Friday 14 September 2018

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~७ अंक~७

रावण कृत शिवताण्डवस्तोत्रम्~७ अंक~७

#करालभाल_पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
            #द्धनंजया_धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
#धराधरेंद्र_नंदिनी_कुचाग्रचित्रपत्रक-
            #प्रकल्पनैकशिल्पिनि_त्रिलोचने_मतिर्मम॥

हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-जिस योगी पुरुष की-
"कराल भाल पट्टिका" भाल पट्टिका अर्थात ललाट अंतः अग्नियों से सदैव प्रज्वलित रहती है!!अर्थात ये भी तो विचारणीय है कि इस शिव-स्वरूप की वंदना जिसने की उसने भला की कैसे ?

मैं कुछ अपनी तरफ से स्पष्टीकरण करना उचित समझती हूँ!! वर्तमान में फैली वर्ण-वादकी अग्नि ने समूचे भारतीय ही क्या वैश्विक स्तर पर सनातन धर्म के प्रत्येक घटक को इतना आंदोलित कर रखा है कि वो इस स्तोत्र की मेरी व्याख्या को भी रावण के अपमान अर्थात #ब्राम्हणों के अपमान से जोड़कर देखता है!! जब कि मैं प्रारम्भ से ही कहती आ रही हूँ कि मैं #कुलाचारिणी हूँ!!अर्थात साक्षात चाण्डालिनी!!

आप कृपया मुझे #सवर्ण_अथवा_विवर्ण न समझें!!मैं कुलाचार की प्रचारिका हूँ!!मैं वेदों की संवाहिका हूँ!! मेरी दृष्टि में #राम_और_एरावण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं!!और इस प्रकार समझ कर ही आप शिवताण्डवस्तोत्र के साथ उचित न्याय-दृष्टिकोणों से इसे समझ पायेंगे!!

हे प्रिय!!आप राम,कृष्ण,बुद्ध,महावीर आदि को यदि काल्पनिक पात्र समझते हो तो भी ठीक है!! किन्तु आपने किन्ही न किन्ही महापुरूषों के चमकते हुवे ललाट को तो देखा ही होगा!!एक अद्धभुत दमकती हुयी आभा होती है उनमें!!एक स्वाभाविक आकर्षण होता है उनमें!!और ऐसे लोग जरूरी नहीं कि सन्यासी ही हों!!वो आप जैसे सामान्य गृहस्थ दम्पत्ति भी हो सकते हैं!!

और इस चमकते हुवे ललाट का रहस्य इस श्लोक में दशानन ने स्पष्ट रूप से बता दिया है!!किन्तु उस रहस्य को समझने हेतु प्रथम "धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक" को मैं आपसे समझना उचित समझूँगी!!

आप जरा कल्पना करो कि जिस पुरूष के समक्ष एक अनिन्द्य सर्वांग और वो भी वसन-विहीन सुंदरी हो!!जिसके आगोश में कोई ऐसी सुंदरी समायी हुयी हो!!ऐसी स्थिति में जो पुरुषत्व युक्त पुरुष होगा वो क्या करेगा ?

आप नहीं कहोगे,मैं ही कहती हूँ!!वो तो उस स्त्री के साथ काम-केलि में निमग्न हो जायेगा!!आतुरता पूर्वक उसे मात्र वासना के उच्चतम शिखरों पर चढ कर गड्ढों में गिरना ही उसका एकमात्र लक्ष्य होगा न!!

किन्तु ऐसी स्थिति आने पर भी जो प्रगाढ प्रेम पूर्वक अपनी प्रेयसी के अंतर्मन को उन्मादित करने हेतु!! उसे परमरसानुभूति कराने हेतु उन कुचाग्रों पर जिसकी कमनीयता,सौष्ठव,लालित्य,वर्ण तथा कठोरता वासना-प्रवाहों के कारण किसी उन्मुक्त उन्मत्त शैल-शिखरों की तरह अपने प्रिय के आलिंगन हेतु व्यग्र हों!!

