Tuesday 11 September 2018

पितृसूक्त

पितृ-सूक्त मंत्र~१ अंक~१

मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का मैं अपने श्री जी के चरणों में इसकी प्रथम ऋचा प्रस्तुत करती हूँ-

#उदीरतामवर_उत्_परास_उन्मध्यमाः #पितरः #सोम्यासः।
#असुं_य_ईयुरवृका_ऋतज्ञास्ते_नोऽवन्तु_पितरो_हवेषु।।

हे सुधिजन!!ऋग्वेद दशम मण्डल के १५ वें सूक्त की १ से लेकर १४ पर्यन्त की रचनायें पितृ-सूक्त के नाम से विख्यात हैं!! और इसे भी हमारे मंत्र-दृष्टाऋषियों ने पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा के वैदिक सिद्धांतों का अनुशीलन करते हुवे दो भागों में विभक्त किया है!!

प्रथम की आठ ऋचायें जहाँ पात्रों को आमंत्रित करने हेतु !उनका आह्वान करने हेतु हैं!! वहीं अंत की छे ऋचायें अग्नि-देव के प्रति हैं कि वे भी पात्रों को बुला लें!!और उन्हें अपनी पंक्ति में स्थान दें!!उनके साथ हविष्य गृहण करें!!और मैं इस प्रथम अंक में आपसे इसके दृष्टा-संदर्भ में ये बताना उचित समझती हूँ कि इस सूक्त के ऋषि #शञ्ख_यामायन हैं!!

वे कहते हैं कि-"उदीरतामवर उत् परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः"नीचे-ऊपर तथा मध्यस्थानों में रहनेवाले #सोमपान करने के योग्य सभी हमारे पितर उठकर तैयार हों!!अर्थात ये तो निश्चित है कि "सोमपान"के अयोग्य पितर भी हैं!!और यदि अयोग्य हैं तो क्या और कैसे मैं उन्हें इसके योग्य बना सकती हूँ ?

एक परम्परा रही है कि मैं अपने पूर्वजों को श्रेष्ठ ही मानती हूँ चाहे वो धुँधुकारी ही क्यों न हों!!मैं सदैव उन्हें स्वर्गवासी ही कहती हूँ!! कभी किसी ने आज तक यह नहीं कहा कि मेरे पितर नर्कवासी भी हो सकते हैं!!वैसे ये प्रार्थना करूँगी कि आप ऋग्वेदोक्त•१०•१६•५•को अवस्य ही देखें......
#अव_सृज_पुनरग्ने_पितृभ्यो_यस्त_आहुतश्चरति_स्वधाभिः
#आयुर्वसान_उप_वेतु_शेषः #सं_गच्छतां_तन्वा_जातवेदः।।

हे प्रिय!!जब मैं ये शरीर त्याग दूँगी-तो पँञ्च-तत्व तो अपने आपमें मिल जायेंगे!! किन्तु #मैं अर्थात जातवेदा जीवात्मा ,तो रहूँगी ही!!चलो आप पूर्वजन्मों के सिद्धांत को नहीं मानते!!स्वर्ग और नर्क को नहीं मानते!! तो बिलकुल भी मत मानो!! किन्तु प्रकारान्तर से आपने ये तो मान ही लिया कि "मैं" हूँ!!

और यदि मैं हूँ तो मेरे अच्छे या बुरे पितर भी हैं!!ये जो कुछ लोग अभी पितृपक्ष में #तर्पण करने की सोच रहे हैं!!वे अंधविश्वासी हो सकते हैं!! शायद आप उन्हे पौराणिक भी कह सकते हैं!! किन्तु वेदोक्त ऋचायें इस संदर्भ में बिलकुल स्पष्ट और सार्वभौमिक हैं!!और वैसे भी मुस्लिम हों या ईसाई सभी ने प्रकारान्तर से पुनर्जन्म को स्वीकार किया है!!

हे प्रिय!!जब पात्रों का आह्वान आप करते हो!!तो करने के पूर्व आपको उनके अस्तित्व को प्रथम स्वीकारना होगा!! जैसे कि आपने मुझे पुकारा या मेंशन किया- "सुतपा!!!! तो मुझतक आपकी पुकार तो पहुँची!! कैसे पहुंची ?

इस आभासी शोषल मीडिया में जब आपकी आवाज मैं यहाँ असम में बैठी सुन सकती हूँ!! इस नेटवर्क के द्वारा सुन सकती हूँ!!आप मुझे न जाने कितनी दूर बैठे पढते हो!ये दूर कुछ की•मी• या सैकडों हजारों मिल दूर हो सकती है!! तो लाखों अरबों कीलोमीटर क्यूँ नहीं हो सकती ?

