एक ही बात है!!मैं आपको इस अद्भुत स्थिति का थोड़ा सा अपनी मन्द बुद्धि!!और मन्द-बुद्धि अर्थात धीमी गति से स्वावलोकन कर रहे प्रज्ञा-चक्षुओं से इसे बताने का प्रयास करती हूँ!!

हे प्रिय!!जब #शिव अर्थात योगिराज अपने भीतर उतरते हैं!!जब वे ऊर्ध्वीकरणात्मक योगों के द्वारा ब्रम्हाण्ड में विचरण करते हैं!!अपने शिरोभाग में विचरण करते हैं!!तो अनेकानेक उनकी #नव_नाग रूपिणी वृत्तियाँ जो कि विषयात्मिका थीं!!भुजंगों के समान घातक थीं!!वे यहाँ प्रवाहित हो रही गंगा में स्नान कर विषहीन और अमृतमयी हो जाती है!!

#पिंगल अर्थात यह गंधर्वों की भाषा है!!यह #चित्ररथ_और_पुष्पदन्त की भाषा है,हाँ यह कामाख्या -देश अर्थात शिवा की भाषा है-" जटाभुजंग पिंगल"जब आपकी सांसारिक विषयोन्मुखी वृत्तियों के सर्प अंतर्मुखी होकर अपने आपको देखती हैं तो-" स्फुरत्फणामणिप्रभा"

वे कर्णेन्द्रियों के द्वारा अनाहद-नाद सुनती हैं!!
वे नासिकाओं से पृथ्वी की सौंधी सुगंध लेती हैं!!
वे नेत्रों से झिलमिलाती ज्योति को देखती हैं!!
वे जिभ्ह्या से अमृत-पान करती हैं!!
वे त्वचा से अंतःस्पर्शानुभूति करती हैं!!
वे अपने हाँथों से ब्रम्हाण्ड को तौलती है!!
और वे अपने पाँवों से पर्वत शिखर पर चढ जाती हैं!!

और हे प्रिय!! जब ऐसी वृत्तियों की स्थिति होती है तो- "स्फुरत्फणामणिप्रभा"आपके प्रकाश से सभी दिशायें,दिग्-दिगान्तर प्रकाशित हो जाती हैं!!आप दिव्य प्रकाश में स्नान कर लेते हैं और ऐसे #रश्मि_स्नान करने से-

" कदंबकुंकुमद्रव" मानों अरुणोदय के सूर्य की कुंकुम वर्णीय आभा से, आपकी समस्त चित्त-वृत्तियाँ रक्ताभ अर्थात मानों  मोह-निशा से जागने के बाद नूतन कलेवर धारण कर लेती हैं!!बस अभी सूर्योदय होने ही वाला है!!हाँ प्रिय यह अंतःसूर्योदय कालीन का मनोहारी वर्णन है!!और हे प्रिय-
#द्वैतस्याग्रहणं_तुल्यमुभयोः #प्राज्ञतुर्ययोः  ।
#बीजनिद्रायुतः #प्राज्ञः #सा_च_तुर्ये_न_विद्यते  ॥

लेकिन इस लेखनी और श्रवण अथवा बाह्य अध्ययन-अध्यापन से अतीत अर्थात मेरे और आपके इस द्वैत भाव हे रहित यह पंक्ति ही वास्तविक स्थिति में प्रज्ञा का विषय है!!और जैसे कि पृथ्वी के गर्भ में कोई बीज सोता रहता है!!और जब समय-स्थितियाँ और संयोग मिलता है!!जब संस्कार जागते हैं तभी ऐसी प्रज्ञानमयी मेरी आपकी विचारधारा बन पाती है!!

और हे प्रिय!!ऐसी विचारधाराओं के बनने से भी तुर्याऽवस्था की प्राप्ति नहीं होगी!!प्राप्ति तो अंतःसूर्योदय से ही होगी!!जब आपकी चेतना अंतर्मुखी होकर अपनी जटाओं में विचरने लगेगी!!तो निःसन्देह आपमें भी "दशानन"की तरह एक पराचैतन्य उर्जा का शक्तिपात होगा!!

मेरे एक विद्वान और विद्यावान भाई हैं- #ठाकुरजी !!
उन्होने कभी मुझसे #हमजाद के विषय में पूछा था!! और मैंने कहा था कि हाँ!!मैं छाया-पुरूष को सिद्ध कर चुकी हूँ!! हो सकता है कि वो मेरे इस अंक को पढें तो उन्हे भी #हमजाद"सिद्ध हो जायेगा!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

और हे प्रिय!!अब पुनश्च दशानन कहते हैं कि-
"मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे"मैं इसे आपसे समझने का प्रयास करती हूँ!!और इस हेतु आप ये तो सोचो कि जब आपकी स्वांसों की धौंकनी चलती है!! किसी पवन चक्की की तरह चलती इस धौंकनी को आपने देखा है ?

