Thursday 13 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम् ~३

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~३

#धराधरेंद्र_नंदिनी_विलास_बंधुवंधुर-
              #स्फुरदृगंतसंतति_प्रमोदमानमानसे ।
#कृपाकटाक्षधारणीनिरुद्धदुर्धरापदि
             #क्वचिद्विगम्बरे_मनो_विनोदमेतु_वस्तुनि ॥

और हे प्रिय!!पुनः दशानन जी कहते हैं कि-
"धरा धरेंद्र नंदिनी" इस धरा को धारण करने वाले हिमालय की नंदिनी कह लें आप अथवा समुद्र-मंथन से समुद्र से उत्पन्न कन्या को कह लें अथवा आप "नंदिनी" अर्थात परमानंद दात्री लक्ष्मी अर्थात "माम्-लक्ष्य-दात्री" को कह लें!!

और आगे भी इसी स्तोत्र में कहते हैं कि-
"धरा धरेंद्र नंदिनी #कुचाग्र_चित्र_पत्रक।
#प्रकल्पनैकशिल्पणित्रिलोचनेमतिर्ममः।।
चलिये मैं किन्तु फिर भी गीता प्रेस गोरखपुर की लीपि को ही मानकर आपसे चर्चा करती हूँ-

गिरिराजकिशोरीजी की विलासकालीन शिरोभूषण से अर्थात-" धराधरेंद्रनंदिनीविलासबंधुवंधुर"अब यह तो स्पष्ट ही है कि यह दशानन कृत शिवताण्डवस्तोत्र विशुद्ध कौलाचार पर आधारित है!!कोई कुलाचार का ज्ञाता दशानन,जयदेव,मुद्गल,पाराशर जैसे आचार्य ही शिवा को अपनी माँ जानते हुवे भी अपने पिता अर्थात शिव-शिवा की अंतरंग लिलाओं का वर्णन कर सकते हैं!!

हे प्रिय!!ये शिव और शिवा ही तो परस्पर बन्धु हैं!! सखा-सखी हैं!!राधिका-कृष्ण हैं!!पुरूष-प्रकृति, भैरव-भैरवी हैं!!और उनके विलास जन्य काम-त्रिकोण अर्थात ♡ योनि से ऊपर और अंतःस्तन मध्य में स्थित विशाल काम-उर्जा के मर्षण से " स्फुरदृगंत" दशों दिशाओं से आ रही उस अद्भुत अंतःक्षरित स्राव रूपी रश्मि-रथ पर आरूढ होकर जो उर्ध्वरेता होते हैं!!

आप स्मरण रखें कि-"शिव-शिवा और राधा-कृष्ण"के विलास जन्य आख्यानों से पुराण तथा तंत्रोक्त गृंथ भरे पड़े हैं!!ऋषियों ने कभी भी इन यौगिकीय क्रियाओं को निन्दित दृष्टि से नहीं देखा!!किन्तु वो तो हमारी मध्यकालीन पुरुषवादी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं और पारस्परिक धार्मिक और सामाजिक संस्कृतियो का सम्मान न करने के कारण उत्पन्न हुवे विवादों ने हमारी वैदिक परम्पराओं को मात्र और मात्र कर्मकाण्डात्मक तथा जातिवादी,वर्णवादी और लिंगवादी,क्षेत्रवादी,आर्य-अनार्य वादी बनाकर अपभृंश कर डाला!!विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया!!

और इसके मूल में तद्कालीन हों अथवा समकालीन कुछेक भ्रष्ट तांत्रिक समुदाय का भी सबसे बडा योगदान रहा!!जिन्होंने भैरवी-चक्र,पंञ्च-मकार,मारण मोहनादि षट-कर्मों को ही प्रधानता दी!!उन्होंने इस संयोग को #संभोग बना डाला!!और संभोग से समाधि की व्याख्या को ही बिलकुल विकृत करके अश्लीलता ही समाज को परोस दी!!

हे प्रिय!!आप जरा इन लोगों से पूछना कि-
(१)=शिव-शिवा की संयुक्त संतान कोई है ?
(२)=राधा-कृष्ण की संयुक्त संतान कौन है ?
(३)=विष्णू-लक्ष्मी की कोई संयुक्त संतान हैं ?
(४)=ब्रम्हा और सरस्वती की कोई संयुक्त संतान हैं ?

ये सभी तो #आनंदभैरव_और_आनंदभैरवी हैं!! आपने शिव-पुराणादि में एक आख्यान सुना होगा कि #कैलाश अर्थात शिव-शिवा के #केलि_आवास में किसी भी पुरुष का प्रवेश वर्जित है!!मात्र स्त्रीयों का ही प्रवेश वहाँ संभव है!!