पुनश्च कहते हैं कि-वे पितर खङे हों,जो सोमपान के अधिकारी हैं!!और वैसे तो लोगों ने यह भी सोच रखा है!!और एक मिथ्या-धारणा भी बना रखी है कि "सोमरस"अर्थात #मद्य हे नये मद्य तो है किन्तु "शिवसंकल्पित मद्य"और आप विश्वास रखना कठ•१••१•६•के इस मंत्र पे-
#सस्यमिव_मत्र्यः #पच्यते_सस्यमिवाजायते_पुनः।
ये शरीर तो फसलों की तरह उगता है,पुष्ट होता है,मरता है और फिर से उगता है!!

किन्तु सोमरस-पान की ईच्छा हेतु ही आप और आपके पितर भटकते रहते हैं!!
पितृ-सूक्त मंत्र २~१ अंक~२

#मैं_कभी_काँटा_बनकर_उत्पन्न_हुयी_होऊँगी_और_उसे_चुभी_भी_होऊँगी!!

।।पितृपक्ष में विशेष प्रस्तुति ।।
मेरे प्रिय सखा तथा प्यारी सखियों!!अपने पितृ-गणों को समर्पित करती हुयी इस श्रृंखला का अपने श्री जी के चरणों में इसकी द्वितीय ऋचा मैं प्रस्तुत करती हूँ-

#इदं_पितृभ्यो_नमो_अस्त्वद्य_ये_पूर्वासो_य_उपरास_ईयुः।
#ये_पार्थिवे_रजस्या_निषत्ता_ये_वा_नूनं_सुवृजनासु_विक्षु।। नूतन तथा पुरातन सभी पितृ-वृन्द जो यहाँ से चले गये हैं,अन्य स्थानों में हमसे उत्तम स्वजनों के साथ निवास कर रहे हैं!!जो यम,स्वर्ग,मर्त्य अथवा विष्णु लोकों में निवास कर रहे हैं! !उन सभी को आज हमारा प्रणाम निवेदित हो।

हे प्रिय!!सूक्त में ऋषि का यह कथन मैं जब देखती हूँ तो सोचती हूँ कि उनकी दृष्टि कितनी सर्वकालिक तथा सार्वभौमिक थी!! वे कहते हैं कि-" सुवृजनासु विक्षु"हम आपको प्रणाम निवेदन करते हैं!! आप स्वीकार कर लो!!

आप यह स्मरण रखें कि जैसे हम-आप #जीव हैं वैसे ही हमारे पितृ भी जीव हैं!! उन्हें समझने के लिये मैं अपने स्थूल शरीर से ऊपर ही नहीं उठना चाहती!!तो भला उन्हे समझूँगी कैसे!!ऋचा में कहते हैं कि-"ये पूर्वासो य उपरास ईयुः"जो इसके पूर्व यहाँ से चले गये हैं!!अर्थात हमारे घर से चले गये हैं!!मेरे परिवार, सम्बन्धादि को छोडकर चले गये हैं!!

अपनी इच्छा से गये कि अनिच्छा से गये!!किन्तु चले गये हैं!! उनतक मेरी प्रार्थना पहुंचने की विधि भी ऋषियों ने बतायी है, ऋग्वेद•अ•सू•२• में कहते हैं कि-
#अग्निः #पूर्वेभिर्ऋषिभिरिड्यो_नूतनैरूत #स_देवाँ_एह_वक्षति।।
अग्नि देवता ही देव तथा पितरों से स्तुत्य हैं और वे ही देव तथा पितरों को आपके यहाँ लाने में समर्थ हैं!!

हे प्रिय!!आप प्रथम "यम" तथा #यमलोक को भी समझ लें!! बङी भ्रान्तियाँ पाल रखी हैं हमने-आपने इस संदर्भ में!!"यम"नियमन को कहते हैं अनुशास्ता को कहते हैं!!निष्पक्ष न्यायाधीश को कहते हैं!! और सर्व-प्रथम सोमरस पान का अधिकार यज्ञों में "यमराज"को ही है!!अर्थात ये यम लोक किसी नर्कादि को नहीं कहते!! ये तो अपने न्याय हेतु प्रतिक्षाधीन न्यायालय की एक पीठिका है!!