वे स्तन्य जो अपने प्रियतम के द्वारा होने वाले मर्दनों की प्रतिक्षा में व्याकुल हों!! उन्हें योगिराज मर्दन भी नहीं करते!!अपनी प्रिया की इस समर्पण मयी भावना का तिरस्कार भी नहीं करते!!और न ही वे कामासक्त भी होते हैं!!और न ही अपनी प्रिया को ऐसा आभास होने देते हैं कि उनमें उनके प्रति राग का अभाव है!! वे भोगेच्छुक नहीं हैं!!

और यह तो स्पष्ट ही है कि स्ज्ञीयाँ तो काम-निपूणा होती हैं!!हे प्रिय!! आपकी कामनामयी अथवा तिरस्कार मयी दृष्टियों,संवादों और आपके स्पृहा अथवा निंस्पृह स्पर्शों का आपकी प्रियतमा तत्काल ही अनुमान लगा लेती हैं!! और तभी तो हमें शास्त्रों में #कामिनी कहते हैं!!

और ऐसी परम संवेदनशील सौन्दर्य तथा कमनीयता की साम्राज्ञिनी और तिसपर भी सद्यो परिणिता!! और काम-बाणों से व्याकुल चित्त "धरा धरेन्द्र नन्दिनी" आप और भी ध्यान दें!!अत्यंत ही विस्मयकारी सार गर्भित विनोदात्मक किन्तु साधनात्मक सूत्र है यह!!

कुचाग्र ही तो स्त्रीयों के अत्यंत ही संवेदन शील अंग होते हैं!!कामसूत्रों के वर्णन कर्ताओं ने कुचाग्र-ओष्ठ और वज्राग्र की प्रिय-पात्र के छणिक स्पर्श से ही आह्लादित कर देने वाली जिस मनोस्थिति का वर्णन किया है!! उन अविस्मरणीय छणों के अनुभव कर्ता भला त्रिलोकी में कौन नहीं होंगे ?

हे प्रिय!!अभी पिछले अंक में मैं " धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक"पर चर्चा कर रही थी!!दशानन कहते हैं कि-ऐसे योगिराज!! जो अपर्णा के कुचाग्रों को चित्रित करते हैं!!

अभी आप एक विशेष तथ्य पर और भी ध्यान देना!! जैसे कि शिव की प्रथम भार्या दक्ष प्रजापति की कन्या सती थीं!! उनके आत्मत्याग के पश्चात उन्होंने ही "धराधरेंद्र नंदिनी"अर्थात हिमालय के यहाँ #पार्वती के रूप में अवतार लेकर पुनश्च शिव को प्राप्त किया!!

अभी इसमें तो एक समस्या होगी!! यदि मैं इस पौराणिक दृष्टान्त को सत्य मानती हूँ तो इतना तो मानना ही होगा कि-
(१)=सती के साथ मान लें कि शिव ने जब विवाह किया तो दोनों की आयु में थोडा सा अंतर होगा!!चलिये मान लेती हूँ की दोनों २०~२२ वर्षों के होंगे!!

(२)=अब इन दोनों का दाम्पत्य जीवन भी २० वर्षों का मान लेती हूँ!!
(३)=इस प्रकार शिव की आयु ४२ वर्षों की हो गयी!!
(४)=तदोपरान्त सती के प्राणोत्सर्गोपरान्त वे हिमालय के यहाँ जन्म लेकर तपस्या करती हैं!!जब वे विल्वकेश्वर में तपस्या हेतु जाती हैं तो उनकी आयु ८ वर्षों थी!!

(५)=पुनश्च १२ वर्षों तक वे तपस्या कर पुनश्च शिवजी की अर्धाड़्गिनी बनती हैं!! अर्थात उनकी आयु तब २० वर्ष की थी!!
(६)=और तब शिवजी की आयु पूर्वोक्त कथानुसार ४२+२०=६२ वर्ष की तो हुयी न ?

तो २० वर्षीय कन्या का विवाह ६२ वर्षीय पुरूष से हुवा ये तो कम से कम आपको मानना होगा ही!! और यदि आप नहीं मानते तो ये मान लो कि ये कपोल कल्पित कथा है!!अथवा नाना अवैज्ञानिकीय अंधविश्वासु तर्कों का आश्रय लेकर अपनी सनातन संस्कृति को बदनाम होने दो!!