मधुवन के महारास में मात्र गोपियों का ही प्रवेश होता है!!और ब्रह्मादि सभी देवगण गोपियों के रूप में प्रवेश पाते हैं!!और देवी लोक में भी सभी देवियाँ ही हैं!! अर्थात इनका मर्म यही है कि पुरुष तो एक ही #पुरूषोत्तम हैं!!और सभी स्त्रीयाँ ही हैं!!

अतःआप यह निश्चित रूपसे समझ लें कि जिन्होंने काम-त्रिकोण पर विजय पा ली!!वही कुलाचार अथवा वेदोक्त ऋचाओं के मर्म को समझ सकते हैं!!और वही दशानन की तरह "शिव-शिवा"के संयोगों के प्रत्यक्षदर्शी भी हो सकते हैं!!अन्यथा तो इन सूत्रों में अश्लीलता ही दिखेगी!!

और मैं चाहूंगी कि आप एक बार पाठ-भेदात्मक स्तोत्र की पंक्तियों को भी देखें-
"धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रकः।
प्रकल्पनैकशिल्पणित्रिलोचनेमतिर्ममः।।
त्रैलोक्य सुंदरी कामेश्वरी जिनके अंक में हों!!और उस अकल्पनीय सौन्दर्यबोध को जैसे कोई चित्रकार,कोई अजंता और ऐलोरा का अप्रतिम शिल्पकार निष्काम, निर्विशेष दृष्टि से!!

किसी पाषाण-प्रतिमा को गढने हेतु उनके कुचाग्रादि अंगों पर अपनी तूलिका से चित्र निर्मित करता है!! अर्थात उसमें वासना तो हो ही नहीं सकती!!उसकी दृष्टि में तो यह सौन्दर्य-साम्राज्ञिनी भोग्या न होकर मात्र एक पाषाण-खण्ड हैं!! जिसपर वे अपनी अद्भुत कालजयी रचना को उकेर रहे हैं!!

और हे प्रिय!!ऐसे शिल्पी जिनका एक नेत्र शिवा में वात्सल्य ढूंढता है!!द्वितीय नेत्र उनका अपनी शिवा के सौन्दर्य को सँवारता है और उनका तृतीय नेत्र अपनी शिवा से अपनी साधना की गहेराइयो की सिद्धि करता है!!ऐसे त्रिलोचन मेरी मति को ऐसे ही प्रकाषित करें!!

दशानन पुनश्च कहते हैं कि- "स्फुरदृगंतसंतति" शिव अर्थात महर्षिगण जानते हैं,समझते हैं और स्वीकार भी करते हैं कि शिवा अर्थात इस अष्टधा प्रकृति का निर्माण सृष्टियों के सृजन हेतु ही हुवा है!! और प्रकृति #एकोऽहम_बहुस्याम_प्रजायेयम।

अतः हे प्रिय!!योगिराज शिव कभी भी अपनी प्रजाओं
को सृष्टि-सृजन करने से रोकते नहीं!!सृष्टिके कि #ऐषणश्च शिव की ईच्छा ही थी- कुलाचार अर्थात वैदिक ऋचाओं के ज्ञाता होते हैं-"सुतपा"
अब पुनः दशानन कहते हैं कि- "कृपाकटाक्षधारणी"
जो शिव सदैव ही कृपा-कटाक्ष धारी हैं!!और यह पंक्तिहम सभीके लिये अत्यंत ही विचारणीय है!!
मैं अपने आपसे पूछती हूँ कि मैं मंदिर क्यूँ जाती हूँ?
मैं तप,जप,तीर्थ,व्रत,यज्ञ,हवन,पूजन क्यूँ करती हूँ  ?
मैं भक्तियोगवेदान्तों का अध्ययन-अध्यापन क्यूँ करती हूँ  ?
मैं किसीको सन्मार्ग पर लानेका प्रयास क्यूँ करती हूँ  ?

हे प्रिय!!कहीं इन सबके पीछे मेरी महत्वाकांक्षाओं, सांसारिक पदार्थों,शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करने की अथवा शारीरिक कष्टों और व्याधियों से मुक्त होने की भावना तो नहीं है  ?
और यदि ऐसा है!!तो यह मेरी अथवा आपकी सबसे बड़ी भूल और अक्षम्य अपराध ही है!!

ये कटाक्ष बड़ा ही विचित्र शब्द है,जैसे कि उपहास!! मुझे स्मरण है कि मैं जब छोटी सी थी,तो मेरे एक बाबा के साथ मेले में गयी थी,वहाँ पर सजी-धजी मिठाइयों की दुकानें,खिलौने,झूले,हिंडोले,सर्कस, चूड़ियाँ देखकर मैं मचल गयी!! मुझे भी दिला दो बाबा!!मैं झूला झूलूंगी,चूड़ियाँ लूंगी!!और उन्होने मुस्कुराते हुवे मुझे देखा!! मेरी सभी इच्छायें पूरी कर दीं!!