देश,काल,स्थिति और संयोग जन्य जिन-जिन व्यक्तियों और पशु-पक्षि,कृमि और वनस्पतियों का हमारे जीवन में कभी भी सम्पर्क होता है!!उनका पहले भी हमसे सम्बन्ध हुवा था!! और आगे भी होता रहेगा!! और तो और एक काँटा भी यदि मुझे आज चुभा है तो निश्चित रूप से मैं भी कभी काँटा बनकर उत्पन्न हुयी होऊँगी और उसे चुभी भी होऊँगी!!तभी तो यजु•१२•३६~३९ वीं तक के मंत्रों में कहते हैं कि-

#अप्स्वग्ने_सधिष्टव_सौषधीरनु_रूध्यसे।
गर्भे_सञ्ञायसे_पुनः........
हे प्रिय!!निःसंदेहमैं मानव,पशु,पक्षी,जल,वनस्पति औषधि आदि नाना योनियों में भ्रमण करती रहती हूँ!!तो मेरे पूर्वज भी करेंगे ही!!मैं आपको कुछ सत्य उदाहरण देती हूँ!!मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ!!मुझे मुझपर विश्वास है!!

मैं किसी अंजान नगर में जाती हूँ,या आप ही जाते हैं! तो ऐसा लगता है किन्ही किन्ही स्थानों,गलियों में आप कभी आये थे!! कुछ-कुछ जानी पहचानी सी स्मृतियाँ!! किन्ही व्यक्तियों,बच्चों,स्त्रीयों यहाँ तक कि किन्ही पशु और पक्षियों तक से अचानक अपनापन अथवा शत्रुता का बोध होता है!! और तो और यहीं शोषल मीडिया पर भी आपकी किसी से शत्रुता और मित्रता होती रहती है!!

मुझे स्वयम् की कुछेक पूर्व जन्मों की स्मृतियों का अभी तक बोध है!!कुछेक सम्बन्धों को मैं चाहती न चाहती हुयी भी निभाने को किसी डोर से बंधी कठपुतली की तरह खिंची चली जाती हूँ!!ऋचा में ऋषि कहते हैं कि-"इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो"जो नये पितर चले गये और जो पहले ही जा चुके हैं!!जैसे कि किसी अकस्मात से किसी का निधन हो गया!!उनका शरीर तो पञ्च-तत्वों में मिल गया!! किन्तु जीव कहीं न कहीं गया!!

हे प्रिय!!आपने इस शरीर के साथ क्या किया,यजुर्वेद कहता है कि- #ये_निखाता_ये_परोप्ता_ये_दग्धा_ये_चोद्धृताः।
गाण दिया,जला दिया या जल में प्रवाहित कर दिया! वो तो मिट्टी से बना था और मिट्टी में ही मिल गया!! किन्तु उस शरीर का स्वामी जीव तो पहले ही निकल गया!!

किन्तु यहाँ पर एक रहस्मय बात न कहूँ तो गलत होगा!! चलिये ये तो ठीक है कि आपने पितरों को आमंत्रित कर लिया!!वे यमादि लोकों से आ भी गये!! किन्तु जो मर्त्यलोकों में पुनर्जन्म ले चुके!!किन्ही भी योनियों में आ चुके वे भी आयेंगे!! वो आपके इस आमंत्रण पे कुशा,जल, जौ,तिल,मधु,अक्षत,दूध,धृत, दधि बनकर आयेंगे!!

वे सत्तू,शर्करा,पुष्प,तुलसी,पलाश,सब्जी,फल बनकर आयेंगे!!
हे प्रिय!!वे आपके आमंत्रणपर कौवे,कुत्ते,गाय, अतिथि, भिक्षुक, पुरोहित बनकर आयेंगे!! किन्तु #आयेगे!!

हे प्रिय!! ये अभिवादन करना तो मैं पहले सीख लूँ ?
किसी का सम्मान करना तो मुझे सीखना होगा न ?
किसी को प्याय से निमंत्रित करना तो मुझे सीखना होगा ?अपने से बङों,आप जैसे विद्यावानों,के प्रति मेरा व्यवहार कैसा हो ?

अपने समकक्षके प्रति मुझे कैसे व्यव्ह्रित होना चाहिये ?छोटों के प्रति कैसे मुझमें वात्सल्य का सागर हिलोरें ले!!
ये सबकुछ भी मुझे अपने पूर्वजों से सीखना होगा!! और उसी प्रकार मुझे उन्हें निमन्त्रण भी देना होगा!! निमंत्रण देने के पूर्व उनका अभिवादन करना क्या मुझे आता है ?

मैं आपको इसकी एक अद्भुत विधि बताती हूँ!! हमारी संस्कृति में श्राद्धादि कर्म मात्र नहीं हैं!! अपितु मुझे स्मरण है कि बाल्यावस्था में मैं #बलिवैश्वदेव देखी हूँ!आप ध्यान दें कि कितनी समृद्ध संस्कृति और संस्कार हैं आपके!!