हाँ मैं इस कथा के कुछेक वैज्ञानिकीय पक्षों पर प्रकाश डालना चाहूँगी!! और इन कथनों के सत्यापनाऽर्थ आप प्रथम •ऋ•मं•१•सू•१७९•मं•१•के इस मंत्र को देखें--
#पूर्वीरहं_शरदः #शश्रमाणा_दोषावस्तोरूषसों_जरयन्तिः।
#मिनाति_श्रियं_जरिमा_तनूनामप्यू_नुपत्नीर्ववषणो_जगम्युः।।

अर्थात श्रमशील,वीर्य-सींचने में समर्थ पूर्ण युवावस्था युक्त पुरुष अपनी प्रेयसी को आनंद देते हुवे जैसे सभी ऋतुवें वृद्धावस्था को प्राप्त कराने वाली उषा काल में भी वृद्ध नहीं होतीं!!उसी प्रकार ऐसे पुरूष जिन्होंने ब्रम्हचर्यादि का निष्ठा पूर्वक पालन किया हो वो शतायु तक विषयों को भोगते हुवे भी वृद्ध नहीं होते!!

वस्तुतः मात्र प्राचीन काल के लिये ही ये नियम नहीं हैं!!ये तो जीवन के सूत्र हैं!!इन सूत्रों को न जानने के कारण ही तो आज मेरी सांस्कृतिक सामाजिकता पतन के गड्ढों में जा रही है!!और ये भी विलक्षण सत्य है कि आप पुरूषों का पुरूषत्व "संयोग कालीन अवसरों में संयम की अपेक्षा करता है!!

और यदि आपमें संयम है तो आप पर आयु वृद्धि के साथ #जराऽवस्था का आक्रमण जल्दी नहीं होगा!! आप इतिहासों को भले ही नैतिकता की दुहायी देकर या तो अनैतिक मान लो,अथवा झूटा मान लो,पुरूष वादी मान लो!!अथवा फिर उन्हे कपोल-कल्पित मानकर उनका उपहास कर लो!!

किन्तु हे प्रिय!!आप वास्तविकता को कैसे झुटला दोगे ?
जिस आर्यसमाज के संस्थापक पूज्य दयानन्द सरस्वती जी ने इन पुराणों का उपहास किया वे भी प्रकारान्तर से सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं कि-
जो २५ वर्ष पर्यन्त पुरुष ब्रह्मचर्य करे तो १६ वर्ष पर्यन्त कन्या।
जो पुरुष ३० वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहै तो स्त्री १७ वर्ष, जो पुरुष छत्तीस वर्ष ब्रम्हचारी रहें तो स्त्री १८ वर्ष!!

जो पुरुष ४० वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २० वर्ष,  जो पुरुष ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २२ वर्ष,  जो पुरुष ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य करे तो स्त्री २४ चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन रक्खे !!

अर्थात यह वैदिक रूपात्मक आप पुरूषों की संसर्गात्मक क्षमता यह सिद्ध करती है कि #आयु_वृद्धि सांसारिक समागमों में दुर्बलता की कारण नहीं है!!और चिकित्सा शास्त्री भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं!! किन्तु हे प्रिय!! विचारणीय तो यह #वात्स्यायन के सिद्धांत हैं कि ये समाज अंतःकरणों में विषयादि का चिंतन करता हुवा भी इसे सरल ह्यदय से स्वीकार नहीं कर पाता!!
अब मैं मात्र पौरूषेय क्षमता पर चर्चा कर रही हूँ!!एक विचारणीय सत्य है कि आधुनिक चिकित्सक तथा वेदादि सच्छास्त्र भी ये स्वीकार करते हैं कि मानव की पूर्ण रूपेण स्वस्थ रहते हुवे भी आयु १२० वर्षों की हो सकती है!!