ये आपके भीतर चलती है!!और जब ये धौंकनी चलेगी,जब ये पवन चक्की चलेगी,तो लोहा अर्थात आपका यह शरीर तो इसकी उर्जा से तप्त हो जायेगा! अर्थात इस पवन-चक्की से बन रही उर्जा आपको सतत स्पन्दित भी करेगी और तप्त भी करेगी-
#कभी_चलै_अवणो_कभी_चलै_सीधो।
#कोने_बनायो_पवन_चरखो।।

आपने कभी अपने मद से गर्वित गजराज को मस्ती में झूमकर चलते हुवे देखा है ?
आपने कभी उस मस्त गजराज के चलने पर उसकी थिरकती हुयी त्वचा को देखा है ?
एक एक कदम पर उसकी समूची त्वचा ऐसे थिरकती है कि जैसे किसी नर्तकी का समूचा अस्तित्व!!

एक अलौकिक योगिक रहस्यात्मक भेद है इस दशानन कृत पंक्तियों में!!दशानन ने कहा है कि-
"रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे" शिव ने मतवाले हांथी के हिलते हुवे उत्तरीय-वस्त्र को धारण किया है!! अब आप ही सोचो कि-

(१)=जीवित हांथी के वस्त्र हैं!!तभी तो हिलते हैं!!
(२)=जीवित हांथी के वस्त्र भला कोई कैसे पहनेगा ?
(३)=वस्त्र भी दो होते हैं-अधो-वस्त्र और उत्तरीय!!
(४)=अधो-भागमें आपने मृगछाला पहनी है!!
(५)=और व्याघ्रासन पर शिव विराजमान हैं!!

हे प्रिय!!ऐसा ही आपने पढा भी होगा कि-
#पशूनांपती_पाप_नाशम्_परेषम्,
         #गजेन्द्रस्य_कृत्तिम्_वसानं_वरेण्यम।
इस पंक्ति को समझने हेतु अगली पंक्ति पर भी जरा दृष्टि डाल लें- "मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि"

मतवाले हांथी के हिलते हुवे उत्तरीय-वस्त्र को धारण करने के कारण जिनका वर्ण अर्थात रंग धृत के समान स्निग्ध हो चुका है ऐसे #भूतनाथ!!अब आप ही सोचो धृत का रंग तो हो सकता है!!
किन्तु #स्निग्धता का भी कोइ रंग होता है ?
नहीं होता न!!

मैं किन्हीं दूसरे भूत-प्रेतों को तो नहीं जानती,किन्तु पाँच महाभूतों को थोड़ा-थोड़ा जानती हूँ!!ये आपके पृथ्वी, जल,तेज,वायु और आकाश से बड़े कोई दूसरे महाभूत- भविष्य और वर्तमान हो भी नहीं सकते!! और ये पंच महाभूत ही तो "मदांध-हस्ति चर्म ,और मृगछाला"भी हैं!!

हे प्रिय!! आप जरा विचार करना!!वायु और आकाश का कोई रंग है ?
आप जरा ध्यान से अग्नि को देखें!! अग्नि की ज्वाला जिस बाती से प्रकट होती है,उस बाती और ज्वाला के मध्य अवकाश होता है!!और उस अवकाश का कोई भी रंग है ?
और जल का भी कोई रंग है ?

हाँ है न!! दाहकता,शीतलता,कठोरता,मृदुलता और स्निग्धता ही इनका रंग है!!और यही इनकी जाति रूपी वर्ण भी है!! दशानन जैसे वेदज्ञ सामान्य वर्णन नहीं करेंगे!!वे तो गागर में सागर भर देते हैं!!ये तो उनका अलौकिक स्वानुभव है!!वे इसी में रमण करते हुवे कहते हैं कि-"मनो विनोदद्भुतं"

ये आपका पद्मासन ही मृगचर्म है!!किन्तु तब जब आप व्याघ्रासन पर बैठे हों!!अर्थात आपने हिंसा पर विजय पा ली हो!!और यदि किसी ने व्याघ्रासन का अर्थ चमणे से लगा लिया तो चमणे कीं आँखे तो चमणा ही देखेंगी न!!और हे प्रिय!! मन की गहेराइयों में छुपी हिंसा का त्याग करने पर ही पद्मासन सिद्ध होता है!!और ये मृगी अर्थात कुण्डलिनी अथवा आपकी योग-शक्ति ही आपका अधो-वस्त्र है!!

और इस अधो-वस्त्र के ऊपर स्वाँच्छोवास के साथ नृत्य करता आपका मध्य-शरीर!! किसी मदमस्त हांथी के समान स्पन्दित होता है!! किन्तु स्मरण रखें कि शिरोभाग स्थिर ही रहता है!!वस्त्राऽवरण विहीन!! बिलकुल दिगाम्बर!!

हे प्रिय!!ये स्तोत्र रत्न अपने आपमें पूर्णतया पतंजली अष्टांड़्ग योग सूत्र का एक संक्षिप्तिकरण है!!एक यौगिक संस्करण है!!मैं आशा करती हूँ कि आप इसके भावों के द्वारा इस अद्वितीय कृति के महत्वपूर्ण लक्ष्यों का अवस्य ही समझ रहे हैं!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

1 comment:

  1. सादर चरण वन्दन माँ।

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