हे प्रिय!!मैं एक गृहस्थ हूँ!!सामान्य गृहिणी!!नित्य प्रति जाने अंजाने में पाप करती ही हूँ!!और इनके दोष-शमनहेतु ऋषियों ने नित्य प्रति पंञ्च-यज्ञों को करने की अनुशंसा की है!!
(१)= #ब्रम्हयज्ञ- वेदादि सच्छास्त्रों का अध्ययन,मनन करना!!तथा आपके साथ उनपे चर्चा करना!! इसे ही ब्रम्हयज्ञ कहते हैं!!#स्वाध्यायाय_प्रमद_मनः कभी भी स्वाध्याय में,अपने अध्ययन में,अपने आपको जानने के संदर्भ में कभी भी प्रमाद मत करना!!

(२)= #तर्पण अर्थात अपने पितरों,पूर्वजोंके सद्कार्यो का स्मरण करना!! उनकी हुयी भूलों को भी स्मरण करना!उससे शिक्षा लेना!! और आप जब शय्या त्याग करते हैं, नित्य क्रियाके उपरान्त तदोक्त स्मरण करते हुवे,आप कहते हैं कि-
#ऊँ_ब्रम्हादयो_देवास्तृप्यन्ताम्_ऊँ_भूर्देवा_स्तृप्यन्ताम्_ऊँ_भुवर्देवा_स्तृप्यन्ताम्_ऊँ_स्वर्देवा_स्तृप्यन्ताम्_ऊँ_भूभूर्वः #र्देवास्तृप्यन्ताम्।।
अर्थात हे प्रिय!!आपने प्रथम इस #देवतर्पण के द्वारा सृष्टि के आदि कर्ता ब्रम्हा,भूमि,सूर्य,चन्द्र आकाशादि सभी देवताओं की तृप्ति हेतु जल-प्रदान किया!! उन्हें धन्यवाद दिया!!

और तदोपरान्त आपने अपने ऋषियों,मनीषियोंअर्थात आपके गुरूजनों को स्मरण किया आप #ऋषि_तर्पण करते हैं- #ऊँ_सनकादयो_मनुस्यास्तृप्यन्ताम्......
ये सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र आप इन्हें धन्यवाद दें या न दें,आपको प्रकाश देते रहेंगे!! ये वायु आपके लिये चलती रहेगी,जल प्रवाहित होता रहेगा!! पुष्प सुगंध देते रहेंगे!! ये भूमि माँ मुझे ढोती रहेगी!! किन्तु क्या मैं इतनी कृतघ्ना होचुकी हूँ कि इनके लिये एक बार दिन में धन्यवाद कहकर इनकी आत्भा को संतृप्त नहीं कर सकती ?

हे प्रिय!!सनकादि ऋषियों से लेकर जितने भी ऋषियों ने आपके लिये वेदादि सच्छास्त्रों को प्रकट किया!! उन सभी "दैहिक-दैवीय तथा भौतिकीय" विद्याओं के प्रकाशकर्ताओं के प्रति मैं तो कहती हूँ कि "बाण भट्ट,जगदीश चन्द्र बोष, डा• जे होम्यू भाभा, अब्दुल कलाम आजाद" भी आपके ऋषि हैं!! मैं इनके तर्पण की भी अनुशंसा करती हूँ!!
और तदोपरान्त आप जैसे श्रेष्ठ जन #पितृ_तर्पण करते हुवे कहते हैं कि- #ऊँ _कव्यवाडनलादयः #पितरस्तृप्यन्ताम्...
मेरे कुलों में!! मेरी अनेकानेक पीढियों में जन्मे और हमे यह जीवन तथा अपना सर्वस्व दान देकर चले जाने वाले मेरे पूर्वजों को मैं स्मरण करती हूँ!!मैं और तो कुछ नहीं ये श्रद्धाञ्जली तो दे ही सकती हूँ न ?

अपने द्वार पर आये किसी को जल पिलाना तो सामान्य कर्तव्य है!! तो अपने पूर्वजों को मैं भला कैसे भुला सकती हूँ!!मैं मूर्खा वितर्क करती हूँ कि भला स्वर्ग अथवा अन्यान्य लोकों में गये पुरखों को जल पहुँचेगा ?