यदि आप ये स्वीकार करते हो कि जीवन के ब्रम्हचर्य तथा गृहस्थ आश्रम के ३०~३० वर्ष हों तो स्वाभाविक ही हैं कि ६० से लेकर ९० वर्ष की आयु ही वानप्रस्थी हेतु प्रशस्त है!! और आपका ही इतिहास इसकी पुष्टि करता है कि याज्ञवल्क्य,रंतिदेव,कुवलयाश्व,अत्रि, आरुणी,उद्दालक,धृतराष्ट्र,विदुर,गांधारी, और पंच पाण्डवों तक ने इन दोनों आश्रमों का पालन करने के उपरान्त ही वानप्रस्थ को धारण किया और वो भी अपनी ऋषिकाओं के साथ अर्थात अपनी पत्नी के साथ ही वे वानप्रस्थी बने!!

और भी एक कड़वी सच्चाई मैं कहना उचित समझती हूँ कि हमारे पुराणों अथवा ऋषियों पे ये आरोप लगाने की परम्परा रही है कि योग्य राजाओं,विद्यावानों तथा ऋषियों की अनेक पत्नियाँ हुवा करती थीं!!यहाँ तक कि राजा गण अपनी विवाह योग्य कन्याओं को स्वेच्छा से ऋषियों को समर्पित कर देते थे!!

इसके कारणों पर शोध की आवस्यकता न समझकर मात्र उनकी निन्दा करना तो अत्यंत ही अशोभनीय होगा!! हे प्रिय!! मैं समझती हूँ कि प्रतिभा सम्पन्न पुरुष ही तो किन्हीं योग्य संतानों के जन्मदाता हो सकते हैं!! अन्यथा मात्र सामान्य दम्पत्तियों की उत्पन्न संतानों का तो कोई औचित्य ही नहीं है!!कुछ न कुछ विशिष्टता तो सबमें होती है!!किन्तु कोई-कोई विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं!!

हे प्रिय!!मैं समझती हूँ कि श्रेष्ठ भूमि में पड़ता हुवा निर्कृष्ट विषों का बीज तो विष ही उत्पन्न करेगा न!! और यदि उच्चकोटि का अनंत संभावनाओं से युक्त बीज किसी दुःषित भूमि में स्थापित हुवा!!अथवा बंजर भूमि में भी स्थापित हुवा तो समय,स्थिति-संयोग पाकर वह श्रेष्ठ वृक्ष के रूप में कभी न कभी पुष्पित- पल्लवित होगा ही!!

किन्तु ऐसे श्रेष्ठ पुरुष हैं कौन!!हे प्रिय!!इस संदर्भ में •ऋ•मं•३•सू•८•मं•४•में कहते हैं कि-
#युवा_सुवासा_परिवीत_आगात्स_उ_श्रेयान्भवति_जायमानः।
#तं_धीरासः #कवय_उन्नयन्ति_स्वाध्यो_मनसा_देवयन्तः।।

जिन्होंने सभी ओत से अपनी वृत्तियों को परिवितः अर्थात एकाग्र तथा #उपवीत परमार्थ में स्थित कर लिया हो!!ब्रम्हचर्य के तत्त्वार्थ से अवगत हों!! परिणामतः वो युवा अर्थात मंगलकारी तो होंगे ही!!जो मनस्वी,विद्याओं के जानने वाले हों!!अद्वितीय विद्वान, प्रज्ञा भाव में अर्थात आत्म-भावों में स्थित जो श्रेष्ठ ऋषियों के समान पुरूष होते हैं!! उनमें स्थित श्रेष्ठतम बीज यदि पल्लवित होगा,तो उससे विश्व, राष्ट्र,संस्कृतियाँ, समाज ही क्या आने वाली पीढियाँ भी उपकृत होंगी!!

इसी कारण ऐसे श्रेष्ठतम पुरूषों की सेवा में ऋषि गण ही क्या चक्रवर्ती सम्राट भी अपनी कन्याओं को अर्पित कर देते थे!!परिणामतः किसी एक ही श्रेष्ठ ऋषि की अनेक पत्नियों से होने वाली संतानें भी #ऋषि ही हुवा करती हैं!!अतः कुछेक व्यक्तित्वों हेतु अनेक पत्नियों का होना असामाजिक नहीं कहा जा सकता!!