किंतु उस एक छण के लिये जो उन्होंने मुझे देखा, जिस उपहासात्मक दृष्टि से देखा,कृपामयी दृष्टि से देखा!!जो कृपा-कटाक्ष किया!! वो दृष्टि मुझे आज- तक किसी खंजर की तरह चुभती है!!हाँ प्रिय!! सांसारिक सम्बन्ध हों अथवा आध्यात्मिक पथ,इन दोनों ही मार्गों में जो हम-आप अपेक्षायें लेकर चलते हैं!!और जब हमारी अपेक्षायें पूरी नहीं होतीं तो सांसारिक सम्बन्ध हों अथवा "गुरू-शिष्य"के सम्बन्ध हों-ये सबके सब रिश्ते किसी कच्चे सूत की तरह टूट जाते हैं!!आस्थायें छिन्न-भिन्न हो जाती हैं!!

हे प्रिय!!मुझे भी कई लोग सिद्ध और साध्वी समझते हैं!!और इसी भ्रम में मुझसे अपनी सांसारिक मनोकामनाओं और बाधाओं के निवारणार्थ जुड़ जाते हैं!!मुझसे दिक्षा लेते हैं किन्तु पुनश्च उनकी सांसारिक ईच्छायें प्रकट होती हैं!!और आप यह स्पष्ट जान लें कि मैं आपकी आध्यात्मिक सहचरी हूँ!!आपकी आध्यात्मिक पथ प्रदर्शिका हूँ!!

आप मुझसे "कृपा-कटाक्ष"की कामना रखेंगे!!तो आज नहीं तो कल आपका मन मुझसे जरूर ही हट जायेगा!!और पुनश्च आप किसी अन्य गुरू,संत,देवी, देवता,मतों और पन्थों की तलाश में निकल पड़ोगे!!हे प्रिय!! यदि आपको सांई-बाबाकी तलाश है,यदि आपको निर्मल-बाबा की तलाश है!!तो आप मुझसे तत्काल ही सम्बन्ध तोड़ लें!!इसी में आपका तात्कालिक हित निहित है!!अन्यथा आपका मुझसे मोह-भंग होना निश्चित ही है!!

दशानन ने यही तो चाहा-"कृपाकटाक्षधारणी" कृपाकी कामना की,सुवर्णमयी लंका की कामना की, पृथ्वी के साम्राज्य की कामना की!!इसी शरीर के अमरत्व की कामना की!!और परिणामतः भले ही उसने परमपद को पाया किन्तु इतिहास के पन्नों में वह वेदज्ञ,तपोमूर्ति,विश्वविजेता अतूलनीय शक्तियों का स्वामी होते हुवे भी,कुलीन ब्राह्मण होते हुवे भी!! #असुर नाम से ही प्रसिद्ध हुवा!!

दशानन पुनः कहते हैं कि हे शिव-" निरुद्धदुर्धरापदि" आप मुझपर आने वाली विपत्तियों से मेरी रक्षा करो!!आपत्तियों और बाधाओं को मिटा दो!!और आप इसमें सक्षम भी हो!! और हे प्रिय!! मैं भी यही कहना चाहती हूँ कि भक्त और मुमूक्ष में यही भेद है!!मैं रावण को शिव-भक्त कहने की अपेक्षा #मुमूक्ष कहना ज्यादा उचित समझती हूँ!!

और इसका कारण भी यही है कि-मुमूक्ष अर्थात कामनायें तो हैं ही!!और भक्त तो कामनाहीन होते हैं!!उन्हे भुक्ति-मुक्ति की अपेक्षा होती ही नहीं!!वे तो कष्टों से मुक्त होने अथवा सुखों की अपेक्षा रहित होते हैं!! वे जानते हैं कि इन मृगतृष्णाओं की त्रास अंततः संत्रास ही देगी!!

और आप देखें तो-"क्वचिद्विगम्बरे मनो" #तीन_लोक_बस्ती_में_बसाये_आप_बसे_वीराने_में।।
किन्तु पुनश्च ऐसा कहते-कहते दशाननकी लेखनी भी हठात रुक जाती है!!जैसे कि वो तंद्रा से जाग जाता है!!उसका अंतःकरण कहता है कि "ना!!" ऐसी आकाञ्छाये पाल कर क्या भला होगा मेरा  ?

और वो कहते हैं कि मेरी ईच्छाये "दिगाम्बर"हों!! अर्थात सर्वथा दशों-दिशाओं में ब्याप्त और मेरा मन जहाँ-जहाँ तक भी जा सकता है!!भ्रमण कर सकता है!!विचार और कामनायें कर सकता है!! ऐसे आवरणों से हीन जो परमार्थ तत्त्व है!!उसी परमतत्व में मेरा मन-विनोद करे!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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