मैं दुष्ट-मति ये भूल जाती हूँ कि मेरे निबंध आप तक और आपकी काॅल मुझतक बेतार के तार से यदि आ सकती है!! तो ये ह्रिदय से दी हुयी आपकी अश्रु-पूर्ण #तिलाञ्जली उनतक आखिर क्यूँ नहीं पहुँच सकती!! #ये_तो_प्रेम_की_बातें_हैं_उधो_बन्दगी_मेरे_बस_की_नहीं_है।

(३)= #देवयज्ञ अर्थात देवताओं की पूर्ति हेतु,उनको पुष्ट करने हेतु, प्रकृति को नवजीवन देने हेतु,वर्षा हेतु, इस समूचे ब्रम्हाण्ड के पोषण में थोङा सा अपना भी योगदान देना!!जिसे गीता जी में मेरे प्रियतमजी #अन्नादभवन्ति..... द्वारा स्पष्ट कर चुके हैं!!और तदोपरान्त आती है बात चतुर्थ-

(४)= #भूतयज्ञ की अर्थात आप देखो तो मानवों में-
सबसे श्रेष्ठ ब्राम्हण तथा सबसे निम्न कक्षा में स्थित श्वपच!
दोनों को ही को आप सर्व प्रथम भोजन के अंश देते हैं!!
पशुओं में सबसे श्रेष्ठ गाय तथा सबसे निर्कृष्ट श्वान!!
दोनों को ही आप सर्व प्रथम भोजन के अंश देते हैं!!

कृमियों में सबसे श्रेष्ठ नाग को हम दूध पिलाते हैं!!
और सूक्ष्मतम चींटियों को भी आप आँटा देते हैं!!
हे प्रिय!! पक्षियों में सर्वश्रेष्ठ गरूङ की आराधना आप #नारायण_बली में सर्व प्रथम तथा निर्कृष्टतम कौवे को भी #काग_बली आपकी वैदिकीय सनातन संस्कृति देने का निर्देश देती है!!और अंतिम #बलिवैश्वदेव है-

(५)=जिसे #अतिथि_यज्ञ मैं अपनी कहती हूँ,दूसरों का नहीं जानती!!मैं पहले भोजन में दो तरह की सब्जी, टमाटर,प्याज, गाजर,नींबू,मूली का सलाद, दाल, रायता,पापण,घी,रोटियाँ और चावल ये सब पकाती थी!! और हम दो #पती-पत्नी मिलकर खाते थे!! एक दिन मुझे पता चला कि मेरे पीछे की गलियों में एक विधवा है!!युवा है!!उसके दो बच्चे हैं!!वो अत्यंत ही निर्धन है! कुछ लोगों की उस पे गंदी दृष्टि पण चुकी है!!

मेरे पती ने मुझसे कहा कि सुतपा!! आज से बस दाल, चावल सलाद दिन में,तथा एक सब्जी -रोटी दूध रात में!!हम दोनों खायेंगे!! और इनसे बचे पैसों को हम उन्हे दे देंगे!!ऊफ्फ्फ्फ मैं क्या कहूँ मैं बिल्कुल उनके गले से लिपट गयी!! मैं समझ चुकी थी कि "अतिथि-यज्ञ" किसे कहते हैं!!

ये जो मेरे आपके भीतर मेरे प्रियतम जी बैठे हैं न-
#अहं_वैश्वानरो_भूत्वा_प्राणिनाम_देह_माश्रितः।
#प्राणाऽपान_समायुक्तः #पचाम्यनम्_चतुर्विधम्।।

हे प्रिय!!ये जो भूखों को छोङकर मैं छप्पन व्यञ्जन खाती हूँ तो मेरे पेट में बैठे #वैश्वानर अर्थात जठराग्नि रूपी प्रियतमजी घृणा से उस भोजन को देखते हैं!!वे कहते हैं कि छिः #निर्लज्जा तुझे शर्म नहीं आती!! तेरे पडोस में वो भूखा है!!असहाय और असमर्थ है!!जा तुझे अरूचि,मधुमेह, ह्रिदय रोग हो जाये!!

अतः हे प्रिय!! ये है पितरों को निमंत्रण देने की विधि!!
यही उनको अभिवादन करने की विधि है!!
आप संस्कृत के मंत्रों को नहीं जानते!!कोई फर्क नहीं पङता!! किन्तु मैं यदि चाहे कितनी भी विदूषी होने का ढोंग कर लूँ!!और इस प्रकार से उन्हें स्मरण न करूँ!! तो वो सब व्यर्थ है!! श्राद्ध मंत्रों से होता है,किन्तु जो श्रद्धा से किया जाये वही श्राद्ध है!!

इसी के साथ इस ऋचा की प्रबोधिनी पूर्ण करती हूँ!!सूक्त की तृतीय ऋचा के साथ पुनः उपस्थित होती हूँ!!....सुतपा

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