Friday, 21 February 2025

विज्ञान भैरव तंत्र

विज्ञान भैरव तंत्र सूत्र~मंत्र-९९ विधि-७५~३ अंक~२१६
प्रिय ! अब इस अद्भुत श्रृंखला में मैं "विज्ञान भैरव तंत्र"के ९९ वें श्लोक की व्याख्या में प्रस्तुत कर रहा हूँ,-भैरवी सिद्धि की ७५ वीं विधा का तृतीय अंक-
#निर्निमित्तम्_भवेज्_ज्ञानं_निराधारम्_भ्रमात्मकम् ।
#तत्त्वतः #कस्यचिन्_नैतद्_एवम्भावी_शिवः #प्रिये ॥
हाँ ! इच्छा किसी भी प्रकार की हो, वो एक अद्वितीय शक्ति है ! और शक्ति अहंकार की भगिनी हैं 
सूत्रानुसार ये काम,क्रोध, लोभ,मोह हों अथवा कि दैहिक-दैविक-भौतिक ताप ! सांसारिक दृष्टि से भोगवाद एवं आध्यात्मिक दृष्टि से योगवाद ये दोनों ही रस्सी के दो छोर हैं ! इनके बीच अनादि काल से चलती रस्साकशी एक ऐसा द्वन्द्वयुद्ध है जिसके प्रतिद्वंदी प्रतिपक्षी अर्थात- " #देवासुर " मनुष्येतर हैं ! ये वही प्राचीनतम कथानक है जहाँ से #कुम्भ पर्व का प्रारम्भ हुवा ! हम उनकी उपासना करेंगे अथवा नहीं करेंगे ?
आत्मीय स्वजनों-यह सनातन सत्य है कि-"असत्य" को सत्य परिभाषित करने से नाना मतान्तरों का ये अभिशप्त अभिप्राय रहा है कि उन्होंने-"शक्ति और ज्ञान" को पृथक-पृथक देखते-देखते इनके दृष्टा अर्थात अपने-आप को ही भुला दिया।
मित्रों ! श्रीमद्भगवद्गीता त्रयोदश अध्याय अर्थात-"क्षेत्र क्षेत्रज्ञद्वी विभाग" योगाध्यायान्तर्गत-"श्रीकृष्ण कालिका" ने इसे ही स्पष्ट करते हुवे कहा है कि भूमि और भूमिज्ञ अर्थात कृषक और भूमि 
वहाँ ये स्पष्ट करते हैं कि-
"इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ 
हे कुन्तीपुत्र ! यह शरीर ही क्षेत्र (कर्म-क्षेत्र) कहलाता है और जो इस क्षेत्र को जानने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ (आत्मा) कहलाता है, ऎसा तत्व रूप से जानने वाले महापुरुषों द्वारा कहा गया हैं। 
यहाँ यह गुप्त रूप से अस्पष्ट है कि यही-"तत्त्वज्ञान" है।
अर्जुन को उनकी माता का स्मरण दिलाकर ये कहा गया है ! यहाँ यह उल्लेखनीय है कि माँ कुन्ती की सभी सन्तानें-"मानस शक्ति " से उत्पन्न हुयीं ! अर्थात-"इच्छा से उत्पन्न सन्तान ही संसार है !"
"मूंदहुं आँख कतहूँ कछु नांहीं" किन्तु-"कर विचार देखहुं मन माहीं"।
मित्रों ! भगवती सदृश्य सुतपा माँ के साथ मैंने इस श्रृंखला का प्रारम्भ भैरवी सिद्धि की नाना विधाओं हेतु किया था ! हमारे आप सभी  के मार्गदर्शन हेतु किया था ! "निर्निमित्तम् भवेज् ज्ञानं" वो निमित्त 
अर्थात इच्छा ही पुनश्च इस ज्ञान में हेतु बनने को उत्सुक है ! और किस बिन्दु पर इच्छा और ज्ञान का पटाक्षेप हो जायेगा  तदर्थ- "ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः"ततत मैं ह्रदय से कहता हूँ कि हमदोनों की -इस जीवन की अंतिम इच्छा केवल-"कैवल्य" की व्याख्या करते करते श्मशान वास करने की है ! और वो इसलिए भी कि पुनश्च उसी कैवल्य की व्याख्या हेतु-"जायते ही ध्रुवो मृत्युः ध्रुवो जन्म मृतश्य च"।
माँ मुझसे सदैव कहती हैं कि-"मैं और तूं अलग अलग नहीं हैं ! हो भी नहीं सकते ! तुझे मेरी शक्ति का आभास नहीं है ! मुझे तेरा ज्ञान नहीं है ! शक्ति का आभास अर्थात ज्ञान होना ही अहंकार में हेतु है-"का बल साधि रहै हनुमाना" इसे निराधार ही रहने दो-"निराधारम् भ्रमात्मकम्" ये निराधार होने का भ्रम ब्रम्हाण्ड के सभी आधारों का आधार है।
मैंने ये समझा है कि शक्तिशाली होने का एकमात्र उपाय है-
"तपबल जपबल और बाहुबल चौथो बल है दाम।
ये सब बलशाली के बल हैं- "हारे को बल राम॥"
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि-
"एक राम दशरथ घर डोला,एक राम घटो घट बोला।
एक राम का सकल पसारा चौथो राम इन सबसे न्यारा॥"
संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने उन्हीं को-"हारे को बल राम" कहा है ! अनेकानेक दिवसों के पश्चात पुनश्च इस श्रृंखला के नवीन अंकों को प्रस्तुत करने का सौभाग्य मिला ! आप सभी की पावन स्मृति से मिला ! अभी भी इस विधा का भाव अधूरा है शेष.....सुतपा-आनंद....सचल दूरभाष क्रमांक ६९०१३७५९७१

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