और हे प्रिय!!ऐसे श्रेष्ठ मनस्वी पुरुष अपनी पत्नियों के साथ मात्र #वाजसानेय_यज्ञ अर्थात संतान प्रात्प्ति हेयु ही यज्ञ करते थे!!किंतु इसमें अभी और भी एक बात समझनी मैं आवस्यक समझती हूँ,कि वे अनुपम कन्याऐं कैसी होती हैं जिनके द्वारा ऋषियों का प्राकट्य होता है!!क्यों कि मात्र इतना ही पर्याप्त नहीं है!!स्त्रीत्व की श्रेष्ठता भी ऋषियों के प्राकट्य में हेतु होती है!!इस संदर्भ में भी मैं आपको •ऋ•मं•३•सू•५५•मं•१६•का यह मंत्र दिखाना चाहूंगी-

#आ_धेनवो_धुयन्तामशिश्वीः #सबर्दुधाः #शशया_अप्रदुग्धा।
#नव्यानव्या_युवतयो_भवन्तिर्महद्देवानामसुरत्वमेकम।।
ऐसी कन्या जिनका किसी से संगम न हुवा हो,वो धेनु के सदृश्य,बाल्याऽवस्था से रहित,किशोरावस्था का उल्लंघन करने के उपरान्त पूर्ण यौवन सम्पन्ना हो!! गर्भ-धारण योग्य हो!!मनोनुकूल मनस्वी तथा शिक्षित हो ऐसी कन्या ही मनीषियों से विवाह के योग्य है!! और इससे से ही दोनों दम्पत्तियों के सभी लोक सिद्ध होते हैं!!
हे प्रिय!!दशानन कहते हैं कि-"धनंजया धरीकृत प्रचंडपंचसायके"ये अनुपम सूत्र है!!कदाचित आपके पुरूषत्त्व की पराकाष्ठा तथा पुरूष की प्रधानता के कारणों का प्रमाण है!!आप स्मरण रखें कि,मेरे प्रियतमजी ने•श्री•गी•१•१५• में कहते हैं कि-
#पांचजन्यं_ह्रषीकेशो_देवदत्तं_धनञ्जयः।

बाह्य धर्म संस्थापनार्थाय हो अथवा अंतः धर्म संस्थापनार्थाय  दोनों ही महाभारत हैं!!और इस महाभारत में सर्वप्रथम पांचजन्य शंख-ध्वनि कृष्ण और "देवदत्त" शंख-ध्वनि धनञ्जय ही करते हैं!! इसमें भी रहस्य है!!हरिवंश पुराण•२•३३•१७•में कहते हैं कि महान विष्णु-भक्त किन्तु असुर #पंचजन नामक राक्षसी प्रवृत्तियों का संहार कर उसे पांचजन्य नामसे धारण किया था!!और इसे ही इस श्लोक में "धरीकृतप्रचंडपंचसायके"कहा गया है!!

ये आपके काम,क्रोध,लोभ,मोह और मत्सर ही पंचजन हैं!!ये सभी असुर अर्थात दुष्प्रवृत्तियाँ होती हुयी भी आपके कल्याण में हेतु हैं!!ये एक अलौकिक सत्य है कि-
शिव कामारि हैं,काम-वासना का मर्दन करने वाले हैं!!
शिव करुणा के सागर है,उनका क्रोध भी हमपर करुणा हेतु ही है!!उन्हें तो मात्र यही लोभ है कि आप उनके अंश हैं!!उन्हें ही प्राप्त हों!!वो आपसे मोह करते हैं!! और फिर उन्हे आप जैसी श्रेष्ठ संतानों पर अभिमान तो होगा ही!!

और जब आप जैसे कोई #अर्जुन यौगिक राजसूय यज्ञार्थ अपने मन के सभी वृत्ति रूपी राजाओं पर विजय प्राप्त कर यौगिक अकूत संपदाओं के अधिकारी बन जाते हैं तो आप ही "धनंजय"कहे जाते हैं!!

हे प्रिय!!वेदोक्त ऋषियों का गृहस्थ जीवन हो अथवा कुलाचारात्मक आचार्यों की चक्रचारिता में भूमिका कैसी होती है अपनी प्रेयसी,शिवा,भूमि अथवा भैरवी के प्रति इसे ही इस श्लोक में कहते हैं कि जो मेरे द्वारा इसके पूर्व में लिखित अंकों में #ऋषि-पुरूष की कल्पना की गयी है!!

ऐसे श्रेष्ठ यज्ञाचार्य "धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक" अपनी प्रेयसी को अंक में लेते हैं!! और वो कन्या जो ऋतुमति होने के कारण प्रणयोत्सुका हो उसके आवेगों का तिरस्कार नहीं करते!! और यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसा उन घड़ियों में करने की योग्यता किसी कामारि में ही हो सकती है जो कि सर्वांड़्गीण अक्षत यौवना जो अभी एक अनछुयी कली है!!

जिसके वक्षस्थल अभी तो अविकसित और मात्र अग्रभाग ही जिनका उद्भासित हुवा है!!ऐसे कुचाग्रों पर जिन्हे बड़े से बड़े संयमी भी पाकर वासना के आवेगों में बहकर पशुतूल्य आचरण करने को बाध्य हो जायेंगे!! उन निर्वसन अर्ध विकसित पुष्प पत्रकों पर कोई शिव ही-

"प्रकल्पनैकशिल्पिनि" स्वयंम यौगिक कल्पनाओं में आरूढ रहते हुवे उस भैरवी को वासनानंद सुख मिलता रहे जिसके परिणाम स्वरूप "कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-" उनकी भाल-पट्टिका चक्रों के भेदन द्वारा प्रज्वलित भी हो जाये!! अर्थात स्त्री की ईच्छा पूर्ति के साथ-साथ जिसका बीज अखण्डित रहे!!

हे प्रिय!!ऐसे यौगिक ऋषियों के अकल्पनीय संयोगों के परिणाम भी तो अलौकिक ही होंगे न!!यदि ऐसी स्थिति में वितरागी पुरूष "गर्भ-स्थापनार्थ" वीर्य निःशेचन करते हैं तो कोई ऋषि ही अवतरित होगा!! आप यह स्मरण रखें कि संभोग एक ऐसी स्थिति है जिसमें जाकर जिस प्रकार #अंत_मता_सो_गता आपकी जैसी मनोस्थिति होगी-संतति भी वैसी ही होगी!!

हे प्रिय!!इस संदर्भ में बृहदारण्यकोपनिषद में कहते हैं कि-
#तस्या_वेदिरूपस्थो_लोमानि_बर्हिश्चर्माधिषवणे #समिद्धो_मध्यतस्तौ_मुष्कौ_स_यावान्_ह_वै_वाजपेयेन_यजमानस्य_लोको_भवति_तावानस्य_लोको€भवति #य_एवं_विद्वानधोपहासं_चरत्यासाँस्त्रीणाँ_सुकृतं #वृङ्क्तेअ्थ_य_इदमविद्वानधोपहासं_चरत्यास्य_स्त्रियः #सुकृतं_वृंजते॥

स्त्री की उपस्थेन्द्रिय वेदी है, वहाँ के रोएँ कुशा हैं, योनि का मध्यभाग प्रज्वलित अग्नि है, योनि के पार्श्वभाग में जो दो कठोर मांसखण्ड हैं उनको मुष्क कहते हैं, वे दोनों मुष्क ही 'अधिषवण' नाम से प्रसिद्ध चर्ममय सोमफलक हैं ।

वाजपेय यज्ञ करने से यजमान को जितना पुण्यलोक प्राप्त होता है, उतना ही उसे भी होता है । जो कि इस प्रकार जानकर मैथुन का आचरण करता है, वह इन स्त्रियों के पुण्य को अवरूद्ध कर लेता है और जो इसे नहीं जानता है, वह यदि मैथुन करता है तो स्त्रियाँ ही उसके पुण्य को अवरूद्ध कर लेती हैं॥

हे प्रिय!!और यदि वह शिव सदृश्य पुरूष इन दोनों परिणामों का ज्ञाता तथा विशेषज्ञ है तो ऐसे "त्रिलोचने मतिर्मम"तीनों लोकों के विजेता योगिराज में मेरी मति सदैव स्थिर रहे!!ऐसा दशानन कहते हैं!!

और इसी के साथ इस श्लोक का तत्वानुबोध पूर्ण करती हूँ !! #सुतपा!!

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